मित्रो! पाठनामा में आज प्रस्तुत है रघुविन्द्र यादव की दोहा कृति नागफ़नी के फ़ूल’ जिस पर समीक्षात्मक आलेख भेजा है फ़िरोज़ाबाद से कवि, आलोचक डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने।
रघुविन्द्र यादव-जन्म-27 सितम्बर,1966.शिक्षा- इतिहास तथा जनसंचार में स्नातकोतर उपाधियाँ और शिक्षा स्नातक.कृतियाँ- मौलिक- कामयाबी की यात्रा (प्रेरक निबंध संग्रह), नागफनी के फूल (दोहा संग्रह), सम्पादित- पर्यावरण परिचय, जीने की राह, शंखनाद, अभिनन्दन के स्वर. प्रकाशनाधीन कृतियाँ-वक़्त करेगा फैसला (दोहा संग्रह), अन्य प्रकाशन- सैंकड़ों दोहे, फीचर, लेख, कविताएँ, लघुकथाएँ देशभर के पत्र-पत्रिकाओं/वेब पत्रिकाओं और संकलनो में प्रकाशित. विशेष-आकाशवाणी के अनुबंधित फीचर लेखक. पुरस्कार- बाबू बालमुकुन्द गुप्त पुरस्कार 2010. सम्मान - साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता और पर्यावरण के क्षेत्र में उलेखनीय
योगदान के लिए दर्जनों साहित्यिक, सामाजिक और शासकीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत तथा दोहा विधा के विकास में बहुमुखी एवं बहुआयामी योगदान के लिए अभिव्यक्ति साहित्यिक मंच द्वारा "दोहा रत्न" की उपाधि से अलंकृत. आजीविका-हरियाणा शिक्षा विभाग में व्यावसायिक प्राध्यापक
सम्प्रति-हरियाणा की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका "बाबूजी का भारतमित्र" के संपादक.
संपर्क-email-raghuvinderyadav@gmail.com
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'- जन्म-5 जुलाई, 1949.शिक्षा- ऍम. ए., पी.एच.डी., डी. लिट.कृतियाँ-मौलिक - मन पलाशवन और दहकती संध्या (नवगीत-ग़ज़ल), गलियारे गंध के (नवगीत), पांखुरी-पांखुरी (मुक्तक), सीप में समंदर (ग़ज़ल),मेले में यायावर(गीत), आंसू का अनुवाद (दोहा), अहिंसा परमो धर्म: (गीत-दोहा), अँधा हुआ समय का दर्पण (नवगीत), संस्कृति और साहित्य(शोध), समकालीन हिंदी गीतिकाव्य : वेदना और शिल्प. संपादित- 10 लेखन सहभागिता- 85 स्तरीय कृतियों में. मानद उपाधियाँ- साहित्य वाचस्पति, गीत गन्धर्व, काव्य महारथी, गीत श्री, सनातन गौरव, भारती सेवा भूषण, काव्य श्री आदि। विशेष- आकाशवाणी के आगरा, मथुरा व दिल्ली केन्द्रों से रचना प्रसारण, 1976 में भाषा विभाग द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार. डॉ.राम मनोहर लोहिया विश्व विद्यालय, फैजाबाद में डॉ. यायावर की साहित्य साधना विषय पर पी. एच. डी.
सम्प्रति- रीडर, शोध एवम स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, एस.आर.के. पी जी
कालेज, फिरोजाबाद
शोध निर्देशन- 35 पी. एच. डी. प्राप्त, 8 शोधरत .
जिन्दगी की डाल से तोड़े गये- ‘नागफनी के फूल’
रघुविन्द्र यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील रचनाधर्मी हैं। आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल से सद्य प्रकाशित 80 पृष्ठीय ‘नागफनी के फूल’ उनके 25 शीर्षकों में बंटे 424 दोहों का मनभावन संग्रह है। इसमें सरलभाषा में लिखे गये दोहों में जीवन, राजनीति, यथार्थ, जीवन की विसंगतियों, मूल्यहीनता, भ्रष्ट व्यवस्था, आतंकवाद, गाँव की बदलती हालत, पर्यावरण प्रदूषण, रिश्तों में फैलती स्वार्थपरता, संबंधों की मृदुता, हिन्दी की महत्ता आदि अनेक विषयों पर प्रभावी दोहे अनुस्यूत हैं। इन दोहों में मिथकों का नवीनीकरण करते हुए यथार्थ को वाणी दी गई है और सरल प्रतीकों से जीवन के सत्य को रुपापित किया गया है। इनका संवेदना-संसार व्यापक है। वे व्यक्ति से लेकर विश्व और अंतरिक्ष तक को अपना कथ्य बनाते हैं। भाषा पर कवि का अधिकार है और समन्वय का परिपालन करते हुए दोहाकार ने परिमार्जित शब्दावली से लेकर विदेशी और देशज शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। लोक-संस्कृति और लोक-जीवन के प्रति कवि का गहरा अनुराग है। इसीलिए तो शहर की जिन्दगी उसे ‘घर में ही वनवास’ भोगने जैसी लगती है। सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण से कवि आहत है, इसीलिए उसे लगता है कि अब ‘लोग नागों से भी अधिक विषैले हो गए हैं’, ‘आँगन में नागफनी’ उग आई हैं, चीखती द्रौपदी की लाज बचाने वाला कोई नहीं क्योंकि आज के केशव स्वंय गुण्डों से मिल गए हैं, नेता और दलाल देश को लूट कर खा रहे हैं और हमारी संवेदनाएं सूख गई हैं। धारदार भाषा में जीवन के जटिल यथार्थ को प्रकट करने की कवि की क्षमता प्रसंशनीय है। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और पुलिस के खौ$फनाक भक्षक चेहरे को उजागर करते हुए जब यादव जी कहते हैं-
संसद में होती रही, महिला हित की बात।
थाने में लुटती रही, इज्जत सारी रात।।
तो आज का नंगा यथार्थ अपने विद्रूपित चेहरे के साथ सामने आ जाता है। इसी तरह जब वे आज की व्यवस्था के षडय़ंत्रकारी शोषक चेहरे को निरावृत्त करते
हुए कहते हैं-
हत्या, डाका, रहजनी, घूस और व्यभिचार।
नेता करने लग गये, लाशों का व्यापार।।
तो आज की राजनीति का सच सामने आ जाता है। भू्रणहत्या जैसे दुर्दान्त पाप हों, या प्रकृति का अनियन्त्रित और अंधाधुंध दोहन, नेताओं की धूर्तता हो या पुलिस का अत्याचार, आज की पीढ़ी में पनपती अनास्था हो या पारिवारिक मूल्यों का क्षरण, फैलते बाजारवाद का दुर्दान्त चेहरा हो गया वैश्वीकरण के अंतहीन दुष्परिणाम, कवियों की गिरती छवि हो या पत्रकारिता का थ्रिल तलाशता बाजारी चेहरा, महँगाई की मार से बेदम हुआ अवाम हो या संबंधों में पनपी स्वार्थपरता, मूल्यों की टूटन हो या संस्कृति का क्षरण यादव जी सच को सच की भाषा में उकेरना जानते हैं। वे आज की समस्याओं और प्रश्रों से सीधे-सीधे मुठभेड़ करते हैं। यथार्थ जीवन की विकृतियों और दुर्दान्तताओं पर सीधे-सीधे चोट करते कुछ दोहे दृष्टव्य हैं-
विद्वानों पर पड़ रहे, भारी बेईमान।
हंसों के दरबार में, कौवे दें व्याख्यान।।
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दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज।
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज।।
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जब से उनको मिल गई, झंडी वाली कार।
गुण्डे सारे हो गये, नेताजी के यार।।
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नफरत बढ़ती जा रही, घटा आपसी प्यार।
जब से पहुँचा गाँव में, केबल का व्यापार।।
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नारी थी नारायणी, बनी आज उत्पाद।
लाज-शर्म को त्याग कर, करे अर्थ को याद।।
इन दोहों की धार बड़ी तीखी है। भाषा के संबंध में कवि अत्यंत उदारवादी है। उसने एक ओर ख्वाहिश, उसूल, अदब, गिरवी, ज़लसे, तमन्ना, रहबर, राहजनी,
अवाम तथा शान जैसे उर्दू फारसी शब्दों का प्रयोग किया है तो केबल टी.वी.जैसे अंग्रेजी शब्द भी इनमें उपलब्ध हैं। कुछ शब्दों को कवि ने देशज शैली में भी प्रयुक्त किया है, यथा मन्तरी, डूबन आदि। मिथकों का प्रयोग अत्यंत शानदार है। द्रौपदी, कृष्ण, देवकी, केशव आदि का प्रयोग करके कवि ने अभिव्यक्ति को दमदार बनाया है परन्तु यथार्थ की ऐसी दमदार अभिव्यक्ति वाले कुछ दोहों में भी कहीं-कहीं संरचनात्मक त्रुटियाँ रह गयीं हैं, परन्तु ये दोष अपवाद स्वरूप हैं, अन्यथा ये दोहे निर्दोष हैं। हमारा विश्वास है कि ‘‘नागफनी के फूल’’ के ये दोहे साहित्य जगत में सम्मान पायेंगे।
डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’