मित्रो! पाठकनामा में आज प्रस्तुत है डा. दिनेश त्रिपाठी’शम्स’ की गज़ल कृति ’आंखों में आब रहने दे’ पर डा. शिव ओम अम्बर का समीक्षात्मक आलेख।
कृति : ‘आंखों में आब रहने दे’ (गजल संग्रह) कृतिकार : डा. दिनेश त्रिपाठी ‘ शम्स’
प्रकाशक : मीनाक्षी प्रकाशन,एमबी-३२/२बी , शकरपुर , दिल्ली -११००९२, मूल्य : १०० रुपये
आश्वस्ति भाव को जगाने वाली प्रभाती ध्वनियां हैं डा. दिनेश त्रिपाठी ‘ शम्स’ की ग़ज़लें
---डा.शिव ओम अम्बर
समकालीन हिन्दी ग़ज़लों के प्रातिभ हस्ताक्षर डा. दिनेश त्रिपाठी ‘ शम्स’ की ग़ज़लें चित्त में एक आश्व्स्ति भाव जगाती हैं . वस्तुत: एक सह्र्दय पाठक जब अपने अन्तस में भावों को कहीं प्रतिच्छवित पाता है , अपने ही प्राणों की गूंज को कहीं अनुगुंजित महसूस करता है तो वह अपने ही जैसे किसी अन्य की उपस्थिति के अहसास से आश्वस्त हो उठता है . शम्स की ग़ज़लें अपनी सहज सम्वेद्य क्षमता , अपनी सम्वादी भाषा , आत्मीय मुद्रा और गहन अनुभूतियों के कारण इसी आश्वस्ति भाव को जगाने वाली प्रभाती ध्वनियां हैं.
प्रीति मानवीय चित्त की आदिम अरुणाभ उषा है. पहली बार जब किसी प्रणयी ने अपने अनुराग के प्रतीक के रुप में किसी भावमयी चेतना को गुलाब समर्पित किया होगा तबसे न जाने कितने गुलाब प्रणय के पावन उपहार बने होंगे किन्तु न तो प्रणयी चित्त की दहक कम हुई न गुलाब की महक ! वह आज भी नव-नव कविता पंक्तियों में अपने सारस्य , सौकुमार्य और सौंदर्य को लिए उपस्थित है-
ख़त का तेरे जवाब तुझे दे रहा हूं मैं ,
ग़ज़लों की इक किताब तुझॆ दे रहा हूं मैं .
रखना संभालकर इसे अपनी किताब में ,
यादों का इक गुलाब तुझे दे रहा हूं मैं .
प्रीति के सम्मोहक संदर्भ जब ज़िन्दगी में उपस्थित होते हैं क्षुद्र अहम अपने आप विसर्जित हो जाता है और मन मनुहार की भाषा सीख लेता है , पाटली संस्पर्शॊं वाली स्मृतियां अनायास श्रंगार का संसार रचने लगती हैं--
ज़िन्दगी कब तक रहेगी तू ख़फ़ा ,
हम तेरी मनुहार करने चल पड़े .
आज फिर यादों का वातायन खुला ,
आज फिर श्रंगार करने चल पड़े .
कवि को इस तथ्य का अहसास है कि यह संवेदनशीलता ही है जो व्यकित की आंखों की चमक बनती है , उसे वास्तविक इन्सान बनाती है अत: उसका आग्रह है कि यह संवेदना सलामत रहे , मनुष्य संगदिल न हो जाये और उसे इस बात का भी बोध है कि भावतरल जीवन में कुछ ऐसे डूबने और डुबाने वाले क्षण भी आते हैं जब तर्कनिष्ठ प्रश्न और बौद्धिक उत्तर व्यर्थ लगने लगते हैं , एक जीवंत मौन ही सर्वाधिक सार्थक और मुखर प्रतीत होता है --
तुझको दुनिया समझ न ले पत्थर ,
कुछ तो आंखों में आब रहने दे .
मैं भी अपना सवाल भूल गया ,
तू भी अपना जवाब रहने दे .
जीवन के अनुभवों ने कवि को वैचारिक गहनता से आपूरित दृष्टि दी है . उसे पता है कि इच्छायें किसी की भी कभी पूरी नहीं होती , तृष्णा की प्रकृति ही दुष्पूर है अत: व्यकित का यह कर्तव्य है कि वह अपने मन को नियन्त्रित रखे और उसे उसकी सीमाओं का अवबोध कराता रहे--
यूं तो सदा असीमित ही इच्छायें होती हैं ,
रोको मन को इसकी कुछ सीमायें होती हैं .
उसकी चेतना में चिरंतन ज्योति-सूक्त "धर्मो रक्षति रक्षित:" जगमगाती रहती है अत: वह विश्वास के साथ कह पाता है कि जो व्यक्ति संसार में लोगों की पीड़ा को घटाने की चेष्टा करता है उसकी दुर्गति नहीं हो सकती और अंत: सत्व की जाग्रत शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति का साहस गहन तमस में भी मार्ग निकाल ही लेता है--
जिसने दुनिया के ग़म चुराये हैं ,
उसका कुछ भी बुरा नहीं होता .
हौसले रास्ता दिखाते हैं ,
जब कहीं रास्ता नहीं होता .
दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’ की ग़ज़लों की भाषा एक आम हिन्दुस्तानी की रोज़मर्रा की वार्ता-भाषा है .उसमें "मुन्सिफ़-तिजारत-हुनर-रोशनी-दामन" भी है और "असीमित-आतुर-निष्ठा-समिधा-यग्य" भी . समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की वस्तुत: यही मानक भाषा है जिसकी सर्वसमाहारी प्रकृति के कोष्ठक में गुलाबी उर्दू और परिनिष्ठित खड़ी बोली की शब्दावली सहज उपलब्ध है .
साहित्य-जगत में प्रतिभा की स्वणार्भ हस्तलिपि जैसी यह ग़ज़ल कृति ‘आंखों में आब रहने दे’ स्वाभाविक सराहना और सम्यक प्रतिष्ठा पायेगी . इसी विश्वास के साथ-
डा. शिव ओम अम्बर
४/१०, नुनहाई स्ट्रीट,
फर्रूखाबाद , उ.प.
शम्स की ग़ज़लें