पाठकनामा
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Saturday 13 December 2014
Thursday 23 October 2014
लिहाफ - इस्मत चुगताई
ग़ालिब सम्मान (1984) फिल्मफेयर वेस्ट स्टोरी एवार्ड (1975), साहित्य अकादमी पुरस्कार, ‘इक़बाल सम्मान’, मखदूम अवार्ड, नेहरू अवार्ड से सम्मानित प्रगतिशील रचनाकार इस्मत चुगताई ने चोटें, छुईमुई, एक बात, कलियाँ, एक रात, दो हाथ दोज़खी, शैतान [कहानी संग्रह], टेढी लकीर, जिद्दी, एक कतरा ए खून, दिल की दुनिया, मासूमा, बहरूप नगर, सैदाई, जंगली कबूतर, अजीब आदमी, बांदी [उपन्यास], 'कागजी हैं पैरा’आत्मकथा जैसी कृतियां साहित्य जगत को दी है। इस्मत आपा की स्त्री- मन परतें खोलती बेबाक कहानी ’लिहाफ’ ने साहित्य में तहलका मचा दिया था और उस समय के कठमुल्लाओं ने उनके खिलाफ कई फतवे कर दिए थे.. लिहाफ़ के लिए लाहौर हाईकोर्ट में उनपर मुक़दमा चला, जो बाद में ख़ारिज हो गया। इस्मत चुगताई ने कभी अपनी लेखनी से कोई समझौता नहीं किया। पाठकनामा के पाठकों के लिए आज इस्मत आपा की वही चर्चित कहानी ’लिहाफ’
लिहाफ
- इस्मत चुगताई
जब मैं जाड़ों में लिहाफ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है। और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौडने-भागने लगता है। न जाने क्या कुछ याद आने लगता है।
माफ कीजियेगा, मैं आपको खुद अपने लिहाफ़ का रूमानअंगेज़ ज़िक्र बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ़ से किसी किस्म का रूमान जोड़ा ही जा सकता है। मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी, जब लिहाफ़ की परछाई दीवार पर डगमगा रही हो।
यह जब का जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी। कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि मैं कमबख्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी।
यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड़ गईं। उनके यहाँ, अम्माँ खूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूँगी। सज़ा तो खूब थी मेरी! हाँ, तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं।
वही बेगम जान जिनका लिहाफ़ अब तक मेरे ज़हन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज है। ये वो बेगम जान थीं जिनके गरीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक। कभी कोई रण्डी या बाज़ारी औरत उनके यहाँ नज़र न आई। ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे।
मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाज़ी करते हैं, इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो बस तालिब इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे।
मगर बेगम जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साज़ो-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गए। और वह बेचारी दुबली-पतली नाज़ुक-सी बेगम तन्हाई के गम में घुलने लगीं। न जाने उनकी ज़िन्दगी कहाँ से शुरू होती है? वहाँ से जब वह पैदा होने की गलती कर चुकी थीं, या वहाँ से जब एक नवाब की बेगम बनकर आयीं और छपरखट पर ज़िन्दगी गुजारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहाँ लड़कों का जोर बँधा। उनके लिए मुरग्गन हलवे और लज़ीज़ खाने जाने लगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की चुस्त पिण्डलियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं।
या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गईं, चिल्ले बँधे और टोटके और रातों की वज़ीफाख्व़ानी भी चित हो गई। कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए। फिर बेगम जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जो हुई। लेकिन यहाँ भी उन्हें कुछ न मिला। इश्किया नावेल और जज़्बाती अशआर पढ़कर और भी पस्ती छा गई। रात की नींद भी हाथ से गई और बेगम जान जी-जान छोड़कर बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गईं।
चूल्हे में डाला था ऐसा कपड़ा-लत्ता। कपड़ा पहना जाता है किसी पर रोब गाँठने के लिए। अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोड़कर ज़रा इधर तवज्जो करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते। जब से बेगम जान ब्याहकर आई थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं।
उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मज़े से माल उड़ाने, उम्दा घी निगलने, जाड़े का साज़ो-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के लिहाफ के, पड़ी सर्दी में अकड़ा करतीं। हर करवट पर लिहाफ़ नईं-नईं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता। मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें ज़िन्दा रखने लिए काफी हो। मगर क्यों जिये फिर कोई? ज़िन्दगी! बेगम जान की ज़िन्दगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं।
रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते सँभाल लिया। चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ। गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला। एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में ज़िन्दगी की झलक आई। माफ़ कीजिएगा, उस तेल का नुस्खा़ आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा।
जब मैंने बेगम जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी। ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज़ थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी। एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पड़ा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं। मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी। मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूँ। उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी। नाम को सुर्खी का ज़िक्र नहीं। और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे। मैंने आज तक उनकी माँग ही बिगड़ी न देखी। क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाए। उनकी आँखें काली थीं और अबरू पर के ज़ायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं। आँखें ज़रा तनी हुई रहती थीं। भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें। सबसे ज़ियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज़ जाज़िबे-नज़र चीज़ थी, वह उनके होंठ थे। अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मूँछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल। कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था, कम उम्र लड़कों जैसा।
उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी। मालूम होता था किसी ने कसकर टाँके लगा दिए हों। अमूमन वह अपनी पिण्डलियाँ खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती। उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौड़ी मालूम होतीं थीं। लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था। बड़े-बड़े चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी। यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती, पीठ खुजाना भी ज़िन्दगी की ज़रूरियात में से था, बल्कि शायद ज़रूरियाते-ज़िन्दगी से भी ज्यादा।
रब्बो को घर का और कोई काम न था। बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है।
कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-गल के खत्म हो जाय। और फिर यह रोज़-रोज़ की मालिश काफी नहीं थीं। जिस रोज़ बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती। और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता। कमरे के दरवाज़े बन्द करके अँगीठियाँ सुलगती और चलता मालिश का दौर। अमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रही। बाकी की नौकरानियाँ बड़बड़ातीं दरवाज़े पर से ही, जरूरियात की चीज़ें देती जातीं।
बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज़ था। बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हज़ारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम। डाक्टर,हकीम कहते, ''कुछ भी नहीं, जिस्म साफ़ चट पड़ा है। हाँ, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर।'' 'नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नज़रों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली। जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख। बस जैसे तपाया हुआ लोहा। हल्के-हल्के चेचक के दाग। गठा हुआ ठोस जिस्म। फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ। कसी हुई छोटी-सी तोंद। बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे। और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों पर! वहाँ से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं?
गर्मी-जाड़े बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं। गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते। और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं। उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था। जाड़े में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता। वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं। कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियाँ खार खाती थीं। चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजूँ थीं। जहाँ उन दोनों का ज़िक्र आया और कहकहे उठे। लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी। वहाँ तो बस वह थीं और उनकी खुजली!
मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफ़ी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा। वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। इत्तेफाक से अम्माँ आगरे गईं। उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूँगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड़ गईं। मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश। आखिर को अम्माँ की भाभी बनी हुई थीं।
सवाल यह उठा कि मैं सोऊँ कहाँ? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में। लिहाज़ा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलँगड़ी डाल दी गई। दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे। मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई। और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी। 'भंगन कहीं की!' मैंने सोचा। रात को मेरी एकदम से आँख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा। कमरे में घुप अँधेरा। और उस अँधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!
''बेगम जान!'' मैंने डरी हुई आवाज़ निकाली। हाथी हिलना बन्द हो गया। लिहाफ नीचे दब गया।
''क्या है? सो जाओ।''
बेगम जान ने कहीं से आवाज़ दी।
''डर लग रहा है।''
मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा।
''सो जाओ। डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो।''
''अच्छा।''
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी। मगर 'यालमू मा बीन' पर हर दफा आकर अटक गई। हालाँकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है।
''तुम्हारे पास आ जाऊँ बेगम जान?''
''नहीं बेटी, सो रहो।'' ज़रा सख्ती से कहा।
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज़ सुनायी देने लगी। हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी।
''बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?''
''सो जाओ बेटा, कैसा चोर?''
रब्बो की आवाज़ आई। मैं जल्दी से लिहाफ में मुँह डालकर सो गई।
सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज़्ज़ारे का खयाल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बड़बड़ाना तो बचपन में रोज़ ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। लिहाज़ा मुझे खयाल भी न रहा। सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नज़र आ रहा था।
मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगड़ा बड़ी खामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड़-सपड़ रकाबी चाटने-जैसी आवाज़ें आने लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गई।
आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गई हुई थी। वह बड़ा झगड़ालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने किया, उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोड़े-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता। लिहाज़ा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उससे मिलने गई थीं। बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गई। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका जोड़-जोड़ टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पड़ी रहीं।
''मैं खुजा दूँ बेगम जान?''
मैंने बड़े शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं।
''मैं खुजा दूँ? सच कहती हूँ!''
मैंने ताश रख दिए।
मैं थोड़ी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं। दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेगम जान का मिज़ाज चिड़चिड़ा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया। मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज़ की तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले खुजाती रही। उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!
''जरा ज़ोर से खुजाओ। बन्द खोल दो।'' बेगम जान बोलीं, ''इधर ऐ है, ज़रा शाने से नीचे हाँ वाह भइ वाह! हा!हा!'' वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान ज़ाहिर करने लगीं।
''और इधर...'' हालाँकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ''यहाँ ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो वाह!'' वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी।
''तुम्हें कल बाज़ार भेजूँगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती गुड़िया?''
''नहीं बेगम जान, मैं तो गुड़िया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ अब मैं?''
''बच्चा नहीं तो क्या बूढ़ी हो गई?'' वह हँसी ''गुड़िया नहीं तो बनवा लेना कपड़े, पहनना खुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से कपड़े। सुना?'' उन्होंने करवट ली।
''अच्छा।'' मैंने जवाब दिया।
''इधर...'' उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर जहाँ खुजली हो रही थी, रख दिया। जहाँ उन्हें खुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख देतीं। और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।
''सुनो तो तुम्हारी फ्राकें कम हो गई हैं। कल दर्जी को दे दूँगी, कि नई-सी लाए। तुम्हारी अम्माँ कपड़ा दे गई हैं।''
''वह लाल कपड़े की नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!'' मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ।
बेगम जान तो चुप लेटी थीं। ''अरे!'' मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया।
''ओई लड़की! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गई।
''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''
''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।
''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।
''ऊँ!'' मैं भुनभुनायी।
''ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!''
मैं कुलबुलाने लगी।
''कितनी पसलियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदली।
''एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।''
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी ऊटपटाँग।
''हटाओ तो हाथ हाँ, एक दो तीन...''
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ और उन्होंने जोर से भींचा।
''ऊँ!'' मैं मचल गई।
बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं।
अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी आँखों के पपोटे और वज़नी हो गए। ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी। बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं। उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गई हो। उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था। भारी जड़ाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ झूल रहे थे। शाम हो गई थी और कमरे में अंधेरा घुप हो रहा था। मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी। बेगम जान की गहरी-गहरी आँखें!
मैं रोने लगी दिल में। वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं। उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा। मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाए और न रो सकूँ।
थोड़ी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गईं। उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगीं। मैं समझी कि अब मरीं यह। और वहाँ से उठकर सरपट भागी बाहर।
शुक्र है कि रब्बो रात को आ गई और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ़ सो गई। मगर नींद कहाँ? चुप घण्टों पड़ी रही।
अम्माँ किसी तरह आ ही नहीं रही थीं। बेगम जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती। मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था। और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर जान छिड़कती थीं।
आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गई। मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा। क्योंकि फौरन ही बेगम जान को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूँ और मरूँगी निमोनिया में!
''लड़की क्या मेरी सिर मुँडवाएगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत आएगी।''
उन्होंने मुझे पास बिठा लिया। वह खुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं। चाय तिपाई पर रखी थी।
''चाय तो बनाओ। एक प्याली मुझे भी देना।'' वह तौलिया से मुँह खुश्क करके बोली, ''मैं ज़रा कपड़े बदल लूँ।''
वह कपड़े बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही। बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोड़े-मोड़े जाती और वापस भाग आती। अब जो उन्होंने कपड़े बदले तो मेरा दिल उलटने लगा। मुँह मोड़े मैं चाय पीती रही।
''हाय अम्माँ!'' मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ''आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लड़ती हूँ जो तुम मेरी मुसीबत...''
अम्माँ को हमेशा से मेरा लड़कों के साथ खेलना नापसन्द है। कहो भला लड़के क्या शेर-चीते हैं जो निगल जाएँगे उनकी लाड़ली को? और लड़के भी कौन, खुद भाई और दो-चार सड़े-सड़ाये ज़रा-ज़रा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं।
बस चलता तो उस वक्त सड़क पर भाग जाती, पर वहाँ न टिकती। मगर लाचार थी। मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।
कपड़े बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया। और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने।
''घर जाऊँगी।''
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी।
''मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाज़ार ले चलूँगी, सुनो तो।''
मगर मैं खली की तरह फैल गई। सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ।
''वहाँ भैया मारेंगे चुड़ैल!'' उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड़ लगाया।
''पड़े मारे भैया,'' मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकड़ी बैठी रही।
''कच्ची अमियाँ खट्टी होती हैं बेगम जान!''
जली-कटी रब्बों ने राय दी।
और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड़ गया। सोने का हार, जो वह थोड़ी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकड़े-टुकड़े हो गया। महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी बिगड़ी न देखी थी, झाड़-झंखाड हो गई।
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।
बड़े जतनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।
''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ़ में दुबक गई।
सर सर फट खच!
बेगम जान का लिहाफ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।
''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज़ निकाली। लिहाफ़ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गई। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फड़फड़ा रहा था और जैसे उकडूँ बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड़-चपड़ कुछ खाने की आवाजें आ रही थीं, जैसे कोई मज़ेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।
और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! ज़रूर यह तर माल उड़ा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।
लिहाफ़ फिर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पड़ी रहूँ, मगर उस लिहाफ़ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गई।
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बड़ा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!
''आ न अम्माँ!'' मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाज़ी लगायी और पिचक गया। कलाबाज़ी लगाने मे लिहाफ़ का कोना फुट-भर उठा,
अल्लाह! मैं गड़ाप से अपने बिछौने में!!!
Friday 10 October 2014
करवा का व्रत - यशपाल
हिन्दी की कालजयी रचनाएं
मित्रो! हिन्दी की कालजयी रचनाओं की कड़ी में करवा चौथ के अवसर पर आज पाठकनामा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है हिन्दी के यशस्वी कथाकार स्व. यशपाल की कालजयी व चर्चित कहानी ’करवे का व्रत’ । यह कहानी पति को परमेश्वर मानने की अंध-श्रध्दा की न केवल परतें खोलती है, वरन एक पत्नि स्त्री के मन को भी खोल कर उस परमेश्वर के कड़वे सच, यथार्थ भी हमारे सामने रखती है। हमारे देश के अधिकतर पत्नियों का सच लगभग लाजो जैसा ही है।
करवा का व्रत - यशपाल
कन्हैया लाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो-तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद ही हुआ था। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिये सप्ताह भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूंछे जो प्रायः ऎसे अवसरों पर पूंछॆ जाए हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये जो अनुभवी लोग नव-विवाहितों को दिया करते हैं।
हेमराज को कन्हैया लाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया- बहू को प्यार तो करना ही चाहिये , पर प्यार में उसे बिगाड़ लेना या सर चढा लेना भी ठीक नहीं है। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्र भर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे रहना ही चाहिये....मारे नहीं तो कम से कम गुर्रा तो जरूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक बात में न भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी या नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाय।.....मैं तो देखकर हैरान रह गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकार कर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया - 'कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले- 'अच्छा!' मर्द को रुपया पैसा अपने हांथ में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।
कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऎसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार न हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात 'फिर पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा पढा दिया कि पहले तुम ऎसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो। .....अपनी मर्जी रखना समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि 'गुर्बारा वररोज़े अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ....तुम कहते हो, पढी लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढी लिखी यों भी मिजाज दिखाती हैं।
निःस्वार्थ भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बांध ली थी। सोंचा मुझे बाजार होटल में खाना पड़े या खुद चौका बर्तन करना पड़े तो शादी का लाभ क्या? इसलिये वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।
लाजवन्ती अलीगढ में आठवी जमात तक पढी थी। बहुत सी चीज़ों के शौक थे। कई ऎसी चीज़ों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों या नई ब्याही बहुओं को करते देखकर मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और भाई पुराने खयाल के थे। सोंचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीज़ों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग ऎसा था कि कन्हैया का दिल इन्कार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाय, दो बातें मानकर तीसरी पर इन्कार भी कर देता। लाजो मुंह फुलाती तो सोंचती कि मनायेंगे तो मान जाऊंगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डांट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट फूट कर रोती। फिर उसने सोंच लिया- 'चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।
कन्हैया का हांथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया, तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का सन्तोष अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा और दूसरा कौन सा होगा? इस नशे में राजा देश पर दॆश समेटते जाते थे, जमींदार गांव पर गांव और सेठ बैंक और मिल खरीदते जाते हैं।इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया लाल के हांथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।
मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऎसा होने पर वह कई दिन के लिये उदास हो जाती थी। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध नहीं करती, पर मन ही मन सोंचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊं। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हंसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हंसने लगती। सोंच यह लिया था, 'मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे वह चाहता है वैसे ही मैं चलूं।' लाजो के सब तरह आधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का सन्तोष पाता।
क्वांर के अन्त में पड़ोस की स्त्रियां करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थी उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहां मायके से रुपये आ गये थे। कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मंगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, 'तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'
करवे के रुपये आ जाने से लाजो को सन्तोष हो गया। सोंचा भईया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढी कर और लाढ के स्वर में याद दिलाया--'हमारे लिये सरघी में क्या-क्या लाओगे....?' और लाजो ने ऎसे अवसर पर लायी जाने वाली चीजे याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मंगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम जनम यही पति मिले, इस्लिये दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढी लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।
अवसर की बात, उस दिन कन्हैया ने लंच की छुट्टी में साथियों के साथ ऎसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। उसने लाजो को बताया कि सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हांथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस सांझ मुंह लटक ही गया। आंसू पोंछ लिये और बिना बोले चौके बर्तन के काम में लग गई। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुंह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबन्ध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डांट दिया।
लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऎसा ख्याल आने लगा--इन्हीं के लिये तो व्रत कर रही हूं और यही ऎसी रुखाई दिखा रहे हैं।.....मैं व्रत कर रही हूं कि अगले जनम में भी इनसे ही ब्याह हो और इन्हें मैं सुहा ही नहीं रही हूं...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऎसे ही सो गई।
तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खड़कने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा--शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियां लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया कि खोये की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोंचा, उन मर्दों को ख्याल है कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी ख्याल नहीं है।
लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि उसने सरघी में कुछ भी न खाया। न खाने पर पति के नाम पर व्रत कैसे न रखती! सुबह सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत रखने वाली रानी और करवे का व्रत रखने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसर उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुंह सुजाये है। उसने फिर डांटा--'मालूम होता है दो चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'
लाजो को और भी रुलाई आ गई। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है! इन्हीं के लिये व्रत कर रही हूं और इन्हीं को गुस्सा आ रहा है।...जन्म जन्म में ये ही मिलें इसी लिये मैं भूखी मर रही हूं।....बड़ा सुख मिल रहा है न ! ....अगले जन्म में और बड़ा सुख दॆंगे!....ये ही जन्म निबाहना मुश्किल हो रहा है। इस जन्म में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जन्म के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूं।...
लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर से पहले ही खाया हुआ था। भूंख के मारे आंते कुड़मुड़ा रही थीं और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जन्म जन्म, कितने जन्म तक उसे यह व्यवहार सहना पड़ेगा! सोंचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आंचल से सिर बांधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई--करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।
लाजो को पड़ोसनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आईं थी। करवा चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियां उपवास करने पर भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने का काम नहीं किया जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई और चरखा छुआ नहीं जाता था। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिये ताश या जुऎ की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी इसी के लिये बुलाने आईं थीं। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गई और फिर सोंचने लगी--ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकल रही है। ...फिर अपने दुखी जीवन के कारण मर जाने का ख्याल आया और कल्पना करने लगी कि करवा चौथ के दिन उपवास किये हुये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर अगले जन्म में यही पति मिले....
लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोंचने लगी--मैं मर जाऊं तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आयेगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोंनो का ब्याह इन्हीं से होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का ख्याल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने आप समाधान हो गया--नहीं पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊंगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम से मन अधीर हो गया। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोंचा--क्यों मैं अपना अगला जनम बरबाद करूं? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने का मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।
कन्हैया लाल के लिये उसने जो सुबह खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियां कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में करके एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोंचती -- यह मैंने क्या किया! ....व्रत तोड़ दिया। कभी सोंचती ठीक ही तो किया, अपना अगला जन्म क्यों बरबाद करूं? ऎसे पड़े पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशन दान से रोशनी की जगह अन्धकार भीतर आ रहा है। समझ गई दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।
कन्हैया लाल ने क्रोध से उसकी ओर देखा-'अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा।'
लाजो के दुखे दिल पर और चोट लगी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।
कन्हैया लाल का गुस्सा भी उबल पड़ा-'यह अकड़ है!....आज तुझे ठीक ही कर दूं।' उसने कहा और लाजो को बांह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हांथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हांफते हुये लात उठाकर कहा, 'और मिजाज दिखा?.. खड़ी हो सीधी।'
लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से नहीं उठी। और मार खाने के लिये तैयार होकर उसने चिल्लाकर कहा, 'मार ले मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन सा व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल!'
कन्हैया लाल का लात मारने के लिये उठा पांव अधर में ही रुक गया। लाजो का हांथ उसके हांथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुंह में आई गाली भी मुंह में रह गी। ऎसे जान पड़ा कि अंधेरे में कुत्ते के धोखे से जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डांट या मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हांफता हुआ खड़ा सोंचता रहा फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैया लाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।
लाजो फर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घन्टे भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जला कर कम से कम कन्हैया के लिये तो खाना बनाना ही था। बड़े बेमन से उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैया लाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढक दिया और कमरे के किवाड़ उढकाकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोंच रही थी, क्या मुसीबत है ये ज़िन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी? मैंने क्या किया था जो मारने लगे।
किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आंसुओं से भीगे चेहरे को आंचल से पोंछने लगी। कन्हैया लाल ने आते ही एक नज़र उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैठ गया। कन्हैया लाल का ऎसे चुप बैठ जाना एक नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई की ओर चली गई। आसन डाल थाली कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे मॆं पानी लेकर हांथ धुलाने के लिये खड़ी थी। जब पांच मिनट हो गये कन्हैया लाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, 'खाना परस दिया है।'
कन्हैया लाल आया तो हांथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अब तक हांथ धुलाने के लिये लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैया लाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया , 'बस हो गया, और नहीं चाहिये।' कन्हैया लाल खाकर उठा तो रोज की तरह हांथ धुलाने को न कहकर नल की ओर चला गया।
लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कद्दू की तरकारी बिल्कुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, 'हाय इन्होंने कुछ कहा भी नहीं! यह तो जरा कम ज्यादा होने पर डांट देते थे।'
लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हांथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैया लाल स्वयं बिस्तर झाड़ कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में थी ऎसा कभी नहीं हुआ था।
लाजो ने शर्मा कर कहा, 'मैं आ गई रहने दो। किये देती हूं।' और पति के हांथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैया लाल दूसरी तरफ से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधन किया, तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो मैं तुम्हारे लिये दूध ले आऊं।'
लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैया लाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने अपनी चीज़ समझा था। आज वह ऎसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी ख्याल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ रही थी अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैया लाल के व्यवहार में एक नर्मी सी आ गई। कड़े बोल की तो बात ही क्या, बल्कि एक झिझक सी हर बात में, जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर दिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म मालूम हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहां तक बन पड़ता, घर का काम उसे नहीं करने देती। प्यार से डांट देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते....।'
उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, 'तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पुस्तक या पत्रिका लाता था तो अकेला मन ही मन पढा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढता या खुद सुन लेता। यह भी पूंछ लेता 'तुम्हें नींद तो नहीं आ रही है?'
साल बीतते मालूम न पड़ा। फिर करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनी आर्डर करवे के लिये न पहुंचा था। करवा चौथ से पहले दिन कन्हैया लाल द्फ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, 'भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'
क्न्हैया लाल ने सांत्वना के स्वर में कहा, 'तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। तुम व्रत उपवास के झगड़े में न पड़ना। तबीयत खराब हो जाती है। यों कुछ मगाना ही है तो बता दो । लेते आयेंगे। पर व्रत उपवास से होता क्या है। सब ढकोसले हैं।'
'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा न भेजा तो न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़ी है।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।
सन्धया-समय कन्हैया लाल आया तो रूमाल में बंधी छोटी गांठ लाजो को थमाकर बोला, 'लो, फेनी तो मैं ले आया हूं, पर व्रत-व्रत के झगड़े में न पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रुमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार करके कन्हैया को रसोई में पुकारा, 'आओ, खाना परस दिया है।
कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी का परोसा था- 'और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।
'वाह मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कुराकर प्यार से बताया।
'यह बात....! तो हमारा भी व्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैया लाल ने कहा।
लाजो ने पति का हांथ पकड़कर समझाया, 'क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का व्रत करते हैं! ....तुमने सरघी कहां खाई?' नहीं, नहीं यह कैसे हो सकता है!' कन्हैया नहीं माना, 'तुम्हें अगले जन्म में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'
लाजो पति की ओर कातर आंखो से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था|
-यशपाल
Friday 3 October 2014
कविता क्या है ? - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
मित्रो! हिन्दी साहित्य के इतिहास पुरुष रामचंद्र की जयंती पर आज पाठकनामा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है कविता के बारे में उनका कालजयी दस्तावेज़ी आलेख ’कविता क्या है’
कविता क्या है?
-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है. सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं. वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं. उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती. कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं. तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है. यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता. कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है. हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं. कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है. हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है.
कार्य में प्रवृत्ति कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है. केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं. केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या न करने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक. जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती है जो हमें आह्लाद, क्रोध और करूणा आदि से विचलित कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते हैं. केवल बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेजित नहीं करती. काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है. अतः कार्य-प्रवृत्ति के लिए मन में वेग का आना आवश्यक है. यदि किसी से कहा जाये कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है, इसी से तुम्हारे यहाँ अकाल और दारिद्र्य बना रहता है? तो सम्भव है कि उस पर कुछ प्रभाव न पड़े. पर यदि दारिद्र्य और अकाल का भीषण दृश्य दिखाया जाए, पेट की ज्वाला से जले हुए प्राणियों के अस्थिपंजर सामने पेश किए जाएँ, और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्तस्वर सुनाया जाए तो वह मनुष्य क्रोध और करूणा से विह्वल हो उठेगा और इन बातों को दूर करने का यदि उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेगा. पहले प्रकार की बात कहना राजनीतिज्ञ का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य दिखाना, कवि का कर्तव्य है. मानव-हृदय पर दोनों में से किसका अधिकार अधिक हो सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं.
मनोरंजन और स्वभाव-संशोधन कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुःख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं. किसी लोभी और कंजूस दुकानदार को देखिए जिसने लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है. और संसार के सब सुखों से मुँह मोड़ लिया है. अथवा किसी महाक्रूर राजकर्मचारी के पास जाइए जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दुःख और क्लेश का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता. ऐसा करने से आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि क्या इनकी भी कोई दवा है. ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें अपने स्वाभाविक धर्म पर लाने का सामर्थ्य काव्य ही में है. कविता ही उस दुकानदार की प्रवृत्ति भौतिक और आध्यात्मिक सृष्टि के सौन्दर्य की ओर ले जाएगी, कविता ही उसका ध्यान औरों की आवश्यकता की ओर आकर्षित करेगी और उनकी पूर्ति करने की इच्छा उत्पन्न करेगी, कविता ही उसे उचित अवसर पर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सिखावेगी. इसी प्रकार उस राजकर्मचारी के सामने कविता ही उसके कार्यों का प्रतिबिम्ब खींचकर रक्खेगी और उनकी जघन्यता और भयंकरता का आभास दिखलावेगी, तथा दैवी किंवा अन्य मनुष्यों द्वारा पहुँचाई हुई पीड़ा और क्लेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश को दिखलाकर उसे दया दिखाने की शिक्षा देगी.
प्रायः लोग कहा करते हैं कि कविता का अन्तिम उद्देश्य मनोरंजन है. पर मेरी समझ में मनोरंजन उसका अन्तिम उद्देश्य नहीं है. कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर इसके सिवा कुछ और भी होता है. मनोरंजन करना कविता का प्रधान गुण है. इससे मनुष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है, इधर-उधर जाने नहीं पाता. यही कारण है कि नीति और धर्म-सम्बन्धी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करते जैसा कि किसी काव्य या उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है. केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’ ‘सदैव सच बोलो’ ‘चोरी करना महापाप है’ हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जाएगा, झूठा सच्चा हो जाएगा, और चोर चोरी करना छोड़ देगा. क्योंकि पहले तो मनुष्य का चित्त ऐसी शिक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत ही नहीं होता, दूसरे मानव-जीवन पर उसका कोई प्रभाव अंकित हुआ न देखकर वह उनकी कुछ परवा नहीं करता. पर कविता अपनी मनोरंजक शक्ति के द्वारा पढ़ने या सुनने वाले का चित्त उचटने नहीं देती, उसके हृदय आदि अत्यन्त कोमल स्थानों को स्पर्श करती है, और सृष्टि में उक्त कर्मों के स्थान और सम्बन्ध की सूचना देकर मानव जीवन पर उनके प्रभाव और परिणाम को विस्तृत रूप से अंकित करके दिखलाती है. इन्द्रासन खाली कराने का वचन देकर, हूर और गिलमा का लालच दिखाकर, यमराज का स्मरण दिलाकर और दोजख़ की जलती हुई आग की धमकी देकर हम बहुधा किसी मनुष्य को सदाचारी और कर्तव्य-परायण नहीं बना सकते. बात यह है कि इस तरह का लालच या धमकी ऐसी है जिससे मनुष्य परिचित नहीं और जो इतनी दूर की है कि उसकी परवा करना मानव-प्रकृति के विरुद्ध है. सदा-चार में एक अलौकिक सौन्दर्य और माधुर्य होता है. अतः लोगों को सदाचार की ओर आकर्षित करने का प्रकृत उपाय यही है कि उनको उसका सौन्दर्य और माधुर्य दिखाकर लुभाया जाए, जिससे वे बिना आगा पीछा सोचे मोहित होकर उसकी ओर ढल पड़ें.
मन को हमारे आचार्यों ने ग्यारहवीं इन्द्रिय माना है. उसका रञ्जन करना और उसे सुख पहुँचाना ही यदि कविता का धर्म माना जाए तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई. परन्तु क्या हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि का आदि-काव्य, तुलसीदास का रामचरितमानस, या सूरदास का सूरसागर विलास की सामग्री है? यदि इन ग्रन्थों से मनोरंजन होगा तो चरित्र-संशोधन भी अवश्य ही होगा. खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी भाषा के अनेक कवियों ने श्रृंगार रस की उन्माद कारिणी उक्तियों से साहित्य को इतना भर दिया है कि कविता भी विलास की एक सामग्री समझी जाने लगी है. पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे. ऐसी शृंगारिक कविता को कोई विलास की सामग्री कह बैठे तो उसका क्या दोष? सारांश यह कि कविता का काम मनोरंजन ही नहीं, कुछ और भी है.
चरित्र-चित्रण द्वारा जितनी सुगमता से शिक्षा दी जा सकती है उतनी सुगमता से किसी और उपाय द्वारा नहीं. आदि-काव्य रामायण में जब हम भगवान रामचन्द्र के प्रतिज्ञा-पालन, सत्यव्रताचरण और पितृभक्ति आदि की छटा देखते हैं, भारत के सर्वोच्च स्वार्थत्याग और सर्वांगपूर्ण सात्विक चरित्र का अलौकिक तेज देखते हैं, तब हमारा हृदय श्रद्धा, भक्ति और आश्चर्य से स्तम्भित हो जाता है. इसके विरुद्ध जब हम रावण को दुष्टता और उद्दंडता का चित्र देखते हैं तब समझते हैं कि दुष्टता क्या चीज है और उसका प्रभाव और परिणाम सृष्टि में क्या है. अब देखिए कविता द्वारा कितना उपकार होता है. उसका काम भक्ति, श्रद्धा, दया, करूणा, क्रोध और प्रेम आदि मनोवेगों को तीव्र और परिमार्जित करना तथा सृष्टि की वस्तुओं और व्यापारों से उनका उचित और उपयुक्त सम्बन्ध स्थिर करना है.
उच्च आदर्श कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और उसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है.
कविता की आवश्यकता कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है. चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी. इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है. अतएव मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है. कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे. जानवरों को इसकी जरूरत नहीं. हमने किसी उपन्यास में पढ़ा है कि एक चिड़चिड़ा बनिया अपनी सुशीला और परम रुपवती पुत्रवधू को अकारण निकालने पर उद्यत हुआ. जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तब वह चिढ़कर बोला, ‘चल चल! भोली सूरत पर मरा जाता है’ आह! यह कैसा अमानुषिक बर्ताव है! सांसारिक बन्धनों में फंसकर मनुष्य का हृदय कभी-कभी इतना कठोर और कुंठित हो जाता है कि उसकी चेतनता – उसका मानुषभाव – कम हो जाता है. न उसे किसी का रूप माधुर्य देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है, न उसे किसी दीन दुखिया की पीड़ा देखकर करूणा आती है, न उसे अपमानसूचक बात सुनकर क्रोध आता है. ऐसे लोगों से यदि किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाए तो, मनुष्य के स्वाभाविक धर्मानुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ यही कहेंगे - “जाने दो, हमसे क्या मतलब, चलो अपना काम देखो.” याद रखिए, यह महा भयानक मानसिक रोग है. इससे मनुष्य जीते जी मृतवत् हो जाता है. कविता इसी मरज़ की दवा है.
सृष्टि-सौन्दर्य कविता सृष्टि-सौन्दर्य का अनुभव कराती है और मनुष्य को सुन्दर वस्तुओं में अनुरक्त करती है. जो कविता रमणी के रूप माधुर्य से हमें आह्लादित करती है वही उसके अन्तःकरण की सुन्दरता और कोमलता आदि की मनोहारिणी छाया दिखा कर मुग्ध भी करती है. जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ के ऊपर बैठी हुई राजकुमारी तिलोत्तमा के अंग प्रत्यंग की शोभा को अंकित किया है उसी ने आयशा के अन्तःकरण की अपूर्व सात्विकी ज्योति दिखा कर पाठकों को चमत्कृत किया है. भौतिक सौन्दर्य के अवलोकन से हमारी आत्मा को जिस प्रकार सन्तोष होता है उसी प्रकार मानसिक सौन्दर्य से भी. जिस प्रकार वन, पर्वत, नदी, झरना आदि से हम प्रफुल्लित होते हैं, उसी प्रकार मानवी अन्तःकरण में प्रेम, दया, करुणा, भक्ति आदि मनोवेगों के अनुभव से हम आनंदित होते हैं. और यदि इन दोनों पार्थिव और अपार्थिव सौन्दर्यों का कहीं संयोग देख पड़े तो फिर क्या कहना है. यदि किसी अत्यन्त सुन्दर पुरुष या अत्यन्त रूपवती स्त्री के रूप मात्र का वर्णन करके हम छोड़ दें तो चित्र अपूर्ण होगा, किन्तु यदि हम साथ ही उसके हृदय की दृढ़ता और सत्यप्रियता अथवा कोमलता और स्नेह-शीलता आदि की भी झलक दिखावें तो उस वर्णन में सजीवता आ जाएगी. महाकवियों ने प्रायः इन दोनों सौन्दर्यों का मेल कराया है जो किसी किसी को अस्वाभाविक प्रतीत होता है. किन्तु संसार में प्राय- देखा जाता है कि रूपवान् जन सुशील और कोमल होते हैं और रूपहीन जन क्रूर और दुःशील. इसके सिवा मनुष्य के आंतरिक भावों का प्रतिबिम्ब भी चेहरे पर पड़कर उसे रुचिर या अरुचिर बना देता है. पार्थिव सौन्दर्य का अनुभव करके हम मानसिक अर्थात् अपार्थिव सौन्दर्य की ओर आकर्षित होते हैं. अतएव पार्थिव सौन्दर्य को दिखलाना कवि का प्रधान कर्म है.
कविता का दुरूपयोग जो लोग स्वार्थवश व्यर्थ की प्रशंसा और खुशामद करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं वे सरस्वती का गला घोंटते हैं. ऐसी तुच्छ वृत्ति वालों को कविता न करना चाहिए. कविता का उच्चाशय, उदार और निःस्वार्थ हृदय की उपज है. सत्कवि मनुष्य मात्र के हृदय में सौन्दर्य का प्रवाह बहाने वाला है. उसकी दृष्टि में राजा और रंक सब समान हैं. वह उन्हें मनुष्य के सिवा और कुछ नहीं समझता. जिस प्रकार महल में रहने वाले बादशाह के वास्तविक सद् गुणों की वह प्रशंसा करता है उसी प्रकार झोंपड़े में रहने वाले किसान के सद् गुणों की भी. श्रीमानों के शुभागमन की कविता लिखना, और बात बात पर उन्हें बधाई देना सत्कवि का काम नहीं. हाँ जिसने निःस्वार्थ होकर और कष्ट सहकर देश और समाज की सेवा की है, दूसरों का हित साधन किया है, धर्म का पालन किया है, ऐसे परोपकारी महात्मा का गुण गान करना उसका कर्तव्य है.
कविता की भाषा मनुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों और वस्तुओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है. पुराने शब्द हम लोगों को मालूम ही रहते हैं. इसी से कविता में कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं. उनका थोड़ा बहुत बना रहना अच्छा भी है. वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच सम्बन्ध सूत्र का काम देते हैं. हिन्दी में ‘राजते हैं’ ‘गहते हैं’ ‘लहते हैं’ ‘सरसाते हैं’ आदि प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कविता में बना रहना कोई अचम्भे की बात नहीं. अँग्रेज़ी कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने से कविता में होता आया है. ‘Main’ ‘Swain’ आदि शब्द ऐसे ही हैं. अंग्रेज़ी कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना पड़ता है. पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने चाहिए, वे भी ऐसे जो भद्दे और गंवारू न हों. खड़ी बोली में संयुक्त क्रियाएँ बहुत लंबी होती हैं, जैसे – “लाभ करते हैं,” “प्रकाश करते हैं” आदि. कविता में इनके स्थान पर “लहते हैं” “प्रकाशते हैं” कर देने से कोई हानि नहीं, पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के लिए ठीक नहीं हो सकती.
कविता में कही गई बात हृत्पटल पर अधिक स्थायी होती है. अतः कविता में प्रत्यक्ष और स्वभावसिद्ध व्यापार-सूचक शब्दों की संख्या अधिक रहती है. समय बीता जाता है, कहने की अपेक्षा, समय भागा जाता है कहना अधिक काव्य सम्मत है. किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन ढलना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसना आदि ऐसे ही कवि-समय-सिद्ध वाक्य हैं जो बोल-चाल में आ गए हैं. नीचे कुछ पद्य उदाहरण-स्वरूप दिए जाते हैं –
(क) धन्य भूमि वन पंथ पहारा ।जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा ।। -तुलसीदास(ख) मनहुँ उमगि अंग अंग छवि छलकै ।। -तुलसीदास, गीतावलि(ग) चूनरि चारु चुई सी परै चटकीली रही अंगिया ललचावे(घ) वीथिन में ब्र में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरो बसंत है। -पद्माकर(ङ) रंग रंग रागन पै, संग ही परागन पै, वृन्दावन बागन पै बसंत बरसो परै।
बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनसे एक ही का नहीं किन्तु कई क्रियाओं का एक ही साथ बोध होता है. ऐसे शब्दों को हम जटिल शब्द कह सकते हैं. ऐसे शब्द वैज्ञानिक विषयों में अधिक आते हैं. उनमें से कुछ शब्द तो एक विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं. विज्ञानवेत्ता को किसी बात की सत्यता या असत्यता के निर्णय की जल्दी रहती है. इससे वह कई बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक काम को पृथक पृथक दृष्टि से नहीं देखता. यही कारण है जो वह ऐसे शब्द अधिक व्यवहार करता है जिनसे कई क्रियाओं से घटित एक ही भाव का अर्थ निकलता है. परन्तु कविता प्राकृतिक व्यापारों को कल्पना द्वारा प्रत्यक्ष कराती है- मानव-हृदय पर अंकित करती है. अतएव पूर्वोक्त प्रकार के शब्द अधिक लाने से कविता के प्रसाद गुण की हानि होती है और व्यक्त किए गए भाव हृदय पर अच्छी तरह अंकित नहीं होते. बात यह है कि मानवी कल्पना इतनी प्रशस्त नहीं कि एक दो बार में कई व्यापार उसके द्वारा हृदय पर स्पष्ट रीति से खचित हो सकें. यदि कोई ऐसा शब्द प्रयोग में लाया गया जो कई संयुक्त व्यापारों का बोधक है तो सम्भव है, कल्पना शक्ति किसी एक व्यापार को भी न ग्रहण कर सके, अथवा तदन्तर्गत कोई ऐसा व्यापार प्रगट करे जो मानवी प्रकृति का उद्दीपक न हो. तात्पर्य यह कि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग, तथा ऐसे शब्दों का समावेश जो कई संयुक्त व्यापारों की सूचना देते हैं, कविता में वांछित नहीं.
किसी ने ‘प्रेम फ़ौजदारी’ नाम की श्रृंगार-रस-विशिष्ट एक छोटी-सी कविता अदालती काररवाइयों पर घटा कर लिखी है और उसे ‘एक तरफा डिगरी’ आदि क़ानूनी शब्दों से भर दिया है. यह उचित नहीं. कविता का उद्देश्य इसके विपरीत व्यवहार से सिद्ध होता है. जब कोई कवि किसी दार्शनिक सिद्धान्त को अधिक प्रभावोत्पादक बना कर उसे लोगों के चित्त पर अंकित करना चाहता है तब वह जटिल और पारिभाषिक शब्दों को निकाल कर उसे अधिक प्रत्यक्ष और मर्म स्पर्शी रुप देता है. भर्तृहरि और गोस्वामी तुलसीदास आदि इस बात में बहुत निपुण थे. भर्तृहरि का एक श्लोक लीजिए-
तृषा शुष्य्तास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभिक्षुधार्त्तः संछालीन्कवलयति शाकादिवलितान्।प्रदीप्ते रागाग्रौ सुदृढ़तरमाश्ल्ष्यिति वधूंप्रतीकारो व्याधैः सुखमिति विपर्यस्यति जनः।।
भावार्थ – प्यासे होने पर स्वादिष्ट और सुगन्धित जल-पान, भूखे होने पर शाकादि के साथ चावलों का भोजन, और हृदय में अनुरागाग्नि के प्रज्वलित होने पर प्रियात्मा का आलिंगन करन वाले मनुष्य विलक्षण मूर्ख हैं. क्योंकि प्यास आदि व्याधियों की शान्ति के लिए जल-पान आदि प्रतीकारों ही को वे सुख समझते हैं. वे नहीं जानते कि उनका यह उपचार बिलकुल ही उलटा है.
देखिए, यहाँ पर कवि ने कैसी विलक्षण उक्ति के द्वारा मनुष्य की सुखःदुख विषयक बुद्धि की भ्रामिकता दिखलाई है.
अंग्रेज़ों में भी पोप कवि इस विषय में बहुत सिद्धहस्त था. नीचे उसका एक साधारण सिद्धान्त लिखा जाता है-
“भविष्यत् में क्या होने वाला है, इस बात की अनभिज्ञता इसलिए दी गई है जिसमें सब लोग, आने वाले अनिष्ट की शंका से, उस अनिष्ट घटना के पूर्ववर्ती दिनों के सुख को भी न खो बैठें.”
इसी बात को पोप कवि इस तरह कहता है-
The lamb thyariot dooms to bleed to dayHad he thy reason would he skip and play?Pleased to the last he crops the flow’ry foodAnd licks the hand just raised to shed his blood.The blindness to the future kindly given. Essay on man.
भावार्थ – उस भेड़ के बच्चे को, जिसका तू आज रक्त बहाना चाहता है, यदि तेरा ही सा ज्ञान होता तो क्या वह उछलता कूदता फिरता? अन्त तक वह आनन्दपूर्वक चारा खाता है और उस हाथ को चाटता है जो उसका रक्त बहाने के लिए उठाया गया है. ... भविष्यत् का अज्ञान हमें (ईश्वर ने) बड़ी कृपा करके दिया है.
‘अनिष्ट’ शब्द बहुत व्यापक और संदिग्ध है, अतः कवि मृत्यु ही को सबसे अधिक अनिष्ट वस्तु समझता है. मृत्यु की आशंका से प्राणिमात्र का विचलित होना स्वाभाविक है. कवि दिखलाता है कि परम अज्ञानी पशु भी मृत्यु सिर पर नाचते रहते भी सुखी रहता है. यहाँ तक कि वर प्रहारकर्ता के हाथ को चाटता जाता है. यह एक अद्भुत और मर्मस्पर्शी दृश्य है. पूर्वोक्त सिद्धान्त को यहाँ काव्य का रूप प्राप्त हुआ है.
एक और साधारण सा उदाहरण लीजिए. “तुमने उससे विवाह किया” यह एक बहुत ही साधारण वाक्य है. पर “तुमने उसका हाथ पकड़ा” यह एक विशेष अर्थ-गर्भित और काव्योचित वाक्य है. ‘विवाह’ शब्द के अन्तर्गत बहुत से विधान हैं जिन सब पर कोई एक दफ़े दृष्टि नहीं डाल सकता. अतः उससे कोई बात स्पष्ट रूप से कल्पना में नहीं आती. इस कारण उन विधानों में से सबसे प्रधान और स्वाभाविक बात जो हाथ पकड़ना है उसे चुन कर कवि अपने अर्थ को मनुष्य के हृत्पटल पर रेखांकित करता है.
श्रुति सुखदता कविता की बोली और साधारण बोली में बड़ा अन्तर है. “शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरुरिह विलसति पुरतः” वाली बात हमारी पण्डित मण्डली में बहुत दिन से चली आती है. भाव-सौन्दर्य और नाद-सौन्दर्य दोनों के संयोग से कविता की सृष्टि होती है. श्रुति-कटु मानकर कुछ अक्षरों का परित्याग, वृत्त-विधान और अन्त्यानुप्रास का बन्धन, इस नाद-सौन्दर्य के निबाहने के लिए है. बिना इसके कविता करना, अथवा केवल इसी को सर्वस्व मानकर कविता करने की कोशिश करना, निष्फल है. नाद-सौन्दर्य के साथ भाव-सौन्दर्य भी होना चाहिए. हिन्दी के कुछ पुराने कवि इसी नाद-सौन्दर्य के इतना पीछे पड़ गए थे कि उनकी अधिकांश कविता विकृत और प्रायः भावशून्य हो गई है. यह देखकर आजकल के कुछ समालोचक इतना चिढ़ गए हैं कि ऐसी कविता को एकदम निकाल बाहर करना चाहते हैं. किसी को अन्त्यानुप्रास का बन्धन खलता है, कोई गणात्मक द्वन्द्वों को देखकर नाक भौं चढ़ाता है, कोई फ़ारसी के मुखम्मस और रुबाई की ओर झुकता है. हमारी छन्दोरचना तक की कोई कोई अवहेलना करते हैं- वह छन्दो रचना जिसके माधुर्य को भूमण्डल के किसी देश का छन्द शास्त्र नहीं पा सकता और जो हमारी श्रुति-सुखदता के स्वाभाविक प्रेम के सर्वथा अनुकूल है. जो लोग अन्त्यानुप्रास की बिलकुल आवश्यकता नहीं समझते उनसे मुझे यही पूछना है कि अन्त्यानुप्रास ही पर इतना कोप क्यों? छन्द (Metre) और तुक (Rhyme) दोनों ही नाद-सौन्दर्य के उद्देश्य से रखे गए हैं. फिर क्यों एक को निकाला जाए दूसरे को नहीं? यदि कहा जाए कि सिर्फ छन्द से उस उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है तो यह जानने की इच्छा बनी रहती है कि क्या कविता के लिए नाद-सौन्दर्य की कोई सीमा नियत है. यदि किसी कविता में भाव-सौन्दर्य के साथ नाद-सौन्दर्य भी वर्तमान हो तो वह अधिक ओजस्विनी और चिरस्थायिनी होगी. नाद-सौन्दर्य कविता के स्थायित्व का वर्धक है, उसके बल से कविता ग्रंथाश्रय-विहीन होने पर भी किसी न किसी अंश में लोगों की जिह्वा पर बनी रहती है. अतएव इस नाद-सौन्दर्य को केवल बन्धन ही न समझना चाहिए. यह कविता की आत्मा नहीं तो शरीर अवश्य है.
नाद-सौन्दर्य संबंधी नियमों को गणित-क्रिया समान काम में लाने से हमारी कविता में कहीं-कहीं बड़ी विलक्षणता आ गई है. श्रुति-कटु वर्णों का निर्देश इसलिए नहीं किया गया कि जितने अक्षर श्रवण-कटु हैं, वे एकदम त्याज्य समझे जाएँ और उनकी जगह पर श्रवण-सुखद वर्ण ढूंढ-ढूंढ कर रखे जाएँ. इस नियम-निर्देश का मतलब सिर्फ इतना ही है कि यदि मधुराक्षर वाले शब्द मिल सकें और बिना तोड़ मरोड़ के प्रसंगानुसार खप सकें तो उनके स्थान पर श्रुति-कर्कश अक्षर वाले शब्द न लाए जाएँ. संस्कृत से सम्बन्ध रखने वाली भाषाओं में इस नाद-सौन्दर्य का निर्वाह अधिकता से हो सकता है. अतः अंगरेज़ी आदि अन्य भाषाओं की देखा-देखी जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को भी हमें इस विशेषता से वंचित कर देना बुद्धिमानी का काम नहीं. पर, याद रहे, सिर्फ श्रुति-मधुर अक्षरों के पीछे दीवाने रहना और कविता को अन्यान्य गुणों से भूषित न करना सबसे बड़ा दोष है. एक और विशेषता हमारी कविता में है. वह यह है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है. पद्य के नपे हुए चरणों के लिए शब्दों की संख्या का बढ़ाना ही इसका प्रयोजन जान पड़ता है, पर विचार करने से इसका इससे भी गुरूतर उद्देश्य प्रगट होता है. सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिए की जाती है. मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं जिनसे कविता की परिपोषकता नहीं होती. अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक होने के कारण सुनने वाले के ध्यान में अधिक आ सकते हैं और प्रसंग विशेष के अनुकूल होने से वर्णन की यथार्थता को बढ़ाते हैं. गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबन्धु, चक्रपाणि, दशमुख आदि शब्द ऐसे ही हैं. ऐसे शब्दों को चुनते समय प्रसंग या अवसर का ध्यान अवश्य रखना चाहिए. जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्घर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए - ‘हे गोपिकारमण!’ ‘हे वृन्दावनबिहारी!’ आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा ‘हे मुरारि!’ ‘हे कंसनिकंदन’ आदि सम्बोधनों से पुकारना अधिक उपयुक्त है. क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा मुर और कंस आदि दुष्टों को मारा जाना देख कर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा हुई है न कि उनकी वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देख कर. इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को ‘मुरलीधर’ कह कर पुकारने की अपेक्षा ‘गिरिधर’ कहना अधिक तर्क-संगत है.अलंकार------.
कविता में भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता है- उसकी सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है. कल्पना को चटकीली करने और रस-परिपाक के लिए कभी कभी किसी वस्तु का गुण या आकार बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है और कभी घटाकर. कल्पना-तरंग को ऊँचा करने के लिए कभी कभी वस्तु के रूप और गुण को उसके समान रूप और धर्म वाली और वस्तुओं के सामने लाकर रखना पड़ता है. इस तरह की भिन्न भिन्न प्रकार की वर्णन-प्रणालियों का नाम अलंकार है. इनका उपयोग काव्य में प्रसंगानुसार विशेष रूप से होता है. इनसे वस्तु वर्णन में बहुत सहायता मिलती है. कहीं कहीं तो इनके बिना कविता का काम ही नहीं चल सकता. किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि अलंकार ही कविता है. ये अलंकार बोलचाल में भी रोज आते रहते हैं. जैसे, लोग कहते हैं ‘जिसने शालग्राम को भून डाला उसे भंटा भूनते क्या लगता है?’ इसमें काव्यार्थापत्ति अलंकार है. ‘क्या हमसे बैर करके तुम यहाँ टिक सकते हो?’ इसमें वक्रोक्ति है.
कई वर्ष हुए ‘अलंकारप्रकाश’ नामक पुस्तक के कर्ता का एक लेख ‘सरस्वती’ में निकला था. उसका नाम था- ‘कवि और काव्य’. उसमें उन्होंने अलंकारों की प्रधानता स्थापित करते हुए और उन्हें काव्य का सर्वस्व मानते हुए लिखा था कि ‘आजकल के बहुत से विद्वानों का मत विदेशी भाषा के प्रभाव से काव्य विषय में कुछ परिवर्तित देख पड़ता है. वे महाशय सर्वलोकमान्य साहित्य-ग्रन्थों में विवेचन किए हुए व्यंग्य-अलंकार-युक्त काव्य को उत्कृष्ट न समझ केवल सृष्टि-वैचित्र्य वर्णन में काव्यत्व समझते हैं. यदि ऐसा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?’ रस और भाव ही कविता के प्राण हैं. पुराने विद्वान रसात्मक कविता ही को कविता कहते थे. अलंकारों को वे आवश्यकतानुसार वर्णित विषय को विशेषतया हृदयंगम करने के लिए ही लाते थे. यह नहीं समझा जाता था कि अलंकार के बिना कविता हो ही नहीं सकती. स्वयं काव्य-प्रकाश के कर्ता मम्मटाचार्य ने बिना अलंकार के काव्य का होना माना है और उदाहरण भी दिया है- “तददौषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि.” किन्तु पीछे से इन अलंकारों ही में काव्यत्व मान लेने से कविता अभ्यासगम्य और सुगम प्रतीत होने लगी. इसी से लोग उनकी ओर अधिक पड़े. धीरे-धीरे इन अलंकारों के लिए आग्रह होने लगा. यहाँ तक कि चन्द्रालोककार ने कह डाला कि-
अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।।
अर्थात् – जो अलंकार-रहित शब्द और अर्थ को काव्य मानता है वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं मानता? परन्तु यथार्थ बात कब तक छिपाई जा सकती है. इतने दिनों पीछे समय ने अब पलटा खाया. विचारशील लोगों पर यह बात प्रगट हो गई कि रसात्मक वाक्यों ही का नाम कविता है और रस ही कविता की आत्मा है.
इस विषय में पूर्वोक्त ग्रंथकार महोदय को एक बात कहनी थी, पर उन्होंने नहीं कही. वे कह सकते थे कि सृष्टि-वैचित्र्य-वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार है. इसका उत्तर यह है कि स्वभावोक्ति को अलंकार मानना उचित नहीं. वह अलंकारों की श्रेणी में आ ही नहीं सकती. वर्णन करने की प्रणाली का नाम अलंकार है. जिस वस्तु को हम चाहें उस प्रणाली के अन्तर्गत करके उसका वर्णन कर सकते हैं. किसी वस्तु-विशेष से उसका सम्बन्ध नहीं. यह बात अलंकारों की परीक्षा से स्पष्ट हो जाएगी. स्वभावोक्ति में वर्ण्य वस्तु का निर्देश है, पर वस्तु-निर्वाचन अलंकार का काम नहीं.
इससे स्वभावोक्ति को अलंकार मानना ठीक नहीं. उसे अलंकारों में गिनने वालों ने बहुत सिर खपाया है, पर उसका निर्दोष लक्षण नहीं कर सके. काव्य-प्रकाश के कारिकाकार ने उसका लक्षण लिखा है-
स्वभावोक्तिवस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारुपवर्णनम्
अर्थात्- जिसमें बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है. बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है. बालकादिक कहने से किसी वस्तुविशेष का बोध तो होता नहीं. इससे यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के व्यापार और रुप का वर्णन स्वभावोक्ति है. इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष के कारण अलंकारता नहीं आती. अलंकारसर्वस्व के कर्ता राजानक रूय्यक ने इसका यह लक्षण लिखा है-
सूक्ष्मवस्तु स्वभावयथावद्वर्णनं स्वभावोक्तिः।
अर्थात्- वस्तु के सूक्ष्म स्वभाव का ठीक-ठीक वर्णन करना स्वभावोक्ति है.
आचार्य दण्डी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा है-
नानावस्थं पदार्थनां रुपं साक्षाद्विवृण्वती।स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा।।
बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकार के अंतर्गत आ ही नहीं सकती, क्योंकि वह वर्णन की शैली नहीं, किन्तु वर्ण्य वस्तु या विषय है.
जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार धारण करने से सुन्दर नहीं हो सकती उसी प्रकार अस्वाभाविक भद्दे और क्षुद्र भावों को अलंकार-स्थापना सुन्दर और मनोहर नहीं बना सकती. महाराज भोज ने भी अलंकार को ‘अलमर्थमलंकर्त्तुः’ अर्थात् सुन्दर अर्थ को शोभित करने वाला ही कहा है. इस कथन से अलंकार आने के पहले ही कविता की सुन्दरता सिद्ध है. अतः उसे अलंकारों में ढूंढना भूल है. अलंकारों से युक्त बहुत से ऐसे काव्योदाहरण दिए जा सकते हैं जिनको अलंकार के प्रेमीलोग भी भद्दा और नीरस कहने में संकोच न करेंगे. इसी तरह बहुत से ऐसे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जिनमें एक भी अलंकार नहीं, परंतु उनके सौन्दर्य और मनोरंजकत्व को सब स्वीकार करेंगे. जिन वाक्यों से मनुष्य के चित्त में रस संचार न हो – उसकी मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन न हो – वे कदापि काव्य नहीं. अलंकारशास्त्र की कुछ बातें ऐसी हैं, जो केवल शब्द चातुरी मात्र हैं. उसी शब्दकौशल के कारण वे चित्त को चमत्कृत करती हैं. उनसे रस-संचार नहीं होता. वे कान को चाहे चमत्कृत करें, पर मानव-हृदय से उनका विशेष सम्बन्ध नहीं. उनका चमत्कार शिल्पकारों की कारीगरी के समान सिर्फ शिल्प-प्रदर्शनी में रखने योग्य होता है.
अलंकार है क्या वस्तु? विद्वानों ने काव्यों के सुन्दर-सुन्दर स्थलों को पहले चुना. फिर उनकी वर्णन शैली से सौन्दर्य का कारण ढूंढा. तब वर्णन-वैचित्र्य के अनुसार भिन्न-भिन्न लक्षण बनाए. जैसे ‘विकल्प’ अलंकार को पहले पहल राजानक रुय्यक ने ही निकाला है. अब कौन कह सकता है कि काव्यों के जितने सुन्दर-सुन्दर स्थल थे सब ढूंढ डाले गए, अथवा जो सुन्दर समझे गए – जिन्हें लक्ष्य करने लक्षण बने- उनकी सुन्दरता का कारण कही हुई वर्णन प्रणाली ही थी. अलंकारों के लक्षण बनने तक काव्यों का बनना नहीं रुका रहा. आदि-कवि महर्षि वाल्मीकि ने - “मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः” का उच्चारण किसी अलंकार को ध्यान में रखकर नहीं किया. अलंकार लक्षणों के बनने से बहुत पहले कविता होती थी और अच्छी होती थी. अथवा यों कहना चाहिए की जब से इन अलंकारों को हठात् लाने का उद्योग होने लगा तबसे कविता कुछ बिगड़ चली.
(सरस्वती, 1909 में प्रथम प्रकाशित)
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