कठिन दिनों व एक अस्तव्यस्त समय
का साझेदार: तो काहे का मैं (केशव तिवारी)
- नवनीत पाण्डे
’कठिन दिनों का कवि हूं
एक अस्तव्यस्त
समय का साझेदार’
साहित्य भण्डार, इलाहाबाद से केशव तिवारी का सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ’तो काहे का मैं’ में ऎसी ही धारदार- शानदार कई कविताएं हैं जिन्हें पढ ’कविता लिखना एक आत्ममुग्ध दुनिया में/ खुद के ऎब गिनाने जैसा लगता है..’ जैसी एक सरल कवि की अपने समय की कविताई की कठिन सच्चाइयों से साक्षात्कार होता है। ’मेरा भरोसा बार बार हिल क्यूं जाता है’ जैसी स्थितियों से गुजरने के बावजूद समर्पण नहीं करता अपने मित्र कवि मान बहादुर को याद करते हुए कविता में...
’पिता की मृत्यु से टूटा था मैं भी
तुम्हीं ने कहा था
कविता मां है हर दुख समेट लेगी अंचरे में
चिपके रहो इससे..’ स्मरण करता हर दुख को अंचरे में समेट लेने की कुव्वत और संकल्प ले अपनी कविता को ’’कवियों की ज़मात में
खोजे जा रहे हैं भांड और मिरासी
नियति तो दरवाज़े पर रिरियाता कुत्ता है..’ के माहौल में भी अपनी कविता को धार देता है और पूरे आत्मसम्मान से उद्घोष करता है
’पर सच तो यह है कि
इतिहास जहां पर चुप हो जाता है
कविता बोलती है..’
यही नहीं अपने अपनी ज़मीन से जुड़े इस अभियान में अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलता, संग्रह में अपने गांव के उदाहरणीय चरित्रों की मिशालों को अपनी कविताई के माध्यम से अपने परिवेश की विषम सच्चाइयों- पीड़ाओं को साझा करता है औरंगज़ेब का मंदिर, जुलाहे भाई, जोखू का पुरवा, गुरु पासी, मेरा गांव, बिसेसर, सुगिरा काकी, अवध की रात, जोगी, धनई काका, मेरे बुंदेली जन, ढोल पुजाई, मइकू का नाम, जगदल पुर, कतकी, मोमिना, शिवकली के लिए, गांव के रास्ते का कुंआ, मुराद अली, एक वृध्द लोक गायक को सुनकर, पहाड़, चरखारी रोड़ रेल्वे स्टेशन, अवध और आम, महोबा, कंकरा का घाट, उत्तराखण्ड में एक बगीचे से आदि कविताओं में अवध और उसके लोकधर्मी- परिवेश की जनवाणी यत्र- तत्र बिखरी मिलती है और कवि इसे ही खुद अपनी और अपनी कविताओं का प्राण मानते हुए कहता है,
’मेरा गांव मेरी वल्दियत
जिसके बिना
लापहचान हो जाऊंगा मैं
मित्र कहते हैं पांच सितारा होटलों में भी
झलक जाता है मेरा देसीपन..’ यह देसीपन उनकी अधिकतर कविताओं का केंद्रीय भाव है, इन कविताओं में आया गांव, उसके चरित्र बरसों- बरस पहले गांव से पलायन कर महानगर में आ बसे कवियों की कविताओं के छद्म- कागज़ी प्राणहीन गांव- चरित्र नहीं हैं अपितु यथार्थ में जीते- जागते गांव हैं और यह गंवई कवि और उसकी कविताई के ऎसे शब्द मोती हैं जो दूर से ही अपनी शुध्दता की चमक मारते हैं,
’अगर मैंने अभी हाल में
कविता लिखना सीखा है
तो मुझे सबसे पहले
अपने गांव के उस
अलमस्त गड़रिए को सुनना चाहिए था
मैं इन वातानुकूलित सभागारों में
क्या कर रहा हूं..’, समय के साथ- साथ बदलती गांव की आबोहवा
’यह राजनीति के जाल और झूठ का समय था
लोग उलझ कर मर रहे थे
बिसेसर बिना गोसइयां की गाय हो चुके थे
उन्हें कोई नहीं दिख रहा था
जिस पर भरोसा करते..’ और धीरे- धीरे अपने पैर पसारते वैमनस्य - भाव भी उसकी दृष्टि से छिप नहीं पाते हैं ’गांव के गांव चलती है
हत्यारों की हांक
भेड़ों की तरह शाम से ही
घरों में कैद हो जाते हैं लोग..’ कुम्हलाए जाते हुए बंसत को विदा के लिए एक सर्वथा ही नया अनूठा बिम्ब- प्रतीक ’जाओ पर ऎसे दबे पांव नहीं
ऎसे जाओ जैसे पूरे गांव से
विदा लेकर जाते हैं
हमारे यहां के भट्टा मजदूर..’ इसी तरह उसके लिए प्रेम की परिभाषा,
’प्रेम एक अनंत यात्रा है जिसमें
अक्सर लोग थककर
कहीं कोने में रखकर
भूल जाते हैं बांसुरी..’ पंक्तियां पढते भीतर बांसुरी सी बजने लगती है। कुछ ऎसे ही गांव की बेटियों,
’ए सांवली सूरत वाली लड़की
तेरी आंखों के उदास जंगल में
एक पहाड़ी मैंना
पंख फ़ुलाए उड़ रही है..’ जैसी कोमल पंक्तियों से गुजरने के बाद स्त्री के हक में,
’औरत अपनी देह का
मालिकाना हक मांग रही है....
’तुम्हारे रचे व्यूह के बीच मुनादी करती
तुम्हारे गौरव पर पैर रख
निकल जाना चाहती है औरत..’ का सिंहनाद सुनते हैं तो विश्वास ही नहीं होता कि यह उसी कवि की कलम की करामात है जो आंखों के उदास जंगल में पहाड़ी मैना और प्रेम में बांसुरी की ताने साधता है।
मैट्रो महानगरों में रहनेवालों के चरित्र और जीवन की विडम्बनाओं के बारे में अपने अनुभवों को बांटनेवाली ये पंक्तियां देखिए,
’यह जानते हुए कि दिल्ली से बोल रहा हूं
बदल गई आवाज़ें
कुछ ने कहला दिया दिल्ली से बाहर हैं
कुछ ने गिनाई दूरी
कुछ ने कल शाम को बुलाया चाय पर..’
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’अब न दिल्ली डराती है
न लुभाती है
जब आप एक चालाक समय में
जी रहे हों तो
डेरवा बाज़ार और दिल्ली में क्या फ़र्क है’ के माध्यम से अपनी पीड़ाओं को साझा कर जो सवाल हमारे बीच छोड़ता है, वे महानगरीय मित्रों की तथाकथित दूर के ढोल सुहावने के क्षुद्र सच,महानताओं भरे चरित्र के दोगलेपन आचारण की वास्तविकता को उजागर करते हैं इन अनुभवों से झेली पीड़ाएं, अपनायत के टूटे भ्रम ही उसे ..
’फ़िर भी अपनी-अपनी
व्यस्तताओं में फ़ंसे मित्रों
मैं दिल्ली से खाली हाथ नहीं जा रहा..’ जैसी पंक्तियां लिखने को मजबूर करती है और बताती है कि हमारे शहरों की मानसिकताएं किस कदर हाथी के दांतों जैसी हो गयी हैं। सम्बन्धों के पूंजीवादी व्यवहार से आहत कवि बयान,
’मेरा सौंदर्यबोध
मेरी जेब में पैसा
तय करता है..’ विचलित कर देनेवाला है और सवाल उठाते हुए अपना प्रतिरोध दर्ज़ कराते हुए आह्वान करता है,
’कोई ऊंट सी तनी गर्दन लिए
कब तक रह सकता है
वैसे बगुले सी झुकी
गर्दनों वाले लोगों से भी
मिलकर सिहर उठता हूं मैं..’ और इस सिहरन को ही कवि अपनी ताकत बनाते हुए अपने भीतर के आदमी को सवालों के कठघरे खड़ा करते हुए कसौटी पर कसने बैठ जाता है,
’किसी बेईमान की आंखों में
न खटकूं तो काहे का मैं
मित्रो को गाढे में याद न आऊं
तो काहे का मैं.... सिर्फ़ सुनाने के लिए सुनाऊं
तो काहे का मैं...’ के अलावा ’हर आंख पूछती सी लगती है/ कौन हो तुम/ दोस्त या दुश्मन/ दुनिया यहां बस/ दो ही समूहों में बंटी मिलती है..’ और,’आप ही बताएं कोई हर वक्त/ खराद पर रहना चाहता है/ अगर कोई हां कहता है/ तुरंत सतर्क हो जाइए..’ जैसे सवालों के जालों में खुद को जांच उन्हें तोड़ने की जद्दोजहद करता रहता है क्यों कि वह जान चुका है,’डर कहीं और था/ मैं कहीं और डर रहा था/ डर उस जर्जर खड़े/ पेड़ की छांह में था/ और मैं धूप में डर रहा था..’ ऎसे नाशुक्रे जर्जर पेड़ों की छांह भरे समाज, परिवेश और समय के बीच वह मान कर चलता है ’मैं खुद जिस समय का/ सिपाही बना फ़िर रहा हूं/ एक दिन उसके नेजे पर/ मेरा ही सिर होना है..’ जैसे भयावह सच-झूठों के बीच ’तो काहे का मैं’ का कवि शाश्वत भाव से उम्मीदों से भरा,’शुरु कहीं से भी/ किया जा सकता है... एक ज़िंदा आवाज़ का दखल है/ सन्नाटे और धूप के बीच.. सारी प्रतिकूल विसंगतियों से अपनी अकूत प्रतिरोधी क्षमताओं और जीजिविषा के साथ अपने देसी औज़ारों के साथ लोहा लेने के साथ- साथ कठिन दिनों और समय का साझेदार होता महसूस भी होता है।
’काहे का मैं’ के फ़्लैप में सुबोध शुक्ल ने बहुत सही कहा है,’बिना किसी नाटकीय कौतूहल और हवा बांधू चमत्कार के ये कविताएं हाथ थामती हैं और साथ चलने लगती हैं। यह एक वजह है कि केशव की कविताओं में प्रतिरोध, किसी सपाट भागदौड़ और चालबाज़ आतुरता की पैदाइश नहीं है, वह परिवेश के संभावित खतरों के जनजीवन के खंडित परिचयों का स्पेस है साथ ही अपने समानांतर आदर्शों की यथार्थ मनोभूमि की तलाश भी है।’
- नवनीत पाण्डे