पाठकनामा
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- मित्रों! एक शुभारंभ लिखने-पढने और लिखे-पढे को जांचनेवालों के लिए। हम सब जानते हैं.. लिखा बहुत और बहुत जा रहा है, लेखक-लेखन भी बहुत सरल-सुलभ होता जा रहा हैं लेकिन विडंबना के साथ इसका एक बहुत बड़ा दूसरा पहलू और प्रश्न कि पढा कितना और क्या जा रहा है? पाठकनामा यही जानने और जानकारी देने का प्रयास है जिसमें हम आप सभी के सहयोग और सहभागिता से लेखक और पाठक के बीच एक संवाद स्थापित करने का उपक्रम करने का सद्प्रयास करेंगे। पाठकनामा में लेखक , प्रकाशक अपनी कृति के बारे में तथा आलोचक, पाठक अपनी पढी किसी लेखक की कृति के बारे में अपने विचार, समीक्षा, आलोचना यहां साझा कर सकता है। कृति की समीक्षा, आलोचना, पाठकीय टीप्पणी मय कृति कवर,प्रकाशन विवरण पाठकनामा में भेजी जा सकती है या समीक्षा, आलोचना के लिए लेखक, प्रकाशक अपने प्रकाशन भी दो प्रतियां पाठकनामा को भी भेजी जा सकती है। पाठकनामा केवल एक निरपेक्ष मार्ग है पाठक को किताब तक पहुंचाने और पढने के लिए प्रेरित करने का। इस संदर्भ में और सार्थक महत्त्वपूर्ण सुझाव आमंत्रित है.. अपनी पुस्तक के कवर की फ़ोटो, की गयी आलोचना-समीक्षा आप editor.pathhaknama@gmail.com को भेज सकते हैं ।
Friday 3 July 2015
शतदल (बोधि प्रकाशन) के (ब,भ,च,द,ग वर्ण) के कवि और उनकी कविताओं का अंतर्पाठ -२ - निवेदिता भावसर
शतदल के उन्नीसवे कवि है एक बहुत ही प्यारे इंसान श्री बसंत जेटली जी। ये हैं इस लायक के इन्हें इंसान कहा जाए , क्यूंकि ये आज के समय में भी इंसानियत का जज़्बा रखते हैं। ये एक बहुत ही ईमानदार और साहसी इंसान हैं। और ये हर व्यक्ति से यही चाहते हैं कि वो और कुछ ना तो कम से कम, सही को सही और गलत को गलत कहने की तो हिम्मत रखे। ये हमेशा प्रयासरत रहते हैं एकता और समानता और सामंजस्य के मुद्दे को लेकर। मगर वो कहते हैं ना तुलसी इस संसार में , भांति भांति के लोग। और इन भांति भांति के लोगो की सोच के साथ सामंजस्य बैठाना बड़ा टेड़ी खीर वाला काम है। यात्रा करते वक़्त आपने देखा होगा ठसाठस भरी बस में यात्री सीट को लेकर झगड़ने लगते हैं जगह नहीं है , हम बैठ नहीं पा रहे , मगर ड्राईवर ऐसा ब्रेक लगाता है , सबके सब अपने आप एडजस्ट हो जाते हैं। बस ऐसा ही ब्रेक किसी दिन उस ऊपर वाले ने लगा देना है , देखना एक ही झटके में सारे यात्री अपने आप एक हो जाने हैं। ये भूकंप ये ज्वालामुखी, ये बाढ़ , सभी उसी के तो लगाए ब्रेक हैं। इसलिए जेटली सर आप तो बस यूँही लिखते रहें। आप, आपकी कवितायें आपकी सोच हमारे लिए बहुत कीमती है। खैर मैं सीधे मुद्दे पर आऊं। पढ़ते हैं इनकी पहली बड़ी ही मार्मिक और गहरी कविता जिसमे इसी असामंजस्य वाली स्थिति को लेकर इनके मन की व्याकुलता और छटपटाहट साफ़ झलकती है। कवि जब भटकता फिरता है अपने स्वप्नों को हकीक़त की शकल देने, उसे कई मिल जाते हैं उसी की तरह सोचते ख्वाब देखते , जो उड़ नहीं पाते , बस पंख फड़फड़ाते रहते हैं और दीवारों से टकरा लहुलुहान होते हैं। क्यूंकि वे साहस नहीं कर पाते उड़ने का। और उनको इस तरह से टूटता देख कवि का मन व्याकुल हो जाता है।
शतदल के बीसवे कवि हैं डॉ. भरत मिश्र जी। शतदल में इनकी दो बहुत ही खूबसूरत सी कवितायेँ संकलित हैं। पहली "मृत्यु के बाद भी" , "और दूसरी नदी हो न " कभी कभी सोचती हूँ , ये कवितायेँ हमें कहाँ लिए चली जाती हैं। हम क्या सोचते हैं , और क्या सोचने लग जाते हैं। हमारे अंदर तक उतर हमें पूरा बदल देती है। जाने कैसा होता है कवि का मन .. जो ज़रा से छींटे ही मार दे ना अपने शब्दों के तो वो ज़मीन तर हो जाये। बस ऐसी ही हैं हमारे आज के कवि श्री भरत मिश्र जी की कवितायेँ। इन्होने अपने लिखे में न कोई बड़ा दावा किया है, ना ही बढ़ा चढ़ा के कोई बात कही है। ना कोई गुस्सा, ना कोई विद्रोह, शांत सी बहती हैं , गहरे और गहरे , समेटे हुए अपने सारे दुःख और बेचैनियां। इनकी कवितायेँ एक उदार मन की कवितायें हैं। कवि प्रगति पसंद है, वो गलत नहीं मानता महत्वाकांक्षी होना। मगर वो कहता है कि, बढ़ो खूब आगे बढ़ो पर किसी को रौंद कर, किसी का घर तोड़ कर नहीं। कवि के शब्दों में उनका प्रेम झलकता है। उनकी कविताओं में उनकी परवाह करती आँखे झांकती हैं , जो कहती हैं मैं तुम्हारी राह का रोड़ा नहीं हूँ , बस मुझे तुम्हारी परवाह है। पढ़िए आप भी ये प्यारी सी कविता …
शतदल के इक्कीसवे कवि हैं श्री भास्कर चौधुरी जी। बहुत ही सकारात्मक सोच वाले इंसान हैं भास्कर जी। बिलकुल इनके नाम के ही जैसे, जो घनघोर अँधेरे में भी उजाले की बात करता है। शतदल में शामिल इनकी शानदार कवितायें , चाँद , विजेता और विश्वकप, हमारे मन को नए तरीके से सोचने का हौसला देती है।
शतदल के बाइसवे कवि हैं आदरणीय ब्रज श्रीवास्तव जी। मेरी इनकी कविताओं में व्यवस्थाओं सेनाखुशी झलकती है । खैर सरकारी व्यवस्थाओं से तो हर कोई नाखुश है। किन्तु हर कोई अपनी बात को इस बेहतरीन तरीके से नहीं कह सकता क्यूंकि हर कोई ब्रज श्रीवास्तव नहीं हो सकता। ये मुझे उस अध्यापक की तरह लगे जोकिसी बच्चे की कॉपी के हर एक पन्ने पर लाल लाल गोले लगा आखिर में वेरी गुड दे देता है। अब ये बच्चे की अकल के उसे तारीफ समझे या ताना। ये इतना आपको अचंभित करके रख देते हैं की आप इनकी कविताओं को दुबारा पढ़े बिना नहीं रह सकते। इनकी कविताओं के जो कटाक्ष हैं ना बहुत ही शानदार होते हैं।अरे सच, यकीन ना आये तो पढ़ के देख लीजिये।
"एक गरीब बच्चा दूसरे गरीब बच्चे को ऐसा मशवरा दे रहा है।
शतदल की आज की तेईसवीं कवयित्री हैं सुश्री चन्द्रकान्ता जी। मैं इनके बारे में क्या कहूँ। इनका लेखन ही इनका सच्चा परिचय है। सुनहरे ख्वाबों से खींच कर असल ज़िन्दगी की काली हकीकत के सामने ला खड़ा कर देती हैं चन्द्रकान्ता जी। शतदल में छपी इनकी दो शानदार कवितायेँ अछूत स्त्रियां चुप हैं और एक स्त्री का स्वप्न, हिला कर रख देती हैं आपको। बड़ा ही कठिन है इनकी कविता "अछूत स्त्रियां चुप हैं " को कोरे कोरे शब्दों में बयां करना। ये कोई कविता नहीं ना ही ये प्रलाप है, ये तल्ख हकीकत है उन स्त्रियों की, जिन्हे अछूत घोषित करके समाज के तथाकथित श्रेष्ठ लोगों द्वारा निष्कासित कर दिया गया । मगर उनका उपभोग निरंतर करता रहा। ये कैसी दोहरी मानसिकता है हमारे इस सभ्य समाज की, कि जिसे छूने मात्र से धर्म भ्रष्ट होता है उसी का उपभोग करना व धर्म संगत मानता है।
शतदल के चौबीसवे कवि है श्री चरण सिंह अमी जी। चरण सिंह सर से मेरी पहचान शतदल पर टिप्पणी लिखते समय ही हुई। जब हम किसी उद्देश्य से जुड़ते हैं, तो ज़रूरी नहीं होता के वो एक अच्छा काम है तो अच्छे से ही पूरा होगा , कई रोड़े आते हैं। कई लोगो की सोच आड़े आती है। कई बार ऐसा हुआ के मेरी कलम बोले तो ये अपने की बोर्ड की "की" रुक सी गयी। तब चरण सिंह सर ही थे जिन्होंने कहा के " अपना काम धैर्य से करो, मनमुटाव को बीच में मत लाओ। तटस्थ हो कर लिखो।" बस फिर क्या , मै नयी ऊर्जा से भर गयी। उस वक़्त मुझे कृष्ण से लगे चरण सिंह सर।
शतदल के पच्चीसवें पड़ाव पर हैं , जहाँ चुपचाप शांत से बैठे हुए हैं अपने दीपक अरोड़ा सर। कुछ कह रहे नहीं शायद लिख रहे हैं..
शतदल की अगली, छब्बीसवी कवयित्री हैं प्यारी सी दीपिका केशरी। सच जितनी ये प्यारी हैं उतनी ही प्यारी इनकी कवितायेँ हैं। न माशा कम न तोला ज़्यादा। इनकी कवितायेँ हर ह्रदय की कविता है। या यूँ कहूँ के हर उस ह्रदय की कविता है जो प्रेम करना जानता है। तो सही माने में कहूँ तो हमारी दीपिका प्रेम रचती है प्रेम कहती है प्रेम करती है प्रेम लिखती है। वैसे आज के इन बुद्धिजीवी और दुनियाभर की समस्याओं को अपने सर पर बिठा बड़े बड़े आख्यान देते फिरते लोगों की नज़र में किसी प्रेम कवि की हैसियत एक झोलाछाप कवि से ज़्यादा नहीं होती। बड़ी ही हिकारत की नज़रों से देखते हैं उसे और उसके प्रेम को। मगर वो झोलाछाप कवि ही होता है जो उन बुद्धिजीवियों के सर पर कबूतरों की तरह बैठ गुटरगूँ करती समस्याओं का हल अपने झोले में लिए घूमता है। तो आज हमने भी अपनी दीपिका के झोले से कुछ प्यारी प्यारी जादूभरी कवितायेँ चुराई हैं। मुझे पक्का यकीन है आपको ज़रूर पसंद आएँगी। आइये पढ़ते हैं इनकी बड़ी ही प्यारी सी जज़्बातों से भरी कविता "रिक्त होना"
शतदल के सत्ताइसवे कवि हैं श्री दिनेश राय द्विवेदी। शतदल में शामिल इनकी कवितायेँ , सपना , किसी का बिगाड़ लेंगे क्या ? , और तकिये पर सर, है। वैसे तो इनकी तीनो ही कवितायेँ अपना एक अलग ही अंदाज़ रखती हैं , फिर भी मुझे सबसे अच्छी इनकी कविता "सपना" लगी। द्विवेदी साहब पेशे से वकील हैं। और इनकी यह न्यायप्रियता आपको इनकी कविताओं में भी मिलेगी। चलिए आइये पढ़ते हैं इनकी कविता "सपना "
अट्ठाईसवें कवि है, बहुत ही खूबसूरत बहुत ही सुंदर सुंदर कविताओं के रचयिता गोपाल माथुर जी। सच इनकी कवितायें इतनी प्यारी हैं के आप पढ़ते ही मुग्ध हो जायेंगे। इनका लिखे दुःख, विरह, वेदना भी दिल को सुकून देते है। पढ़ के ऐसा लगता है के अगर दुःख इतना ही प्यारा है तो ये भी क़ुबूल है हमें । इतने प्यार से लिखते हैं जैसे शब्द ना हुए इनके जाए बच्चे हों। कमाल का लिखते हैं हमारे गोपाल माथुर जी सच। एक अपनत्व सा जुड़ जाता है इनकी कविताओं से। आईये आपको पढ़ाती हूँ इनकी ऐसी ही एक बहुत ही प्यारी कविता:-
"जब उतरती हुई सीढ़ियां
उनन्तीसवे कवि हैं श्री गोपीनाथ जी। ये भी मेरे पसंदीदा कवियों में से एक हैं। एक राज़ की बात बताऊँ इनकी ना एक और ID है"फेंकू हिन्दुस्तानी" नाम से। एंग्री यंगमेन स्टाइल में। इनसे मेरा परिचय उसी आई डी के ज़रिये हुआ। एक वक़्त था जब मैं कुछ गिने चुने कवियों को ही पढ़ पाती थी , जिनमे से एक थे फेंकू हिंदुस्तानी सर। शायरी तो जैसे इनकी ज़बान पर ही रखी रहती है। और वो भी ऐसी के पढ़ते ही मज़ा आ जाये। आप बिना वा-आह किये तो रह ही नहीं सकते। सच बड़ा मज़ा आता था इन्हें पढ़ के , हर दो मिनट में एक शेर। तैयार एकदम ताज़ा ताज़ा। गरमागरम एकदम सीधे कड़ाही से निकला। और फिर वहीँ जम जाया करती थी महफिल । फेंकू साहब शेर करते , पलट के जवाब में माया सर अपनी कविता रख जाते। फेंकू साहब उसी बात पर एक और शेर दे मारते , फिर अपने माया सर कहाँ चुप रहने वाले थे वो भी उसी दम ताज़ा ताज़ा कविता मावे की बर्फी सी वहाँ जमा देते। और हम जम के भरपेट स्वाद ले ले के भोजन का आनंद लेते। (और डकार भी न लेते, अब कविताओं , शेरो शायरी के मामले में तो हम खानदानी भुक्कड़ हैं साहब )
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