मित्रो!भारतीय ज्ञानपीठ से युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि- कथाकार विमलेश त्रिपाठी के ज्ञानपीठ से प्रकाशित व चर्चित उपन्यास ’कैनवास पर प्रेम’ पर राहुल शर्मा का समीक्षात्मक आलेख
कैनवास पर अंकित प्रेम का मनोविज्ञान 'कैनवास पर प्रेम’ -राहुल शर्मा
किसी गंभीर विषय पर कोई बात आरंभ करने के पूर्व मन में अनेक प्रकार के द्वंदों का आना स्वभाविक है। ठीक ऐसा ही अनुभव विमलेश जी के उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ पर लिखने के दौरान होता रहा। ‘कैनवास पर प्रेम’ अर्थात ‘प्रेम की पृष्ठभूमि’, अर्थात शीर्षक द्वारा पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया गया एक प्रश्न कि आखिर प्रेम की पृष्ठभूमि क्या होती है? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में मेरा ध्यान एक पाठक की हैसियत से ‘मनोविज्ञान’ की ओर गया।
‘प्रेम’ एक बेहद खूबसूरत शब्द है - अपने भीतर कई भावों का वहन करता हुआ। ‘प्रेम’ शब्द में व्याप्त इसी ‘मनोविज्ञान’ को विमलेश त्रिपाठी ने अपने पहले उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ में चित्रित किया है। 159 पृष्ठों और 12 अध्यायों में विभक्त यह उपन्यास एक ऐसे वातावरण को प्रस्तुत करता है जिसमें प्रेम और खो चुके प्रेम के भीतर की एक विशेष मनोदशा को सामने लाया गया है।
यहाँ चर्चा का विषय ‘कैनवास पर प्रेम’ में प्रेम का मनोविज्ञान है। ‘मनोविज्ञान’ अर्थात मन का विज्ञान। मानव मस्तिष्क ग्रंथियों का ऐसा उलझा जाल है जिसे समझना एक कठिन कार्य है। इस उपन्यास के केन्द्र में वैसे तो कई पात्र है लेकिन उपन्यास की कथा सत्यदेव, विमलबाबू और कथाकारके इर्द-गिर्द घूमती है। इन तीन पात्रों के अलावा इस उपन्यास में सैफू, मयना, रिंकी जैसे पात्र भी हैं जिनके माध्यम से कथाकार सत्यदेव के मानसिक द्वन्द्व को तो अर्थ देता ही है साथ ही विमल बाबू की मानसिक स्थिति से भी पाठकों को अवगत कराता रहता है। उपन्यास को पढते हुए हम यह भी पाते हैं कि मनोविज्ञान पर लेखक की मज़बूत पकड़ है जिसे लेखक ने आबिदा परवीन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाऊल, बूढे फकीर आदि के गीतों को उपन्यास में पार्श्व संगीत की तरह प्रयोग कर पात्रों की मन:स्थिति को उद्घाटित करता जान पड़ता है।
इस उपन्यास की कथा को विमलेश जी ने कई किस्तों में बांटा है। पहली किस्त का शीर्षक है - वरना इस जहां में मुस्कुराता कौन है। इस अंश मे उपन्यासकार ने सत्यदेव शर्मा के बचपन का चित्रण किया है। पहली किस्त का शीर्षक ही सत्यदेव के बचपन के दर्द को उद्घाटित करने में पूरी तरह सक्षम है। इस अंश में बारह-तेरह वर्ष के लड़के की मानसिक स्थिति को दर्शाने में कहानीकार नगेसर का सहारा लेता है जिसके चेहरे में वह बच्चा अपनी मां की तस्वीर देखता है। बिदेशिया नाच में बेटी बेचवा, सत्ति बिहुला, सारंगी-सदावृक्ष नाटकों का मंचित होना उस तेरह वर्षीय लड़के की मन:स्थिति को चित्रित करने का एक प्रयास है। इस अंश में विमलेश जी का गंवई संस्कृति के प्रति लगाव भी देखने को मिलता है। पूरवी गीत को जिस अंदाज से लेखक द्वारा परिभाषित किया गया है वह वास्तव में काबिले तारीफ़ है। पूर्वी गीत की यह परम्परा लेखक द्वारा सत्यदेव के दर्द को पाठकों के समक्ष जीवंत करने में पूरी तरह सक्षम है।
दूसरी किस्त का शीर्षक है - और मैं वह हूं जो खुद पर कभी गौर करूं। इस अंश में कहानीकार सत्यदेव की सौतेली मां मरछिया के चरित्र को उद्घाटित करता जान पड़ता है साथ ही सत्यदेव के मित्र सैफू की मरछिया के प्रति सोच और उस सोच के मध्य नगेसर का गीत, उस गीत से सत्यदेव का लगाव, उस घटना का अपनी ज़िन्दगी से मिलान, पिता के स्वभाव का चित्रण, मरछिया का सत्यदेव के प्रति किया जानेवाला व्यव्हार, ‘मां’ शब्द की बदलती परिभाषा, मां द्वारा एक अंधेरे कमरे में बंद कर देना, दीवार की रोशनी का शक्ल में बदल जाना, दीवार पर एक स्त्री का चित्र उभरना, चित्र का नगेसर नचनिया की तरह लगना, उस शक्ल का कमज़ोर स्त्री में बदल जाना, कोयले से अपनी मां का चित्र बनाना, उस तस्वीर में प्राणों का होना बाल सत्यदेव की मन:स्थिति को दर्शाता है और बारह तेरह साल का वह लड़का बीस-तीस साल के लड़के की तरह उपस्थित होता है। प्रेमचंद की कहानी के पात्र हामिद की तरह।
तीसरी किस्त का शीर्षक है - हर बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता। इस शीर्षक के अंतर्गत लेखक सत्यदेव की मानसिक स्थिति और उसके तथा मयना के प्रेम का चित्रण करता है। इस अंश के आरंभ में सत्यदेव का उसके दादा द्वारा मरछिया दवारा दिये गये दंड से उबारने से होता है। यहां लेखक सत्यदेव की स्थिति के माध्यम से उस पारिवारिक स्थिति की ओर इशारा करता नज़र आता है जो बच्चों की मन:स्थिति को गहरे प्रभावित करता है। इस अंश में चित्रित घटनाओं से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि लेखक को मनोविज्ञान की गहरी समझ है और उस मनोविज्ञान का चित्रण करने में वह तनिक भी देर नहीं करता। जहां एक ओर वह चन्द्रमणि शर्मा के कथन के माध्यम से स्त्री मनोविज्ञान को उद्घाटित करता है तो वहीं दूसरी ओर वह मयना और सत्यदेव के प्रेम का चित्रण कर एक बैलेन्स्ड स्थिति को बुनता नज़र आता है। कथा को लेखक बैलेन्स्ड तो करता ही है साथ ही उसे विस्तार देने के लिये सत्यदेव की ज़िन्दगी में कुछ और घटनाओं को जोड़ता चलता है जो इस उपन्यास को पढने के लिये पाठक को उत्सुक बनाये रखता है। इसी अंश में मरछिया द्वारा सत्यदेव की किताबें जलाने का प्रसंग आता है जिसका सत्यदेव पर पड़ने वाले प्रभाव को लेखक इस प्रकार से चित्रित करता है-
“एक-एक शब्द जल रहे थे। एक-एक वाक्य जल रहे थे। जल रहा था पूरा एक संसार जो अब तक के समय में बना था उसके भीतर……।“
चौथी किस्त का शीर्षक है - यूं अगर रोता रहा गालिब, कथा का वन और अन्तहीन रास्ते का सफर।
उपन्यास का यह अंश दु:ख के भाव को प्रदर्शित करता है और इस दु:ख की अभिव्यक्ति लेखक गालिब के शेर के माध्यम से करता है। सत्यदेव के दादा का यह कथन कि –
‘औरत तो करूणा की मूर्ति होती है’ के माध्यम से लेखक सत्यदेव का स्त्रियों के प्रति सुलझी हुई सोच को दर्शाता है लेकिन वास्तविकता उसकी इस सोच को चकनाचूर कर देती है। यही तो ‘कैनवास पर प्रेम’ का वास्तविक रंग है। जिस प्रकार एक चित्रकार कैनवास पर अपने मनोभावों को उतारने के लिये अनेक रंगों का प्रयोग करता है ठीक उसी प्रकार विमलेश भी एक सफ़ल चित्रकार की तरह ज़िन्दगी के कैनवास पर सत्यदेव की कथा को अंकित करते हैं। इस अंश में लेखक गड़ेरिये की कथा का सहारा लेता हुआ सत्यदेव की मानसिक स्थिति का चित्रण करता है। इस अंश में सत्यदेव की कथा के साथ-साथ लेखक की भी कथा चल रही होती है जिसे पढते हुए ऐसा जान पड़ता मानो लेखक और सत्यदेव की कथा एक है और दोनों की मानसिक संरचना की बनावट एक ही प्रकार के तत्वों से हुई है। सत्यदेव और कथाकार के चरित्र का यह साम्य निम्नांकित पंक्तियों में नज़र आता है-
“कथाकार चुपचाप है। सत्यदेव पता नहीं क्या-क्या बड़बड़ाते जा रहे हैं। मुझे फिकर हो रही है। मैं बार-बार एक पुरानी घड़ी की तरफ़ देख रहा हूं जिसका समय न जाने कितने समय से रूका हुआ है। छत के टपकने से अंदर तक सीलन भर गयी है। मुझे पता है कि वह घड़ी रूकी हुई है सदियों से।“
इन पंक्तियों के माध्यम से कथाकार ने सत्यदेव के भीतर चल रहे द्वन्द को भी उद्घाटित किया है। यह सीलन कोई साधारण सीलन नहीं है बल्कि मानवीय संवेदनाओं के धरातल पर उतर रहा सीलन है। प्यार की सही परिभाषा को लेकर उपन्यासकार का यह कथन कि –
“यह कैसा प्यार है? क्या प्यार करने वाले इस तरह किसी का गला घोंट सकते हैं।“
यह एक ऐसा कथन है जहां सत्यदेव और लेखक की मानसिकता का समन्यव देखने को मिलता है। इस अंश के इन पंक्तियों को देखने से सत्यदेव के मानसिक हालात और भी स्पष्ट हो जाते हैं-
“सत्यदेव शर्मा का मानसिक संतुलन सामान्य नहीं है। वह एक ऐसे समय में चले गये हैं जहां यथार्थ की घोर और नंगी विकृतियां होती हैं- स्वप्न मनुष्य को जी सकने का भ्रम देता है- नंगा यथार्थ उसे तोड़ता है। यह टूटन कई बार मनुष्य को मुर्दे में तब्दील कर देती है और कई बार उसके व्यक्तित्व को बड़ा आकार भी देती है।“
और पूरे उपन्यास में सत्यदेव इसी द्वन्द् से जूझ रहा होता है जो कथाकार के लिये एक महत्वपूर्ण विषय बन जाता है।
अन्य अंशों की अपेक्षा यह एक ऐसा अंश है जिसमें लेखक आधुनिक कहलाने वाले समाज की ‘आधुनिकता’ पर अपनी कलम की पैनी नोक चलाता हुआ नज़र आता है। यह अंश इसलिये और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसमें लेखक ने बारीकि से राजेश खन्ना और मुमताज के गीतों के वर्णन के माध्यम से तत्कालीन समाज में ‘प्रेम’ की स्थिति को दर्शाता है –
“लड़कियों की उम्र बढने के साथ उनके लिए दीवारों के घेरे ऊंचे और ऊंचे होते जाते थे।……………… हंसने खिलखिलाने तक के अर्थ निकाले जाते। लेकिन तब भी घर से लड़कियां भागती थीं जैसे पिंजरे से चिरई उड़ भागती है। चमईन की तब भी ज़रूरत पड़ती थी- बच्चा गिराने के लिये…………… कुछ ज्यादा इज्जतदार लोगों के घर से कुछ जवान लड़कियों की अचानक होने वाली मौतों के बाद लाश निकलती थी।“
इन पंक्तियों के माध्यम से लेखक प्रेम के एक ऐसे वितान की रचना करता है जहां समय दो आत्मा और दो देहों के बीच रूक गया है। इन घटनाओं के साथ-साथ और भी घटनाएं चलती रहती हैं जिन्हें प्रतीकात्मक ढंग से उपन्यासकार ने चित्रित किया है।
छंठवी एवं सातवीं किस्त का शीर्षक – ‘सब कहां कुछ लाला-ओ-गुल में नुमाया हो गए’ एवं ‘इक आग का दरिया है और डूब कर जाना है’ - में सत्यदेव का अपने अतीत की स्मृतियों को बेधकर बाहर निकलने का प्रयास है। इस अंश में कथाकार विमल बाबू ने एक ऐसे संवेदनशील एवं आत्मीय सम्बन्ध को दर्शया है जिसका प्रभाव पूरे उपन्यास में सत्यदेव की मानसिकता पर नज़र आता है। उपन्यास में एक स्थान पर कथाकर अपने नोट में लिखता है-
“मैंने सत्यदेव शर्मा के साथ एक पूरी उम्र जीने का निर्णय किया है- जानबूझकर नहीं अनायास ही।
जो मेरे लिहाज से बहुत ज़रूरी है। मैं उनके दिमाग के तंतुओं तक कई बार प्रवेश कर के लौट आया हूं। वहां एक गहरा शून्य है – कई बीहड़ खाइयां हैं।“
इस अंश में कथा के दोनों सूत्रों में एक अन्तरंग सम्बन्ध दृष्टिगत होता है और वह है कथाकार विमल बाबू और सत्यदेव में व्याप्त अजनबीयत एवं अकेलापन। फर्क है तो केवल इतना कि विमलबाबू जो एक गृहस्थ होने के साथ-साथ एक लेखक भी हैं ने अपने इस अकेलेपन को ठहरने नहीं दिया और सत्यदेव ने अपने भीतर व्याप्त अकेलेपन को ‘मयना’ और ‘सैफू’ के रूप में पूरी तरह से आत्मसात कर लिया है। सत्यदेव के भीतर व्याप्त अकेलेपन के ठहराव के मध्य कथाकार द्वरा ‘रिंकी’ के माध्यम से एक हलचल भी उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है परन्तु यह प्रयास भी सत्यदेव को सदमे से उबारता नज़र नहीं आता अपितु उस सदमें को और पुख्ता करता जान पड़ता है।
वैसे तो यहां दो किस्तों पर अलग से चर्चा नहीं की गई है लेकिन पिछले किस्त जिन सन्दर्भों को लेकर आगे बढते है उन सन्दर्भों की परिणति इन अंतिम दो किस्तों में दिखायी पड़ती है।
किसी उपन्यास को श्रेष्ठ बनाने में उसके शिल्प का महत्वपूर्ण योगदान होता है। विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ इस कसौटी पर खरा उतरता है। उपन्यास की कथा को कहने का अन्दाजेबयां काबिले तारीफ है –
“शुरूआत के लिये कुछ बातें ज़रूरी होती हैं। मसलन एक समय की बात है या किसी शहर कस्बे या गांव में कोई एक आदमी या लड़का या कोई लड़की रहती थी।
और फिर ऐसा कहते हुए कथा की शुरुआत करने की एक सुदीर्घ परम्परा-सी बन आई है। लेकिन जब कथा उस तरह न कहनी हो तब?”
इन पंक्तियों को पढते हुए पाठक के मन में एक कौतुहल उत्पन्न होता है उपन्यास की कथा जानने का। जिस प्रकार एक नदी की धारा मार्ग में आ रहे पत्थरों के आने से हमेशा एक नये मार्ग का सृजन कर लेती है ठीक उसी प्रकार उपन्यास की भाषा के माध्यम से उपन्यासकार कथा को एक नई लीक प्रदान करता नज़र आता है।
अंततः कहना चाहिए कि विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ भले ही उनका प्रथम उपन्यास हो लेकिन यह एक परिपक्व उपन्यासकार की छवि को उजागर करता है। आशा है कि विमलेश जल्द से जल्द अपने मानसपटल पर जन्म ले रही एक और रचना से हमें पुरस्कृत करेंगे ताकि एक समीक्षक के रूप मेरे अधूरे प्रयास को सम्पूर्णता प्राप्त हो सके। साथ ही कि इस उपन्यास यह उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ नहीं बल्कि कैनवास पर प्रेम का मनोविज्ञान है।
कैनवास पर प्रेम ( उपन्यास)
लेखकः विमलेश त्रिपाठी
प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
मूल्यः 200 रू.