मित्रो! पाठकनामा में आज प्रस्तुत है युवा कवि-कथाकार अर्पण कुमार के कविता संग्रह ’ मैं सड़क हूं’ पर
जीवन से गुजरते हुए ….‘मैं सड़क हूँ’ (अर्पण कुमार) -हरीश करमचंदाणी
समकालीन हिंदी कविता आज की हकीकतों को , उसकी संवेदना को शब्दों के माध्यम से संप्रेषित कर पाने में सक्षम है--- इस कथन की पुष्टि करती कविताएँ युवा कवि अर्पण कुमार के
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मगर माँ मेरी
इस कायापलट से
कदाचित अनभिज्ञ ही है
(संभव है, अनजानी रहना चाहती हो)
और यह अच्छा ही है कि
जीते जी हाड़-माँस के अपने बेटे को
यूँ काठ होता न देखे
(रोटी खाने का हक़ : पृ. 113)
कुछ और पा लेने की अंधी दौड़ की व्यर्थता को कवि प्रभवशाली अंदाज़ में नए ढब के साथ पेश करता है:-
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तुम मुझपर आजीवन भागते हो
मगर मैं तुम्हें कहीं नहीं पहुँचाती
और मुझमें कोई ऐसी सामर्थ्य होती
तो मैं स्वयं किसी मंज़िल पर जाकर
सुस्ता रही होती
मैं तो किसी नदी की तरह खुशकिस्मत भी नहीं
कि कोई सागर मुझे अपनी गोद में
जगह दे दे
(मैं सड़क हूँ : पृ. 118)
पंक्तियों की अभिव्यंजना यह भी कि जिसे माध्यम बनाया उसे भी अपनी व्यर्थता का अहसास है।
जब भावनाओं और कोमलताओं को रौंदा कुचला जा रहा हो... ऐसे में कोई कैसे अपने आप को बचा पाता है ....इस पर शहर भी आश्चर्यचकित है :-
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अपनी रफ्तार तले
जाने कितनों को विक्षिप्त करते
और इतराते शहर को
हैरानी होती है
मैं अब तक सही सलामत कैसे हूँ
मैं अब भी अनुलाभ से अधिक
अनुराग की बात क्यूँ करता हूँ !!
(शहर में कवि : पृ. 100)
कवि यहाँ उस व्यक्ति का प्रतीक बन खड़ा होता है जो सहृदयता से भरा उदात्त भावनाओं से पुर होकर ही अपना मनुष्यत्व सुरक्षित रख पाता है ।
संग्रह में अनेक कविताएँ घर परिवार से जुड़ी हैं सहजता और सफलता से रिश्तों को परिभाषित करती हैं और उस दर्द को बिना लाउड हुए बयान करती हैं जो हरेक के जीवन में आता ही है :-
....तेरी चाई जा चुकी थी तुमसे दूर
हम सबको अकेला छोड़कर
मुरझा गए थे
तेरे पापा भी
अपनी दादी को खोकर
नहीं रहा था कोई
एक बच्चे के बाप को
बच्चा समझने और डाँटनेवाला...
(तीन पीढ़ियों के बीच चौथी पीढ़ी: पृ. 75)
बाज़ार का छल किस तरह अपने जाल में उपभोक्ता को जकड़ रहा है कि उसकी अंतरंगता को भी आज मुक्त नहीं रखा जा सकता :-
‘ ...बाज़ार नहीं है किसी का
किसी भी पक्ष का
मगर है कुछ ऐसी सम्मोहकता
उसके शब्दार्थ और व्यवहार में
कि वह अपना लगता है
दोनों ही पक्षों को
हम भूल जाते हैं
बाज़ार में भुनाया जाता है
अपनापन भी
नोटों और सिक्कों की तरह
(बाज़ार : पृ. 97)
अनेक विषयों पर केंद्रित विविधतामयी इस संग्रह को एक अविस्मरणिय कविता है ‘ मजिस्टर राम का शरणार्थी’ (पृ. 52)। जूतों की मरम्मत करनेवाले इस चरित्र का चित्रण इतने प्रभावशाली ढंग से किया है कवि ने कि पाठक उससे साक्षात पाता है। उदात्तता के अमूल्य क्षणों की तरह कविता की पंक्तियाँ मनुष्य होने के गौरव से मन को ऊँचाईयों पर ले जाती हैं और सहज ही जीवन में काम आनेवाले तथाकथित वे छोटे लोग जिन्हें अक्सर अचीन्हा कर दिया जाता है... के प्रति कृतज्ञता से हृदय भर आता है :-
....मैं अहसानमंद हूँ
मजिस्टर राम का
जिसे जूते बनवाई के मात्र पाँच रुपए देकर
आधे घंटे तक न सिर्फ शरणार्थी रहा
.....
(‘मजिस्टर राम का शरणार्थी’ : पृ. 61)
इस महत्वपूर्ण व पठनीय संग्रह का आवरण व मुद्रण आकर्षक भी है और बोधि प्रकाशन की तेजी से बढ़ रही लोकप्रियता का कारण बतानेवाला भी । प्रतिष्ठित कवि विजेंद्र द्वारा बनाया गया आवरण –चित्र कविता-संग्रह को गहरी अर्थवत्ता देता है और कलाओं के अंतर्संबंध को संकेतित भी करता है।
काव्य-संग्रह ‘मैं सड़क हूँ‘ में बड़ी संख्या में मिलती हैं। इन कविताओं में मनुष्य जीवन के दुःख, सुख, क्षोभ, गुस्सा, प्रेम, बेगानापन, आशा, निराशा,अलगाव से लेकर भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के कारण सहज मानवीय संबंधों पर पड़नेवाले असर की मार्मिक छवियाँ भी नज़र आती हैं :-
वरिष्ठ कवि-समीक्षक हरीश करमचंदानी द्वारा की गयी समीक्षा
-हरीश करमचंदाणी