स्त्री होकर सवाल करती है? इतनी हिम्मत? ये हक किसने दिया उसे? इसी मर्दाना दंभ का प्रतिकार है बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित फ़ेसबुकिया कवियों के स्त्री विषयक संग्रह की अधिसंख्य कविताएं। स्त्री होकर सवाल करती है, की कविताओं में जो सवाल स्त्री उठाती है, वे सवाल नए नहीं है, न ही उनकी स्थिति । नए हैं वे तेवर जिनमें वह अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति दे रही हैं और सोच जो इन कविताओं में खुलकर सामने आयी है और यह बताती है कि रसोई के चुल्हे से उठनेवाले छौंक के धुंए का कटु सच क्या है। यह देख-पढकर बहुत विस्मित हुआ जा सकता है कि कविताओं की स्त्रियां चौके-चूल्हे के घेरे को तोड़ नहीं पाने के बावजूद अब मूक-बघिर नहीं है। अधिकतर कविताएं स्त्री के घरेलू कामकाजी जरूर दिखती है पर वे अपने तरीके से वह सब व्यक्त करने में सफ़ल रही हैं जो वे व्यक्त करना चाहती है। ’स्त्री होकर सवाल करती है’ संपादक डा. लक्ष्मी शर्मा का यह आकलन बहुत सही प्रतीत होता है "दुनिया की उपेक्षित आधी आबादी, जिसे कहा तो ’केयर जेंडर’ जाता है पर जिसके साथ जरा भी ’फ़ेयर प्ले’ नहीं किया जाता है, के सरोकारों को वहन करती है। संतोष की बात है कि ये स्त्री-स्वर मात्र स्त्री कलम से ही नहीं उठा है, पुरुष रचनाकार भी उतनी ही संवेदनशीलता के साथ यहां उपस्थित है। इन रचनाओं को पढकर एक बात स्पष्ट होती है कि समय के साथ स्त्री-दृष्टिकोण में बहुत परिवर्तन आया है। वह अब एक अधिक स्वतंत्र और मुखर ईकाई के रूप में खड़ी है, अधिक सशक्त, स्वयंशासी और तमाम सीमा रेखाओं के प्रति विद्रोही प्रश्नाकुलता लिए । स्त्री-विमर्श को मात्र देह-विमर्श मानने की एकांगी मानसिकता का विरोध भी इन कविताओं में मुखर है।" (भूमिका-संपादक-डा.लक्ष्मी शर्मा) यह मुखरता हर कवि-कविता का मूल स्वर है और इसे बहुत ही आसानी से पढा जा सकता है।
"औरतें पता नहीं किस अली बाबा की गुफ़ा में बैठी
यूं ही खेलती है अपने खालीपन से।
चालीस चोर सी ज़िंदगी...(अपर्णा मनोज) चालीस चोर सी ज़िंदगी जीनेवाली इन औरतों के अधिकार और प्रतिकार कुछ भी तो नहीं बावजूद इसके कि....
"गर्भ मेरा, रचना मेरी और पालन भी मेरा
पर संताने तुम्हारी
देह मेरी किंतु शासन तुम्हारा
कष्ट मेरा किंतु
सारा श्रेय तुम्हारा
मैं खाली हाथ
मां हूं बस ममता की मूर्ति
एक कृति और कीर्ति "(अलका सिंह) सारा श्रेय पुरुष को हासिल करानेवाली यह स्त्री इतनी परबस व बेबस है कि अपने अधिकार मांगना तो दूर, इस तरह का विचार भी मन में नहीं ला सकती..
"सुनो!
तुम्हारे पास कैंची हो तो
काट देना इसके पर
फ़िर ये फ़ड़फ़डाएगी नहीं
ज़िंदगी की तलाश में (हरकीरत ’हीर’) हमेशा पर काट दिए जाने को बाध्य इस स्त्री के पास क्या बचा रहता है जिससे कि वह अपनी ज़िंदगी के मायने ढूंढ सके और अपने को पा सके..
"जिनके लिए आज़ादी बस रसोई में कुछ भी
बनाने का काम है(क्षमा सिंह) और यह रसोई जैसे स्त्री के जीवन का स्थायी भाव बना दिया गया है जिसके बाहर उसके लिए कुछ भी करना बेमानी माना जाता है और कभी हिम्मत कर भी ले तो...
"चुप रहो तो चैन नहीं
बोलो तो खैर नहीं( महेश पुनेठा) की स्थिति में अपने को पाती है। स्त्री जो जीवन की संतति की हेतु है जो आनेवाली पीढी की वाहक है...
"गुड़िया सी थी
एक लड़की
बनी वह
एक औरत
और जन्म दिया
एक गुड़िया को" (नीरज दइया) इस गुड़िया के जीवन की क्या विडंबनाएं हैं, अच्छी तरह जानते-समझते हुए भी यह गुड़िया, गुड़िया ही बनी रहती है जीवन भर...
"मगर कौन नहीं जानता कि बंद किवाड़ों के भीतर
यहां नारी को कितना और कैसे पूजा जाता है" (प्रदीप जिलवाने) भीतर के सच बहुत ही भयावह होते हैं और स्त्री का ये सवाल वाज़िब ही है...
"पुरुष और स्त्री के सबंधों का अंतिम आयाम
बिस्तर ही क्यूं?" (ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस)
"मन्नतें मांगना
इंतज़ार करना
प्रसाद चढाना
स्त्री के भाग्य में ही क्यों बदा होता है" (राजेन्द्र शर्मा) सचमुच ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विचारणीय सवाल है, यह स्थिति कितनी दयनीय है कि सदियों से एक स्त्री....
"वन-वन घूमती ढूंढती है सीता पाषाणों में जगह।" (सुमन केशरी) ढूंढने को आज भी विवश दिखायी देती चालीस चोर वाली ज़िंदगी जीनेवाली, ज़िंदगी तलाश करती, आज़ादी का अर्थ रसोई में कुछ भी बनाने का काम है, बोलो तो खैर नहीं, गुड़िया जननेवाली, बंद किवाड़ों के पीछे पूजी जानेवाली, शोषित यथा-स्थिति में ये स्त्रियां अब यथा स्थिति से बाहर निकलने को तत्पर है तभी तो..
"मां-बहन,बुआ, भाभी या पत्नि की तरह नहीं
एक स्त्री की तरह आना तुम जीवन में" (देवयानी भारद्वाज) की चाहना आज भी रखे है और अपने भीतर आत्मविश्वास से सरोबार यह घोषित करने की हिम्मत जुटा पाती है...
"तारीख लाज़वाब हो जाएगी
गर उसने इकठ्ठे कर लिए
सवाल अपने" ( हिमांशु सोनी)
स्त्रियां अपने लिए सजग हो रही है, अपने को तैयार कर रही है अनुगामी स्थिति की छाप से मुक्त होने के लिए। वह अब पहले की तरह निरीह और बेज़ुबान नहीं है, समझ विकसित करती दिखायी दे रही है
"पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिश में लगा है"( कविता वाचक्नवी)
वह हर साजिश का मुकाबला करने को तैयार दिखती है और साधिकार कहती है.....
"ये मेरा दावा है
कि जिसने सबसे ज्यादा प्यार
और सबसे ज्यादा खुशियां दी है तुम्हें
तुम पर निछावर किए हैं
अपने सुख-अपना जीवन
यकीनन कोई स्त्री ही होगी वह।"( कुमार अजय) और अपनी मर्जी से घर से निकलने की हिम्मत कर रही है
"पर आज निकली हूं घर से
अपनी मर्जी के सब फ़ूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का जरूरी सामान है।"( लीना मल्होत्रा) यात्रा का यह जरूरी सामान क्या है, यह देखने और समझने की जरूरत है .......
"जो दमक रहा है मेरी त्वचा के भीतर
उसे सिर्फ़ काली स्याही न समझा जाए" (नीलकमल) यह दंभ नहीं, एक विश्वास है जो अचानक नहीं प्रकटा है, एक लंबी यात्रा, एक लंबा संघर्ष रहा है, कुछ साबित करने के लिए नहीं, उस अहसास को जगाने और समझाने के लिए जो कि उसके अस्तित्त्व का प्राण है....
"स्त्री कभी नहीं चाहती पुरुष होना
अपना अस्तित्त्व खोना
स्त्री
स्त्री ही रहना चाहती है
बस! अपने को कहना चाहती है"(नवनीत पाण्डे) अपने को कहने का यह भाव सात्विक है और इसलिए इस भाव में कहीं कोई कठोरता नहीं, वही कोमलता का वास है जिसकी वजह से उसे कोमलांगी कहा जाता है...
"मैं मुस्करा रही थी कल भी
और मुस्कराउंगी कल भी।" (निशा कुलश्रेष्ठ) यह पवित्र मुस्कान साक्षी है उस विश्वास की जो उसके भीतर जन्मता है और यह गर्वोक्ति कहने का भाव पैदा करता है...
"समय मेरे आस-पास पालतू कुत्ते सा मंडरा रहा था" (रति सक्सेना) अब वह पालतू, अनुगामिनी न होकर एक मित्रता का रिश्ता और अधिकार चाहती है तभी तो उसकी सोच वहां उसे वहां ले जाती है जहां वह अपने आप से प्रश्न करने को बाध्य हो जाती है....
"टूटता है सपना
सोचती है स्त्री
क्यों होता है उसकी आंखों का सपना
फ़िर-फ़िर वही पुरुष
जिसकी हकीकत वह जानती है
सपनों से ठगी गयी स्त्री
सुबह होते ही चल पड़ती है
फ़िर अपने मोर्चे पर"(रंजना जायसवाल)
"उम्र के आखिरी पड़ाव में
उसे पता चला
पति, परमेश्वर नहीं है
परमेश्वर वह भी नहीं है
जिसका धर्मग्रंथों में उल्लेख है" (सीमांत सोहेल)
इसी कशमकश और जद्दोज़हद के भंवर में फ़ंसी यह स्त्री एक दिलासा का भाव मन में संजोए अपने को संबल देती दिखती है...
"एक दिन तो मेरे बिखरे वजूद को
पहचान अपनी मिल जाएगी
आंखों में आजादी के प्रतिबिम्ब को
यह दुनिया समझ और देख पाएगी" (रंजना"रंजू"भाटिया) इसी विश्वास से भरी ये स्त्रियां अपनी इस कोशिश को यथार्थ में परिणीत करने को तत्पर हैं....
"वे मुक्त हो रही थीं
इस तरह इतिहास की अंधी सुरंगों के बाहर
वे मनुष्य बनने की कठिन यात्रा कर रही थीं।"
"एक अंतहीन लड़ाई
एक दिन जीत जाने के विश्वास
और एक संकल्प के साथ
और एक दिन खूब-खूब हंसना था
सिर्फ़ उनके लिए
और उनके समर्थन में..।" (विमलेश त्रिपाठी)
कुछ कविताएं गहन अनुभूतियों के बावजूद अभिव्यक्ति में अपने चरम तक नहीं पहुंच पाती, ऊपरी स्तर पर एक बिम्ब बनते-बनते बिखरती हुयी लगती है, बावजूद इसके कई कविताओं में कई पंक्तियां बहुत ही भीतर से निकली हुयी महसूस होती है..स्त्री होकर सवाल करती है संग्रह पढते हुए एक बात और ध्यान में आयी कि इन कविताओं में मौजुद अधिकांश स्त्रियों के केन्द्र में मध्यम व कामकाजी वर्ग की सक्रिय स्त्री है, समाज में उपेक्षित, निरक्षर, वंचित, सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाली स्त्रियां बहुत कम है, उस स्त्री को जानने-समझने की कोशिश लगभग न के बराबर है जबकि असल नारकीय और पीड़ा भोगनेवाली स्त्री शायद हमारे देश में वही सबसे अधिक है और यह बात भी गौर करनेवाली है कि उनके लिए पति परमेश्वर ही है। आरक्षण ने उन्हें पद जरूर दे दिए हैं लेकिन उस पद के सारे भार उनके पति ही उठाए हैं, वे आज भी एक अंगूठा ही है। इसी प्रकार गांव की यह स्त्री आज भी अपना सुख, अपने परिवार के सुख में ही देखती है।
भाषा में शुध्दता की अपेक्षा हर साहित्यिक कृति से की जाती है पर लाख चाहने के बावजूद कहीं न कहीं अशुध्दि रह ही जाती है, वैसे भी इतने अधिक पृष्ठों में यह अस्वाभाविक नहीं। बावजूद इसके मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि ’स्त्री होकर सवाल करती है" संग्रह अपने समय का स्त्री विषयक कविताओं का एक ऎतिहासिक दस्तावेज़ है जिसके लिए कवि-प्रकाशक मायामृग और बोधि प्रकाशन दोनों ही बधाई के पात्र हैं। जिस तरह उन्होंने स्त्री विषय को इतनी खूबी से सफ़लता पूर्वक सहेजा है, आशा की जानी चाहिए कि जीवन व्यापार के ऎसे ही कुछ और प्रखर विषय जैसे प्रेम आदि के लिए भी इस प्रकार साहस दिखाएंगे.. संग्रह की संपादक डा.लक्ष्मी शर्मा जिन्होंने बहुत मेहनत और पैनी दृष्टि से इस संग्रह में संकलित कविताओं के आधार पर जो भूमिका लिखी है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, मैं अपनी बात उन्हीं की विश्वासभरी इन पंक्तियों से समाप्त करता हूं "यह संग्रह अपने समग्र में एक स्वस्तिमयी आश्वस्ति देता है। इससे स्त्री-स्वर को एक और नवीन वाणी मिली है। ये संग्रह एक अधिक मुक्त स्त्री का सशक्त स्वर है।" (भूमिका-संपादक-डा.लक्ष्मी शर्मा)
-नवनीत पाण्डे
आपकी बेबाक और निष्पक्ष समीक्षा ने आज इस पुस्तक को एक और नया आयाम दे दिया है और हम सब को उत्साहित किया है जो आने वाले कल मे नये प्रतिमान स्थापित करेगा।
निश्चय ही प्रभावी...!
meri poem...page no 317 par hai...aap sab kya kahte hai,,,us par,,,,
बहुत सही समीक्षा ..इसका किताब का शीर्षक ही बहुत बढ़िया है और पढ़ते पढ़ते कई तरह के और सवाल दे जाता है ...शुक्रिया
नवनीत जी आपकी पारखी नज़र ने वह बहुत कुछ देख लिया है जो देखे जाने योग्य है...नए रचनाकारों को आपके शब्दों से बहुत उत्साह मिलेगा, विश्वास है। संग्रह के गंभीर अध्ययन और विस्तृत चर्चा के लिए आभार....