मित्रो! पाठकनामा में प्रस्तुत है आज राजस्थानी-हिन्दी के कवि-कथाकार-उपन्यासकार प्रमोद कुमार शर्मा के हिन्दी में प्रकाशित नए कविता संग्रह ’कोसों दूर’ पर डा. मदनगोपाल लढ्ढा का समीक्षात्मक डिस्पेच..
कोसों दूर/ प्रमोद कुमार शर्मा
प्रेम, स्त्री व प्रकृति की कविताएं- डा. मदन गोपाल लढ़ा
प्रमोद कुमार शर्मा को काव्य-संग्रह की पूर्व पीठिका रचना नहीं रूचता और मुझे कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी गैर जरूरी लगती है। कविता लिखी नहीं जाती बल्कि उतरती है वहीं उनके तन्मयतापूर्ण पाठ से ही कवि के काव्यात्मक सरोकारों को महसूस किया जा सकता है। इसके बावजूद प्रमोद जी ने किताब की भूमिका के रूप में अपनी बात लिखी है और मैं परख के बहाने आपको इस संग्रह से रुबरू करवाने के लिए यहाँ उपस्थित हूँ। मगर मेरा स्पष्ट मत है कि कविता न तो व्याख्या की विषय-वस्तु है, न ही शुष्क समीक्षा की। वह तो ‘गूंगे का गुड़’ है जिसका स्वाद पाने के लिए आपको कवि की काव्य-यात्रा से गुजरना ही होगा। मुझे पूरा यकीन है कि इस सफर के बाद आप खुद को भाव व विचार के लिहाज से अधिक समृद्ध पाएंगे।
यहाँ मेरा अभिप्राय आलोचना की सार्थकता पर प्रश्न-चिह्न लगाना नहीं है। आलोचना असल में रचना की हिमायत ही है। आलोचना का काम रचना को खोल कर उसकी बहुस्तरीय अर्थ-छवियों से पाठकों को परिचित करवाना है। स्वयं कवि ने आलोचकों से अपना मूल्यांकन जनपद के सामने रखने का विनम्र निवेदन किया है। मगर दिक्कत वहाँ आती है जहाँ हर आलोचक एक रचनाकार से अपने मन की रचना लिखवाना चाहता हूँ। अब जबकि रचना, खासकर कविता लिखना तो स्वयं कवि के हाथ में भी नहीं, तब सहमति -असहमति से लेकर स्थापना व खारिज करने की मुद्राएं सामने आने लगती है। इधर साहित्य में पंख पसारते बाजारवादी प्रपंचों के चलते प्रायोजित आलोचना के छल-छद्म भी देखने को मिलना नई बात नहीं रही। अब ऐसे दौर में प्रमोद कुमार शर्मा जैसे संवेदनशील रचनाकार को अनदेखा किया जाना अंचभे की बात नहीं। अपनी दो दशकों से भी लम्बी साहित्यिक यात्रा में दहाई के आंकड़े को पार करती किताबों के बाद प्रमोद ने यह सत्य तो पा लिया कि ‘मनुष्य को मनुष्य के और ज्यादा विरूद्ध खड़ा नहीं किया जा सकता। उसे अमर अखण्डता की आवश्यकता है जो विचार से नहीं-भावात्मक एकता से संभव है।’ मगर उस सत्य का क्या करें , जिसमें आदमी इस फिराक में है कि आईने में भी अपने चेहरे को मन-मुताबिक देखना संभव हो सकें।
बहरहाल बात ‘कोसों दूर’ की, जिसके सवा सौ से ज्यादा पृष्ठों में कवि की कोसों लम्बी काव्य-यात्रा के कई पडाव देखे जा सकते हैं। प्रमोद के लिए भले ही कविता का मतलब ‘अपने समय के भीतर वेद की ध्वनियां ’ हों मगर मुझ जैसे नादान पाठक, जो अब तक वेदों की अथाह ज्ञान राशि से लगभग अनजान हैं, इन कविताओं में अपने समय की धड़कन को ही सुन पाते हैं। प्रेम, स्त्री व प्रकृति प्रमोद की कविता के केन्द्र में है मगर वे इनको लेकर कोई नारा गढने अथवा फतवा जारी करने की जल्दबाजी में नहीं है। वरन उनका प्रश्नाकुल मन चीजों को उलट-पुलट कर उनके सच्चे रूप की खोज की ईमानदार कोशिश करता नजर आता है। बस यहीं पर आकर मैं बतौर पाठक उनकी कविताओं का फेन हो जाता हंू।
प्रमोद की कविताओं को फलक व्यापक है। उनका कवि वक्त की रफ्तार से पीछे छूट गई चीजों को बारीकी से पकड़ता है। इसे उनकी काव्य-दृष्टि के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। ‘सच तो ये है’ से अपनी कविता यात्रा की शुरुआत करने वाला कवि ‘कोसों दूर’ तक आते-आते क्रांति के सूक्ष्म गूढार्थों का अभिप्राय समझने लगता है। व्युत्पŸिा व अभ्यास के कारण उनकी काव्य प्रतिभा एक मुकाम तक पहुंच पाई है जिसके लिए निश्चय ही कवि बधाई का हकदार है।
प्रमोद की कविता की एक अन्य खासियत है उनकी कविताओं के अलग-अलग तेवर। एक ओर वे आज के जटिल जीवन की संवेदना की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति करते हैं तो वहीं कई कविताओं के अनगढ रचाव में जनपक्ष की मुखर अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है। कभी -कभार तो प्रमोद जी अपनी दार्शनिक अनुभूतियों के आवेग में अमूर्तता की ओर बढ़ने लगते हैं जहां उन तक पहुंच पाना मेरे जैसे साधारण पाठक की रेन्ज से बाहर भी चला जाता है।
अब जरा कविताओं की बात करें तो प्रेम का भाव कवि का मूल स्वर है। इसी प्रेम के वशीभूत कवि ‘तुम्हारी आंखों में छुपी/प्रेम की परिभाषा में (वह आवाज तुम्हारी, पृ.77) डूब जाता है।
कवि की यह बात वजनदार है कि ‘हे दुनिया के बहादुर हत्यारों!/हे दुनिया के विजेताओं!/तुम सब नहीं कर सकते प्रेम/यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजा है।’ (सबसे बड़ी सजा, पृ.36) प्रेम ही तो वह ताकत है जिसमें हंसी की स्मृति भी वजनदार लगती है। प्रेम में ही ‘मूसलाधार बारिश’ में किसी की याद आती है। कवि का कहना है कि प्रेम के लिए ऊंचे दरख्त, पहाड़ या झरने का होना जरूरी नहीं बल्कि ‘उसके लिए तो पर्याप्त है/सिर्फ तुम्हारा होना।’ (तुम्हारा होना, पृ. 14) प्रमोद कुमार शर्मा के मुताबिक ‘जन्म-जन्मान्तर का समय/लगता है परमेश्वर को/तब कहीं जाकर बनती है/ एक प्रेम कथा ’(प्रेम कथा, पृ.115) प्रेम में पगी प्रमोद जी की कविताएं पाठक को अपनी भाव धारा में बहा ले जाती है मगर खटकता है तो सिर्फ देह के प्रति उनका उपेक्षा का भाव। मसलन प्रमोद के मुताविब ‘यह जो मेरी देह है/यही सबसे बड़ी कारा है’ (कारागृह ,पृ.15) शरीर को शाश्वत दुःखालय कहने वाले प्रमोद कहते हैं, ‘नहीं-मुझे शरीर नहीं होना/मुझे शब्द होना है। (मुझे नहीं होना शरीर, पृ. 54) देह को स्थायी विकार मानते हुए उसके निषेध का यह भाव मध्यकालीन मानसिकता की अभिव्यक्ति नहीं तो भला क्या है। इसके ठीक विपरीत वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी के शब्दों में ‘दुनिया जानने के लिए शरीर को ही जानते है हम/देहातीत प्रेतात्माओं के लिए नहीं बनी है पृथ्वी।’
‘मेरी देह के वास्तुशिल्प का/ करो रहस्योद्घाटन/ नई-नई भंगिमाओं मे!/ करो कि तुम ने-/ अपनी जानी गई भाषा में/ यहीं सीखा है मेरे लिए! ’ यह अंश है संग्रह की ‘बोली वह स्त्री ’ कविता का। स्त्री विमर्श को लेकर बगैर किसी शोर-शराबे के कवि नारी मन की आकांक्षाओं व अवरोधों की सशक्त व सार्थक अभिव्यक्ति करने में सफल हुआ है। सवाल उठता है कि क्या भाषा यह छल करती है? नहीं कसूर भाषा का नहीं , उसे तो वही अर्थ वहन करने होते हैं जो हमारी सोच व संस्कारों में है। अब जरा इस तरफ गौर फरमाएं- पति छोड़ दे तो परित्यक्ता मगर पत्नी छोड़ दे तब परित्यक्त क्यों नहीं ? पत्नी तो धर्मपत्नी मगर पति धर्मपति क्यों नहीं? अब जरा स्त्री के धैर्य केा भी जानिए। क्रोध में गन्दी गालियां बकते पति को पत्नी ‘कहती रही भयातुर/विनम्रता के साथ/ आहिस्ता बोलिए। आहिस्ता।’ (युद्ध , पृ. 23)
स्त्री के कई रूप इस किताब में है।। उनके शब्दों में ‘मां के बहुत सारे दुख हैं/ कुछ गिन सकता हूं मैं/ कुछ दस जन्मों तक भी नहीं ।’ (मां के दुख, पृ. 9) सचमुच मां स्वयं ईश्वर है। बीड़ी के बण्डल में स्त्री का केश देखकर प्रमोद जैसा हुनरमंद कवि ही सोच सकता है कि ‘पौंछा होगा उसने अपने/चूड़ी भरे हाथों से/ माथे का पसीना/ और केश टूटकर गिर पड़ा होगा/ पŸाों के बीच कहीं।’ (चूडि़यों के लिए , पृ. 16)
इन कविताओं में हमारे आस-पास की प्रकृति व परिवेश की भी सहज अभिव्यक्ति हुई है। यहां कभी कवि फूल तोड़ती बच्चियों को देखकर प्रार्थना करता है- ‘हे परमात्मा!/ जब तक जीवित रहूं/रोज फूल देखंू-/रोज फूलों जैसी बच्चियां देखूं!’(बच्चियां और फूल, पृ. 57) तो कभी काली चिडि़या से आग्रह करता है - ‘ तुम रोज आया करो-क्षितिज के पार से / और सहलाया करो/ उपने जादुई पंखों से/ आंखे-/ जिनमें रोज ही उतर आता है जहर/ ऊपर से शहर! ’(काली चिडि़या, पृ. 48)
ऊँट तुम्हारी अलौकिकता शीर्षक से एक चित्र भी देखिए- ‘बेशक -/ ऊँट मोहताज नहीं जल का / फिर भी अन्ततः / मित्रों!/ अगर सीखना हो सम्मान जल का/ तो सीखना ऊँट से ।’ (पृ. 62)
‘शहर के बाजार में’ कविता बाजारवाद के खतरों से आगाह करती है। गोबर पुते चूल्हे से कुछ अंगारें चुरा कर शक्करगंदी सेक कर खाने बिम्ब अपनी जड़ों को टटोलने जैसा है। इस कविता के अंत में कवि बच्चों से आग्रह करता है-‘बूरना आग में शक्करगंदी/ फिर उसकी जली हुई/ चिट्टेनुमा राख भरी/ चमड़ी उतारते हुए खाना/ मीठा-मीठा गर्म लुगदा/ और सोचना खाते हुए-/क्या-क्या भूल गए है-/हम शहर के बाजार में!’(पृ. 46) रेडियों को लेकर भी इस संग्रह में कुछ खूबसूरत कविताएं शामिल की गई है।
इसमें संदेह नहीं कि प्रमोद कुमार शर्मा की कविताओं का यह संग्रह पाठक को अलग अनुभव से गुजारता है। संग्रह की अनेक कविताएं कथा व शिल्प के स्तर पर इतनी सशक्त है कि समय के साथ उनकी ख्याति दूर तक जाएगी। हालांकि किताब की कुछेक कविताओं के रूप में कोरी प्रतिक्रिया खटकती भी है। ( माधुरी दीक्षित, बुद्धू बक्शा आदि) कथात्मकता के गुण-दोषों के बीच कुछ कविताओं के परिमार्जन के साथ चयन में निर्ममता की जरूरत को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस किताब में चार ऐसी कविताएं भी शामिल की गई है जो उनके राजस्थानी कविता संग्रह ‘बोली तूं सुरतां’ में आ चुकी है। इससे मुझ जैसे पाठक के सामने यह भ्रम पैदा हो जाता है कि कौनसी मूल है और कौनसी अनुवाद।
इसके बावजूद मुझे यह कहने में किंचित भी हिचक नहीं है कि प्रमोद कुमार शर्मा ने अपना अलग मुहावरा रचा है। उनके यहां तथाकथित बड़े नामों की तरह शब्दों को उलटा लिख कर या फिर कविता में गणित के सूत्र ठूंस कर चमत्कार पैदा करने की कोशिश नहीं है बल्कि उनका कवि पूरी निष्ठा से वक्त की नब्ज पकड़कर अपने सत्य को साधने के लिए समर्पित है। और अंत में रेडियो वालों को जल्दी खुदा मिलने का तो मुझे पता नहीं मगर मैं प्रमोद जी की इस बात से सोलह आना सहमत हूँ कि ‘रख दो-/कुछ गमले, कुछ शब्द, कुछ सपने/ वे अपने -आप तुम्हें ले जाएंगे करीब/ उन सब चीजों के-/ जिनसे तुम्हें कर दिया गया है दूर!’
प्रेम, स्त्री व प्रकृति की कविताएं- डा. मदन गोपाल लढ़ा
प्रमोद कुमार शर्मा को काव्य-संग्रह की पूर्व पीठिका रचना नहीं रूचता और मुझे कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी गैर जरूरी लगती है। कविता लिखी नहीं जाती बल्कि उतरती है वहीं उनके तन्मयतापूर्ण पाठ से ही कवि के काव्यात्मक सरोकारों को महसूस किया जा सकता है। इसके बावजूद प्रमोद जी ने किताब की भूमिका के रूप में अपनी बात लिखी है और मैं परख के बहाने आपको इस संग्रह से रुबरू करवाने के लिए यहाँ उपस्थित हूँ। मगर मेरा स्पष्ट मत है कि कविता न तो व्याख्या की विषय-वस्तु है, न ही शुष्क समीक्षा की। वह तो ‘गूंगे का गुड़’ है जिसका स्वाद पाने के लिए आपको कवि की काव्य-यात्रा से गुजरना ही होगा। मुझे पूरा यकीन है कि इस सफर के बाद आप खुद को भाव व विचार के लिहाज से अधिक समृद्ध पाएंगे।
यहाँ मेरा अभिप्राय आलोचना की सार्थकता पर प्रश्न-चिह्न लगाना नहीं है। आलोचना असल में रचना की हिमायत ही है। आलोचना का काम रचना को खोल कर उसकी बहुस्तरीय अर्थ-छवियों से पाठकों को परिचित करवाना है। स्वयं कवि ने आलोचकों से अपना मूल्यांकन जनपद के सामने रखने का विनम्र निवेदन किया है। मगर दिक्कत वहाँ आती है जहाँ हर आलोचक एक रचनाकार से अपने मन की रचना लिखवाना चाहता हूँ। अब जबकि रचना, खासकर कविता लिखना तो स्वयं कवि के हाथ में भी नहीं, तब सहमति -असहमति से लेकर स्थापना व खारिज करने की मुद्राएं सामने आने लगती है। इधर साहित्य में पंख पसारते बाजारवादी प्रपंचों के चलते प्रायोजित आलोचना के छल-छद्म भी देखने को मिलना नई बात नहीं रही। अब ऐसे दौर में प्रमोद कुमार शर्मा जैसे संवेदनशील रचनाकार को अनदेखा किया जाना अंचभे की बात नहीं। अपनी दो दशकों से भी लम्बी साहित्यिक यात्रा में दहाई के आंकड़े को पार करती किताबों के बाद प्रमोद ने यह सत्य तो पा लिया कि ‘मनुष्य को मनुष्य के और ज्यादा विरूद्ध खड़ा नहीं किया जा सकता। उसे अमर अखण्डता की आवश्यकता है जो विचार से नहीं-भावात्मक एकता से संभव है।’ मगर उस सत्य का क्या करें , जिसमें आदमी इस फिराक में है कि आईने में भी अपने चेहरे को मन-मुताबिक देखना संभव हो सकें।
बहरहाल बात ‘कोसों दूर’ की, जिसके सवा सौ से ज्यादा पृष्ठों में कवि की कोसों लम्बी काव्य-यात्रा के कई पडाव देखे जा सकते हैं। प्रमोद के लिए भले ही कविता का मतलब ‘अपने समय के भीतर वेद की ध्वनियां ’ हों मगर मुझ जैसे नादान पाठक, जो अब तक वेदों की अथाह ज्ञान राशि से लगभग अनजान हैं, इन कविताओं में अपने समय की धड़कन को ही सुन पाते हैं। प्रेम, स्त्री व प्रकृति प्रमोद की कविता के केन्द्र में है मगर वे इनको लेकर कोई नारा गढने अथवा फतवा जारी करने की जल्दबाजी में नहीं है। वरन उनका प्रश्नाकुल मन चीजों को उलट-पुलट कर उनके सच्चे रूप की खोज की ईमानदार कोशिश करता नजर आता है। बस यहीं पर आकर मैं बतौर पाठक उनकी कविताओं का फेन हो जाता हंू।
प्रमोद की कविताओं को फलक व्यापक है। उनका कवि वक्त की रफ्तार से पीछे छूट गई चीजों को बारीकी से पकड़ता है। इसे उनकी काव्य-दृष्टि के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। ‘सच तो ये है’ से अपनी कविता यात्रा की शुरुआत करने वाला कवि ‘कोसों दूर’ तक आते-आते क्रांति के सूक्ष्म गूढार्थों का अभिप्राय समझने लगता है। व्युत्पŸिा व अभ्यास के कारण उनकी काव्य प्रतिभा एक मुकाम तक पहुंच पाई है जिसके लिए निश्चय ही कवि बधाई का हकदार है।
प्रमोद की कविता की एक अन्य खासियत है उनकी कविताओं के अलग-अलग तेवर। एक ओर वे आज के जटिल जीवन की संवेदना की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति करते हैं तो वहीं कई कविताओं के अनगढ रचाव में जनपक्ष की मुखर अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है। कभी -कभार तो प्रमोद जी अपनी दार्शनिक अनुभूतियों के आवेग में अमूर्तता की ओर बढ़ने लगते हैं जहां उन तक पहुंच पाना मेरे जैसे साधारण पाठक की रेन्ज से बाहर भी चला जाता है।
अब जरा कविताओं की बात करें तो प्रेम का भाव कवि का मूल स्वर है। इसी प्रेम के वशीभूत कवि ‘तुम्हारी आंखों में छुपी/प्रेम की परिभाषा में (वह आवाज तुम्हारी, पृ.77) डूब जाता है।
कवि की यह बात वजनदार है कि ‘हे दुनिया के बहादुर हत्यारों!/हे दुनिया के विजेताओं!/तुम सब नहीं कर सकते प्रेम/यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजा है।’ (सबसे बड़ी सजा, पृ.36) प्रेम ही तो वह ताकत है जिसमें हंसी की स्मृति भी वजनदार लगती है। प्रेम में ही ‘मूसलाधार बारिश’ में किसी की याद आती है। कवि का कहना है कि प्रेम के लिए ऊंचे दरख्त, पहाड़ या झरने का होना जरूरी नहीं बल्कि ‘उसके लिए तो पर्याप्त है/सिर्फ तुम्हारा होना।’ (तुम्हारा होना, पृ. 14) प्रमोद कुमार शर्मा के मुताबिक ‘जन्म-जन्मान्तर का समय/लगता है परमेश्वर को/तब कहीं जाकर बनती है/ एक प्रेम कथा ’(प्रेम कथा, पृ.115) प्रेम में पगी प्रमोद जी की कविताएं पाठक को अपनी भाव धारा में बहा ले जाती है मगर खटकता है तो सिर्फ देह के प्रति उनका उपेक्षा का भाव। मसलन प्रमोद के मुताविब ‘यह जो मेरी देह है/यही सबसे बड़ी कारा है’ (कारागृह ,पृ.15) शरीर को शाश्वत दुःखालय कहने वाले प्रमोद कहते हैं, ‘नहीं-मुझे शरीर नहीं होना/मुझे शब्द होना है। (मुझे नहीं होना शरीर, पृ. 54) देह को स्थायी विकार मानते हुए उसके निषेध का यह भाव मध्यकालीन मानसिकता की अभिव्यक्ति नहीं तो भला क्या है। इसके ठीक विपरीत वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी के शब्दों में ‘दुनिया जानने के लिए शरीर को ही जानते है हम/देहातीत प्रेतात्माओं के लिए नहीं बनी है पृथ्वी।’
‘मेरी देह के वास्तुशिल्प का/ करो रहस्योद्घाटन/ नई-नई भंगिमाओं मे!/ करो कि तुम ने-/ अपनी जानी गई भाषा में/ यहीं सीखा है मेरे लिए! ’ यह अंश है संग्रह की ‘बोली वह स्त्री ’ कविता का। स्त्री विमर्श को लेकर बगैर किसी शोर-शराबे के कवि नारी मन की आकांक्षाओं व अवरोधों की सशक्त व सार्थक अभिव्यक्ति करने में सफल हुआ है। सवाल उठता है कि क्या भाषा यह छल करती है? नहीं कसूर भाषा का नहीं , उसे तो वही अर्थ वहन करने होते हैं जो हमारी सोच व संस्कारों में है। अब जरा इस तरफ गौर फरमाएं- पति छोड़ दे तो परित्यक्ता मगर पत्नी छोड़ दे तब परित्यक्त क्यों नहीं ? पत्नी तो धर्मपत्नी मगर पति धर्मपति क्यों नहीं? अब जरा स्त्री के धैर्य केा भी जानिए। क्रोध में गन्दी गालियां बकते पति को पत्नी ‘कहती रही भयातुर/विनम्रता के साथ/ आहिस्ता बोलिए। आहिस्ता।’ (युद्ध , पृ. 23)
स्त्री के कई रूप इस किताब में है।। उनके शब्दों में ‘मां के बहुत सारे दुख हैं/ कुछ गिन सकता हूं मैं/ कुछ दस जन्मों तक भी नहीं ।’ (मां के दुख, पृ. 9) सचमुच मां स्वयं ईश्वर है। बीड़ी के बण्डल में स्त्री का केश देखकर प्रमोद जैसा हुनरमंद कवि ही सोच सकता है कि ‘पौंछा होगा उसने अपने/चूड़ी भरे हाथों से/ माथे का पसीना/ और केश टूटकर गिर पड़ा होगा/ पŸाों के बीच कहीं।’ (चूडि़यों के लिए , पृ. 16)
इन कविताओं में हमारे आस-पास की प्रकृति व परिवेश की भी सहज अभिव्यक्ति हुई है। यहां कभी कवि फूल तोड़ती बच्चियों को देखकर प्रार्थना करता है- ‘हे परमात्मा!/ जब तक जीवित रहूं/रोज फूल देखंू-/रोज फूलों जैसी बच्चियां देखूं!’(बच्चियां और फूल, पृ. 57) तो कभी काली चिडि़या से आग्रह करता है - ‘ तुम रोज आया करो-क्षितिज के पार से / और सहलाया करो/ उपने जादुई पंखों से/ आंखे-/ जिनमें रोज ही उतर आता है जहर/ ऊपर से शहर! ’(काली चिडि़या, पृ. 48)
ऊँट तुम्हारी अलौकिकता शीर्षक से एक चित्र भी देखिए- ‘बेशक -/ ऊँट मोहताज नहीं जल का / फिर भी अन्ततः / मित्रों!/ अगर सीखना हो सम्मान जल का/ तो सीखना ऊँट से ।’ (पृ. 62)
‘शहर के बाजार में’ कविता बाजारवाद के खतरों से आगाह करती है। गोबर पुते चूल्हे से कुछ अंगारें चुरा कर शक्करगंदी सेक कर खाने बिम्ब अपनी जड़ों को टटोलने जैसा है। इस कविता के अंत में कवि बच्चों से आग्रह करता है-‘बूरना आग में शक्करगंदी/ फिर उसकी जली हुई/ चिट्टेनुमा राख भरी/ चमड़ी उतारते हुए खाना/ मीठा-मीठा गर्म लुगदा/ और सोचना खाते हुए-/क्या-क्या भूल गए है-/हम शहर के बाजार में!’(पृ. 46) रेडियों को लेकर भी इस संग्रह में कुछ खूबसूरत कविताएं शामिल की गई है।
इसमें संदेह नहीं कि प्रमोद कुमार शर्मा की कविताओं का यह संग्रह पाठक को अलग अनुभव से गुजारता है। संग्रह की अनेक कविताएं कथा व शिल्प के स्तर पर इतनी सशक्त है कि समय के साथ उनकी ख्याति दूर तक जाएगी। हालांकि किताब की कुछेक कविताओं के रूप में कोरी प्रतिक्रिया खटकती भी है। ( माधुरी दीक्षित, बुद्धू बक्शा आदि) कथात्मकता के गुण-दोषों के बीच कुछ कविताओं के परिमार्जन के साथ चयन में निर्ममता की जरूरत को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस किताब में चार ऐसी कविताएं भी शामिल की गई है जो उनके राजस्थानी कविता संग्रह ‘बोली तूं सुरतां’ में आ चुकी है। इससे मुझ जैसे पाठक के सामने यह भ्रम पैदा हो जाता है कि कौनसी मूल है और कौनसी अनुवाद।
इसके बावजूद मुझे यह कहने में किंचित भी हिचक नहीं है कि प्रमोद कुमार शर्मा ने अपना अलग मुहावरा रचा है। उनके यहां तथाकथित बड़े नामों की तरह शब्दों को उलटा लिख कर या फिर कविता में गणित के सूत्र ठूंस कर चमत्कार पैदा करने की कोशिश नहीं है बल्कि उनका कवि पूरी निष्ठा से वक्त की नब्ज पकड़कर अपने सत्य को साधने के लिए समर्पित है। और अंत में रेडियो वालों को जल्दी खुदा मिलने का तो मुझे पता नहीं मगर मैं प्रमोद जी की इस बात से सोलह आना सहमत हूँ कि ‘रख दो-/कुछ गमले, कुछ शब्द, कुछ सपने/ वे अपने -आप तुम्हें ले जाएंगे करीब/ उन सब चीजों के-/ जिनसे तुम्हें कर दिया गया है दूर!’
-डा. मदन गोपाल लढ़ा
बहुत सुन्दर समीक्षा की है।
सुँदर
बढ़िया समीक्षा