मित्रो! आज पाठकनामा में आपके सामने हैं युवा कवि सुरेंद्र डी.सोनी की कविता किताब ’मैं एक हरिण और तुम इंसान’ पर वरिष्ठ कवि- आलोचक मायामृग (भूमिका) और- डॉ. मंजु शर्मा का आलोचनात्मक आलेख
हरिण-मन की दौड़ की कविता -मायामृग
हरिण दौड़ता है...कभी बेलाग...कभी बेतहाशा..। कभी कुलांचे भरता अपनी मौज में, कभी प्राण बचाने को प्राण निचोड़कर पैरों में लिए हुए..। दौड़ना उसकी नियति है, विवशता भी, आनंद भी और व्यथा भी....। इंसान हरिण-मन की इस दौड़ को अलग- अलग समय में अलग-अलग तरह से देखता और समझता है। सुरेन्द्र डी सोनी की कविता इसी दौड़ की कविता है। उनके अपने मन की कविता - जिसे मन से कहा गया, मन में रचा गया। कविता के होने और बचे रहने की चिन्ता से शुरु करके कवि जीवन की उन तमाम गलियों में टेर लगाता आया है, जहां भी उसके मन का हरिण उसे ले जाता है अपने पीछे-पीछे। जीवन से भरपूर गलियां हैं कहीं, …सूखे कुंए-बावड़ी और कीचड़ भरे रास्ते भी हैं यहां...! कवि किसी से बचता नहीं, किसी से कन्नी नहीं काटता...! जीवन का हर वह रुप जो कवि को दिखता है, वह उसे निहारता है, उसे स्वीकार करता है और सतत अपना बनाते जाने की प्रक्रिया के बाद व्यक्त कर देता है। इस क्रम में कितने ही अप्रिय क्षण आते हैं, जिन्हें कहना अपनी ही निजता को उधेड़ना है, पर सुरेन्द्र इसे इस सहजता से कह देते हैं बिना किसी विचलन के...! यह सहजता सायास गढ़ी नहीं जा सकती, इसीलिए कवि के भीतर की हलचल पूरी ईमानदारी से शब्दों में आ जाती है।
रचनाकार यह भी जानता है कि अनुभूति जब अभिव्यक्ति के स्तर पर आती है तो उसके अर्थ खो बैठने का खतरा कम नहीं है। काग़ज़ उनकी बात का कफ़न ना बने, कहीं उसके भीतर का तूफान काग़ज़ पर आकर दम ना तोड़ दे। यह अभिव्यक्ति की चिन्ता मात्र नहीं है, उस गहरे संकट का वक्तव्य भी है जो मौजूदा समय में कविता के पूरे परिदृश्य में छाया हुआ है। कविता कब संकट में आती है, यह जानना तभी संभव है जब कविता के सरोकार साफ़ हों। सुरेन्द्र डी सोनी निजी पीड़ाओं के कवि नहीं हैं, वह निजी पीड़ा के बहाने पूरे सामाजिक ताने-बाने को टटोलते हैं। दाम्पत्य के बीच दरकते विश्वास को संकेतों मे कहते हैं। कभी बरसों पुराने राज़ भी भरी अदालत खोल देते हैं-
जज साहब ने कहा
सबूत लाओ -
दोनों के वकीलों ने
चाबियां निकाल-निकालकर
जज साहब की मेज पर रख दीं...।
...इस तरह संबंधों के सारे समीकरण सुलझे भी तो एक नए उलझाव के साथ। यह उलझाव कवि का असमंजस नहीं, समाज की विडम्बना है जो किसी एक निर्णय के साथ खत्म नहीं होती, बल्कि एक स्तर पर मिटाई जाकर, अनेक स्तरों पर शुरु हो जाती है। यही वजह है कि रचनाकार अपने लिखने का गिनाना नहीं भूलता-
हां लिखता हूं
इस दिल की बेचैनी को
कभी बुझाने के लिए
कभी भड़काने के लिए...।
दिल की बेचैनी सिर्फ सामाजिक रिश्तों के बिखरने तक सीमित नहीं, वह जीवनानुभूतियों के विस्तार में उन सबसे प्रभावित है - जिसमें प्रेम है, मित्रता है, स्त्री का मन है और सभ्यता के वे सब पड़ाव हैं, जहां आकर वह हमेशा या कि कहें बार-बार ठिठक जाती है। संस्कृति और सभ्यता के बीच की टकराहट बहुत स्थूल नहीं है। इसलिए कविताओं में
यह दो पंक्तियों के बीच की खाली जगह में पढ़ी जा सकती है-
ओह! गाड़ी तो
बहुत लेट है –
भीड़ से दूर जाकर
नए दोस्त बनाएं
अगर चल रहा नेट है
नए युग ने वह सब बनाया, वह सब दिया जो दूरियां मिटा दे, ..और वह सब पैदा किया जो दूरियों पर ही टिका है...! एक ओर से लकीर बनाते जाने और दूसरी ओर से मिटाते चलने की यह यात्रा कहां जाकर ठहरेगी, कहना मुश्किल है। नेट पर हजारों-हजारों नए दोस्त बन गए, ...और जहां जिस घर में साथ थे हम एक परिवार के लोग...! उनके बीच भींतें खड़ी हो गईं। हर दीवार इन्सानियत का बंटवारा है, हर दीवार एक वक्तव्य है नई दुनिया के भीतर की सच्चाई को परत दर परत खोलता। सुरेन्द्र डी. सोनी का कवि पुराने और नए के द्वन्द्व को पहचानकर चुप नहीं रहता, उसे आवाज़ देता है, खोलता है और बदलने की चुनौती देता है-
मशीन
तुम्हें सिखा रही होगी
जीना –
मैं तो इसमें
मरने की
सहूलियत देखता हूं।
भोला है कवि का मन...! भोला न होता तो भला कवि-मन कैसे होता...! हरिण जैसा मन...! दौड़ता है पर हमेशा मरीचिका में नहीं...! कभी-कभी सयाना होकर भी...! अभयारण्य भी उसे अभयदान नहीं दे सकते, ...तो दौड़ने के सिवा उसके पास विकल्प है ही कहां..। यह विकल्पहीनता हर उस व्यक्ति का हश्र है जो मौजूदा व्यवस्था का भ्रष्ट अंग होना स्वीकार नहीं कर रहा..। अपने ग्राम्य जीवन की सहजता से परे होकर थोपी गई महानगरीय चाल को झेलता हुआ व्यक्ति कहां से चला है, यह तो जानता है, अपनी जड़ें वह भूला नहीं है, लेकिन पहुंचेगा कहां, उसे नहीं पता...! उसे ही क्या, किसी को भी नहीं पता...! सुरेन्द्र डी सोनी की संवेदना का बहुफलकीय रचना संसार इन कविताओं में झलक भर
को ही सही, दिखता जरुर है। एक बिन्दु कैसे अपना गोला बनाता है और ख़ुद इस गोले में घिरा दौड़ता हे, यह सूक्ष्म प्रस्थान बिन्दु उनका। कम शब्दों में पूरी कविता कहना वैसा ही है जैसे एक बिन्दु में वृत्त की गोलाई माप लेना, यह काम बखूबी कर पाए हैं वह...। अनंत शुभकामनाएं इस संभावनाशील रचनाकार के प्रति....!
- मायामृग
‘मैं एक हरिण और तुम इंसान’
मानवीय संवेदना और यथार्थ के कवि : सुरेन्द्र डी.सोनी - डॉ. मंजु शर्मा
‘मैं एक हरिण और तुम इंसान’ सुरेन्द्र डी. सोनी रचित कविता-संग्रह अपने शीर्षक से ही इंगित करता है कि इसमें मानवीय संवेदना की गहराई और यथार्थ के विविध रूप देखने को मिलेंगे। यह एक प्रतीकात्मक शीर्षक है और व्यंग्यात्मकता से पूर्ण है। कवि सुरेन्द्र का हरिण - एक पशु - यहाँ मानव को आईना दिखा रहा है कि वह चौपाये से दोपाया तो हो गया है किंतु उसकी पाशविक प्रवृत्ति अभी गई नहीं है। वह अब भी उसमें विद्यमान है। सही भी है कि आज का मानव तृष्णा के पीछे ही भाग रहा है। ...क्या यह तृष्णा बढ़ती ही जाएगी? ...कवि का हरिण मानव-मन की इसी दौड़ को बता रहा है। कविता करना कोई आसान काम नहीं है। ..ना ही शब्दों का काग़ज़ पर गोदना काव्य है। कवि का कर्म शब्द का उपयोग करना ही नहीं होता, उसके पार जाकर अर्थ की संभावनाओं का विस्तार करना भी होता है अर्थात् शब्दों का अर्थगर्भ उपयोग ही नहीं अर्थगर्भ मौन का भी उपयोग करना भी कवि का कर्म होता है। प्राय: कविता शब्दों में नहीं होती कविता शब्दों के बीच निहित नीरवताओं में होती है| इस नीरवता से ही – शब्दों के बीच छुपे इस मौन से ही – सच्चा सम्प्रेषण होता है।
सुरेन्द्रजी ने इस ’मैं एक हरिण और तुम एक इंसान’ के माध्यम से समकालीन चिन्ताओं, चुनौतियों और प्रश्नानुकूलताओं को देखा-परखा है और सृजन की नई संभावनाओं की ओर कदम बढ़ाया है। एक इतिहासकार होने के नाते अपने सृजन-कर्म में संदर्भों की सही पड़ताल करने में कवि समर्थ है। संग्रह में वर्तमान की वास्तविकता को निर्भीकता एवं यथार्थ रूप में प्रकट करने में वह सफल रहा है। पुस्तक की अड़सठ कविताओं में से प्रारंभ में दी गईं छोटी किन्तु असरदार कविताओं से कवि धीरे-धीरे माहौल बनाने में कामयाब दिखार्इ देता है। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए लम्बी कविताओं में कविता की अभिव्यक्ति का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। एक भी लम्बी कविता नीरस, उबाऊ या दर्शन के बोझ से दबी हुई नहीं है। सुरेन्द्रजी भावनाओं को इतनी सहजता से व्यक्त करते हैं कि लगता है जैसे शब्दों के संयोजन में वह बहुत ही परिपक्व है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से देखें तो कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती, वरन् एक कसावट दिखाई देती है। कविताओं में कवि का स्वयं का कोई राग-द्वेष नहीं है। वह तो व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ रहा है। कथ्य का विवेचन करने पर बहुत-सी कविताएँ बदलते युग में वैवाहिक जीवन जीने वालों की मन:स्थिति और उनके अंतर्द्वन्द्व को उभारती हैं। आज के युग में विवाह एक संयोग मात्र नहीं माना जाता। यदि विवाहित जीवन की परिणति घुटन में होती है, अविश्वास में होती है, ..तो व्यक्ति भीड़ में रहकर भी अकेला है। ‘चाबियाँ’ कविता दाम्पत्य जीवन के बीच के अविश्वास को बड़े रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करती है। यह कविता अभिव्यक्ति और अनुभूति के शिखर को छूती है।
ऐसी और भी कविताएँ हैं, यथा ‘कमिटमेण्ट’, ‘वध्या’, ‘चादर’, ‘वरेण्य’, ‘करवा-चौथ’, ‘प्यार : प्रतीक्षा से अनुभव तक’, ‘बादल रीता’, ‘अमावस’, ‘ईश्वर के नाम पर’, ‘सितार’ आदि। ये कविताएं दाम्पत्य के अर्थ खोते रिश्ते, उससे उपजी असंतोषजनक स्थितियों की और बुद्धिजीवी एवं मध्यम वर्ग के लोगों की अपनी-अपनी समस्याओं में भटकते रहने की कविताएँ हैं। ‘सितार’ कविता की ये शुरुआती पंक्तियाँ इसी रूप को व्यक्त करती हैं –
‘प्लीज़!’
मैं जानता हूँ
कि यह शब्द
सदैव तुम्हें
डसता हुआ प्रतीत होता है...’
इन कविताओं में सांकेतिक शब्दों में प्रवृत्तिमयी विचारधारा व्यक्त की गई है। प्रसाद ने भी कामायनी में कहा है –
काम मंगल से मण्डित श्रेय
सर्ग इच्छा का परिणाम,
तिरस्कृत कर इसको तुम मूल
बनाते हो असफल भवधाम।
इसी प्रकार अन्य कविताओं में भी आज के जीवन की विसंगतियों और विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण हुआ है। ‘द्रोण का प्रायश्चित्त’ कविता परम्परा के नाम पर शोषण और वर्तमान में शिक्षा के व्यावसायीकरण से उपजी गिरावट पर प्रभावी व्यंग्य करती है। कविता की निम्न पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं –
‘स्कूल से जब मैं कालेज गया
तब भी तुम मेरे साथ रहे...
कक्षाओं, पुस्तकालयों और बड़े गुरुओं के घरों में
ट्यूशन पढ़ाने हेतु विशेष कमरों में
मुझे तुम्हीं आते-जाते दिखाई देते रहे द्रोण..!’
‘सेज़’ कविता राजनीतिक व्यवस्था, अफ़सरशाही और विकास के नाम पर हो रहे सभ्यता के ह्रास को व्यक्त करती है, यथा –
‘ये विकास के झण्डे नहीं हैं
जो तुम उठाए हो –
असल में अपने हाथों में तुम
आने वाली नस्लों के क़फ़न लहरा रहे हो...!’
इसी प्रकार ‘मैं एक हरिण और तुम इंसान’ कविता – जिस को केन्द्र में रखकर पुस्तक का शीर्षक दिया गया है - मानव की तृष्णा के अतिरेक पर व्यंग्य करती है। देखिए एक चित्र –
‘अभयारण्य -
जहाँ न अभय है
न अरण्य है...
है तो केवल दायरे
केवल भय।‘
‘चवन्नियाँ’ में कवि ने बड़ी खूबसूरती से हास्य के साथ-साथ करारे व्यंग्य को भी प्रस्तुत करते हुए लोगों की चुकती संवेदना का उद्घाटन किया है। एक सरस व रोचक कथानक को कविता के रूप में बुना गया है। यह कविता एक मस्ती और फ़क्कड़पन से शुरू होती है और देखते ही देखते एक गम्भीर समसामयिक स्थिति को प्रकट करने में सफल होती है। दो विरोधी भाव हास्य एवं वेदना का अद्भुत चित्रण इस कविता में दिखाई देता है। कविता में फंतासी शिल्प का सुन्दर प्रयोग हुआ है। ‘सुन तितली’ कविता स्त्री-विमर्श और नारी-आंदोलन पर व्यंग्य करती है। कथ्य की दृषिट से लगता है कि कवि को स्त्री का वह रूप जो पुरुष की अधीनता स्वीकारे, उसके समक्ष झुकी रहे और उसका अपना अस्तित्व न रहे – वही प्रिय है। स्त्री-मुक्ति-आन्दोलन को कवि ने एक परम्परावादी और पितृसत्तात्मक रूप के नज़रिए से देखा है। इसमें पुरुष का अहं दर्शित होता है, परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि शिल्प की दृष्टि से यह एक खूबसूरत रचना है। ‘शिवरात्रि’, ‘ठाठ’,’प्रतिसाद’ जैसी अनेक कविताओं में अन्ध- आस्था और आडम्बरों पर व्यंग्य किया गया है। लम्बी कविताएँ अपने कलेवर में कथानक को बहुत कसावट से समेटे हुए हैं और दोसरी ओर कुछ शब्दों में कही गईं कुछ कविताएँ तो अपना पूर्ण अर्थ चमत्कारिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। यहाँ यही चरितार्थ होता है – सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर। देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर॥
संदर्भों को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करने में कवि का अदभुत कौशल दर्शनीय प्रायश्चित्त’ आदि अनेक कविताओं में प्रतीकात्मकता आई है। मिथकों का प्रयोग आज के संदर्भों में सुन्दर ढंग से हुआ है। ‘सुन तितली’, ‘द्रोण का प्रायश्चित’ आदि अनेक कविताओं प्रतीकात्मकता आई है। मिथकों का प्रयोग आज के संदर्भों में सुंदर ढंग से हुआ है। अमूर्त प्रतीकों और कहीं-कहीं बिम्बों का प्रयोग कविता को सुन्दर बनाता है। ‘यह रेगिस्तान का अपना सौन्दर्य है’ कविता में राजस्थान का सौन्दर्य, कल्पना एवं इतिहास का चित्रात्मक वर्णन हुआ है। इसके अतिरिक्त ‘मेरा कैशोर’ कविता में उपमान की नवीनता का यह उदाहरण देखा जा सकता है –
‘दीवार की दरार में
हठ करके उगे
पीपल के पेड़-सा
मेरा वह निर्दोष विद्रोह...’
‘तुम’ कविता में कम शब्दों में अर्थ की गहनता है, यथा –
‘तुम्हारा ‘तुम’
तुम्हारा अनुभव
मेरा ‘तुम’
मेरी वेदना...’
‘पानी : पाकर तुम्हारा आलिंगन’ कविता में मन के भीतरी संघर्ष को परिपक्वता के साथ इस तरह व्यक्त किया गया है –
‘विक्षोभ की
व्यक्त-अव्यक्त पीड़ा को सहते-सहते
क्या यह उम्र गुज़र जाएगी...?’
कविताओं कुछ वाक्यांश सूत्रात्मक लगते हैं। यथा –
‘...इस जग को सँवारने का
आत्मिक संस्कार है भाषा...’
(‘क्यों चाहिए शब्द..’)
‘मरीचिका मेरा
किसी जीव विशेष का ही नहीं
हर जीव का बंधन है
तुम्हारा भी...’
(‘मैं एक हरिण और तुम इंसान’)
‘मेरी अंत्येष्टि देखूँ, न देखूँ
पर देख लिया
संवेदना का अंतिम संस्कार...।‘
(‘चवन्नियाँ’)
इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी कवि ने नए संदर्भों का चित्र उभारने के लिए सांकेतिक शब्दावली व वाक्यों का प्रयोग किया है। भाषा में कसावट है, कहीं भी शिथिलता नहीं है। कुछ कविताओं में कवि ने जनभाषा से शब्द उठाए हैं। यथा -भींत, माँडणे, दरूजे आदि शब्द अपना आँचलिक सौन्दर्य समेटे हुए हैं। इसी प्रकार अँगरेज़ी के शब्द भी बहुतायत से लिए गए हैं, जो भाषा में चमत्कार के साथ-साथ आज की स्थिति एवं नवीन संदर्भों के यथार्थ को व्यक्त करने में सफल हुए हैं।
संग्रह की भूमिका में मायामृग ने कवि की पीड़ा व उससे उपजी संवेदना को बहुत ही कुशलता से व्यक्त किया है। कुल मिलाकर कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित – मात्र सत्तर रुपये मूल्य का – 144 पृष्ठ से सजा सुरेन्द्रजी का यह कविता-संग्रह ‘मैं एक हरिण और तुम इंसान’ एक परिपक्व एवं खूबसूरत कृति है, जो निश्चय ही कविता को समृद्ध करने में सफल हुई है।
- डॉ. मंजु शर्मा
अध्यक्ष - हिन्दी विभाग
राजकीय लोहिया महाविद्यालय, चूरू।
मैं एक हरिण और तुम इंसान-कविता-संग्रह / सुरेन्द्र डी सोनी / संस्करण 2013 / पेपरबैक / पृष्ठ 144 / मूल्य 70.00 रुपये मात्र /बोधि प्रकाशन, जयपुर / आवरण चित्र: कुंअर रवीन्द्र
हरिण औश्र हिरण का फर्क मुझे समझ में नहीं आ रहा
दोनों ही सही माने जाते हैं आदरणीय मनोजजी..!
पुस्तक की सभी रचनाएं मैंने पढी हैं... रचनाएं शब्दों की सतह पर नहीं, भीतर चलती हैं. गहराई में डूबने को मजबूर करती हैं... भावार्थ तक जाने के लिए कवि के 'मैं' से हटना होगा ... जहां कहीं आस-पास (दाम्पत्य में ) रिश्ते टूटने-दरकने का स्वर सुनाई दे तो ... एक साथ दी हुई दाम्पत्य जीवन की रचनाओं को दुबारा पढना..... . जहां कहीं पुरुष के अहं से उपजी भीतर की कमजोरियां देखनी हो तो फिर से उन्हीं पृष्ठों को पलटना... 'तुम मुझे एक बच्चे की तरह प्यार करो..' रचना एक अलग तरह की पीडा से मुक्त होने की छटपटाहट को इंगित करती है. स्त्री के बहुतेरे रूपों में दिखाती है ये रचनाएं.
इस युग की त्रासदियों को देखता-भोगता इंसान कस्तूरी-मृग की मानिन्द ही भाग रहा है.... जब भागना कुछ थम जाए तो सोचने का मौका मिले ना ! जहां उलझावों से भरी जीवन-यात्रा है तो कविता सीधी डगर पर कैसे चल सकती है ? रचनाओं को कई कोणों से देखने की वैचारिक दृस्टि को विकसित करना पडेगा. इस पठन-यात्रा में तनाव का सामना भी करना पडे शायद, जो कवि का मंतव्य नहीं रहा, कवि ने अपनी और आस-पास देखी हुई त्रासद स्थितियों को शब्दों में बांधा है.
--राजेन्द्र शर्मा'मुसाफिर'
अभी कुछ रचनाओं की बात ही हो पाई .... 'जैसे, दाम्पत्य' अभी बहुत कुछ कहना बाकि है दोस्तो ...लेकिन आप पढेंगे उसके बाद बात होगी. आज इतना ही...........
किताब को पढने की जिज्ञासा बढती जा रही है....
शुभकामनाये !