समय’ - एक पाठकीय टिप्पणी
’रहना ही होता है हमें
अनचाहे भी कुछ लोगों के साथ
जैसे माचिस की डिबिया में रहती हैं
तिल्लियां सटी हुयी एक दूसरे के साथ’
’कल्पनाओं से परे का समय’ अंजू शर्मा के पहले काव्य संग्रह की पहली ही कविता की इन पहली ही पंक्तियों से मुझे कवयित्री के कवि- मन मिज़ाज का अहसास हो जाता है। अंजू शर्मा की इस संकलन में संकलित अधिकतर कविताएं जीवन, समाज और अपने आसपास में व्याप्त विसंगतियों से बटोरे अनुभवों से न्यारे-नए वितान रचती दिखायी देती हैं। उन्होंनें अपनी अनुभूति के माध्यम से बार- बार उद्घाटित करने का प्रयास किया है कि स्री केवल एक जेंडर नहीं है। उनकी कविता बहुत ही सहज और संप्रेषित भाव से स्त्री विमर्श को सामने रखती है,’आपके लिए ये हैरत का सबब होगा/अगर मैं मांग रख दूं कुछ डिब्बों की/जिनमें कैद कर उन स्त्रियों के आंसू/जो गाहे-बगाहे सुबक उठती हैं मेरी कविताओं में’ या ’छलावा दबे पांव आता है/विश्वास का मुखौटा लगाए/और संवेदनाओं की क्रब के ठीक ऊपर/हर उम्र की मादा बदल जाती है/एक सनसनीखेज सुर्खी में’ व ’ तुम बदलती रही हर पल उस ट्रेन में जिसके/ चालक बदलते रहे सुबह, दोपहर और सांझ’ समाज में पुरुष का स्त्री के प्रति हेय वासना भाव की सोच को बहुत ही प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है, वह कहती है ’एक औरत बनने में/ बहुत कुछ है जो पीछे छूट जाता है...।’ ’क्योंकि वह सहेजना चाहती है/ थोड़ा सा प्रेम/ खुद के लिए/ सीख रही है आटे में नमक जितनी खुदगर्जी/ कितना अनुचित है ना’
अंजू की कविता की औरतें बहुत अकुलायी-सतायी हुयी औरतों का करुण गान-व्याख्यान है जो बहुत ही कोमलता से मगर अपनी अस्मिता की दृढता के साथ आपके भीतर को टटोलती है और मान कर भी चलती है कि ’मध्यम मार्ग के परहेजी के लिए दुष्कर है/ कोई हल ढूंढना’ क्योंकि वह जानती है जिस आधुनिक सभ्यता के जंगल के जानवरों के बीच वह है, वे कभी नहीं जान पाएंगे ’दर्द वहां भी होता है/ नहीं मिलते जहां चोट के निशान’ क्योंकि उनके लिए तो ’पब से निकली लड़की/ नहीं होती है किसी की मां, बेटी या बहन/ पब से निकली लड़की का चरित्र/ मोहताज़ हुआ करता है घड़ी की तेजी से चलती सुइयों से’ स्त्री अस्तित्व की खोज में उनकी पीड़ा देखिए कि ’अपनी मां का नाम मैंने कभी नहीं सुना/ लोग कहते हैं/ फ़लाने की मां, फ़लाने की पत्नी और फ़लाने की बहू’ उसका मर्मांतक प्रश्न ’एक औरत का स्वयं अपना/ रास्ता चुनना/ क्या सचमुच इतना दुष्कर है..?’ संवेदनाओं को झकझौर डालता है ’हर बार सर झुकाते हैं एक नए आका के सामने, नहीं जानते कि गर्दन ऊपर भी उठ सकती है’ जैसे अनुभवों से गुजरने के बावजूद हार नहीं मानती और गर्व से घोषित करती है ’आसमान के सिरे खोल दिए हैं मैंने/ अब अब मेरी उड़ान में कोई/ सीमा की बाधा नहीं है’
अंजू शर्मा की कविताओं के बारे में वरिष्ठ कवि- सम्पादक निरंजन श्रोत्रिय का ’अंजू शर्मा की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है मानो वे स्री- संसार की तब से अब तक की कहानी को बहुत ही बेबाकी से कह देना चाहती है। यह स्त्री आज की वह स्त्री है जिसकी मुक्ति की चिंता कवयित्री के साथ समाज की भी है’ बहुत ही यथार्थपरक बयान है। '
’कल्पनाओं से परे समय’ से गुजरते हुए मेरे पाठक ने भी माना कि कविता को अपनी मुक्ति, सद्गति और संभावना का मार्ग माननेवाली अंजू शर्मा की ये कविताएं जीवन के विचलनों, उहापोह और विसंगतियों का गंभीर सवालों के साथ साक्षात्कार करते हुए सुप्तचेतना को न केवल जगाती है, आंदोलित भी करती है।
कल्पनाओं से परे का समय’..... स्त्री-संसार की तब से अब तक की कहानी
- निरंजन श्रोत्रिय
"युवा कवयित्री अंजू शर्मा की कविताओं का संसार मूलतः स्त्री-विमर्श का ऐसा संसार है जो धुर अतीत और सुदूर भविष्य के बीच एक तना हुआ वितान है! वे इस यात्रा में अपनी परंपरा और जातीय स्मृतियों को जीवंत करते हुए भी उसे स्त्री की अग्रगामी और प्रगतिशील चेतना से जोड़े रखती हैं! अंजू की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि मानो वे स्त्री-संसार की तब से अब तक की कहानी को बहुत बेबाकी से कह देना चाहती हैं! 'घूँघट से कलम तक के सफर पर निकली/चरित्र के सर्टिफिकेट को नकारती' या 'आंचल से लिपटे शिशु से लेकर/लैपटाप तक को साधती औरत के संग' वाली यह स्त्री आज की वह स्त्री है जिसकी मुक्ति की चिंता कवयित्री के साथ समाज को भी है! अंजू की कविताओं का यह संसार अपने कहने के लिए कभी माँ, कभी बेटी या कभी स्वयं के भीतर की औरत को जरिया बनाता है! कहना न होगा कि कवयित्री के ये संवेदन स्वानुभूत बल्कि स्वस्फूर्त हैं! एक बेहद मितभाषी और सधी हुई भाषा में इस वेदना और कामनाओं को व्यक्त करना अपनी कविता को विश्वसनीय और जीवंत बनाना है! यहाँ यह दिलचस्प है कि स्त्री की मुक्ति की यह मांग केवल एक कवयित्री की भाषाई लफ्फाजी न होकर उसका अपना वास्तविक आत्मसंघर्ष है जैसे कि 'मुआवजा' कविता! यहाँ कवयित्री इस संघर्ष के लिए अपनी कविताओं तक का मुआवजा स्वीकारने को तैयार है! 'हाँ, मुझे उनकी खामोश/ घुटी चीख़ों वाले डिब्बे को/ दफ्न करने के लिए एक माकूल/ जगह की भी दरकार है'! यह वे अपनी कविताओं की तल्खी कम करने के लिए मधुमक्खी से शहद की मांग तक कर लेती हैं! तात्पर्य यह है कि कवयित्री कि मूल कवि-चेतना परिवर्तनगामी है! शायद यही कारण है अंजू की कविताओं में यह विमर्श एक उथले नारे या विचार की बजाय एक सघन अनुभव का स्थान लेता हैं! अंजू की 'दोराहा' कविता एक मार्मिक और विचारोत्तेजक कविता है जिसमें स्त्री की नियति और उसके खिलाफ समूचे संघर्ष के आंतरिक ताप को महसूसा जा सकता है! पाठक ऐसी कविता के ताप से स्वयं को सुलगता महसूस करता है! 'उन्हे चाहिए थे तुम्हारे आँसू/ उन्हे चाहिए थी तुम्हारी बेबसी/ उन्हे चाहिए था तुम्हारा झुका सिर/ उन्हे चाहिए था तुम्हारा डर'! युवा कवयित्री अंजू शर्मा ने अपनी कविता की भाषा और काव्य-संवेदनों के बीच ऐसा तालमेल स्थापित किया है कि कविता अनावश्यक सनसनी और उत्तेजना उत्पन्न किए बगैर बहुत हौले से यहाँ तक कि आपके कान में एक महत्वपूर्ण बात कह देती है! अंजू की मूल काव्य-चेतना प्रगतिशील है! वह जनेऊ, शिखा और तिलक जैसे वर्ण-सूचक प्रतीकों को एक सिरे से नकारती तो हैं यहाँ तक कि स्वयं को मनु के वंशज होने से भी इंकार कर देती हैं (हमें बक्श दो मनु) जाहिर है यह विद्रोह औपचारिक नहीं है! 'तीन सिरों वाली औरत' जैसी कविता में कवयित्री के बारीक संवेदनों को महसूसा जा सकता है जब वह तीन भिन्न औरतों को एक औरत में समाहित कर देती हैं! यह केवल देहों का एकीकरण नहीं है बल्कि तीन औरतों के समूचे संसार का रचनात्मक और मार्मिक जुड़ाव है --'सब देख रहे हैं एक ही दिशा में / और सबमें उभर रही हैं एक सी चिंताएँ / जो घूमती हैं हम तीनों की बेटियों की शक्ल में / जिन्हे बड़े होना है इस असुरक्षित शहर में/ हर रोज़ थोड़ा -थोड़ा...'! 'बड़े लोग' जैसी छोटी कविता में वे मनुष्य के स्वार्थ और नैतिक पतन को एक अलग ही अंदाज़ में बयां करती हैं! इस कविता की ज़मीन को अंजू एक तीखी ढलान में तब्दील कर देती हैं जहां आप मनुष्य के अधोपतन को देखते भर नहीं हैं, महसूस भी करते हैं! युवा कवयित्री अंजू शर्मा की कविता स्त्री के लिए इस असुरक्षित संसार में उसके अपने संघर्ष की व्यथा-कथा है जहां एक माँ अपनी बड़ी होती हुई बेटी को चेतावनी की पर्चियाँ बाँट रही है...साथ ही दोराहे पर खड़ी स्त्री को नए कदम उठाने का दिलासा भी दे रही है! कहना न होगा इस दोराहे में से किसी राह का चुनाव दिशा का चुनाव भी है!"
- निरंजन श्रोत्रिय (समावर्तन में प्रकाशित)
atm santusti ke liye bhawanao ki abhivyakti ka madhyam banati ja rahi hain kavitayen kitana achcha hota agar ytharth ke dharatal par safalta ke naye ayam garati striyon ke vishwash aur sahas ka chitran kiya jaye kyonki sach to yahi hai ki bandhan ko todkar age badhane ki himmat hi unhen saflta de sakati hai
बेहद उम्दा और सटीक समीक्षा की है आपने सर ………अंजू की कवितायें दिल पर छाप छोडती हैं ………आपको और अंजू दोनो को हार्दिक बधाई
बेहतरीन।