मित्रो! पाठकनामा में आज प्रस्तुत है हमारे समय के महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ कवि, आलोचक व चित्रकार विजेन्द्र जी द्वारा सम्पादित बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित समकालीन सौ कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संकलन ’शतदल’ का युवा कवयित्री व समीक्षक निवेदिता भावसर द्वारा ’शतदल’ के पहले वर्ण के कवियों की कविताओं पर समीक्षात्मक आलेखों की श्रंखला की पहली कड़ी....
शतदल (बोधि प्रकाशन) के कवि (पहले वर्ण) और उनकी कविताओं का अंतर्पाठ -१ - निवेदिता भावसर
आभा मोढ़े
शतदल की पहली कवयित्री सौम्य से चेहरे वाली इंदौर शहर की श्रीमती आभा मोढ़े जी फ़िलहाल जर्मनी में कार्यरत हैं । लेकिन जब मैंनें इनकी कविताओं को पढ़ा था तो मैंने मन ही मन ये मान लिया था के ये मेरे ही आस-पास रहने वाली कोई महिला हैं जो भली भांति परिचित है किसी आम सी औरत की रोज़मर्रा की घिसीपिटी ज़िन्दगी से। आभा जी आपकी कविताओं ने मुझे इसी लथड़ाई हुई आम सी महिला से जोड़ा, जो रोज़ सुबह उठती है और रोबोट की तरह अपनी (केवल नाम को अपनी) ज़िन्दगी को जीती है। आपकी कविता अपराधी की ये लाईने.....
" कि मैं वैसे तो जानती हूँ वो हमेशा से सिर्फ खेलता है
फिर भी मैं बनती उठने पर आँखे खोलने और सुलाने पर
आँखे बंद करने वाली गुड़िया। " मैं धिक्कारती रही अपने आप को उस औरत की जगह रख। ढूंढती रही अपना अस्तित्व बिस्तर की सिलवटों से जूतों के तलवों तक। सच आपकी कविता बड़ी कसैली है। "भड़ास" .... जिसमे आपने पुरुषों के अपनी सहूलियतों के हिसाब से बनाए गए धर्म पर, नियमों पर, क़ानून "धर्मों में स्त्री अछूत है फिर भी पैदा होते हैं उन्ही से देवता पुरुष ....... आपकी एक और कविता विरोध ..हाँ उनमे आपने बड़ी ही मासूमियत और सादगी से ये जब ये कहा की
" जब कभी सब फेंक देने का मन करता है
मैं कपड़े इस्त्री करके तह करके रख देती हूँ।"
आपकी वो लाईन..
"पहले से जमाये ड्राइंग रूम को फिर से जमाती हूँ"
सच मुझे पढ़ते ही हलकी सी मुस्कराहट आ गयी। वो इसलिए क्यूंकि विरोध का इतना मौन तरीका हर भारतीय स्त्री अपनाती है। विरोध कविता में मैंने देखा अपनी माँ सरीखी हर उस औरत को जो जानबूझ कर व्यस्त रखना चाहती है खुद को, उन सुन्न से पलों में जब दबा कुचला तड़पता हुआ मन ऊँची ऊँची आवाजों में, उठाने लगता है मुर्दा हो चुकी ज़िन्दगी पे सवाल... सच , आपकी ये कवितायें मुझे आपके बहुत करीब ले आई हैं। बहुत ही अपनी लगी आप बहुत ही अपनी .....आपके शब्दों में गज़ब की चुम्बकीय शक्ति है। आपके शब्दों से अपनापन रिसता है। और आपकी सीरिया कविता की ये बहुत ही नाज़ुक सी दिल को गहरे तक छूती लाईने.
"साथ में तकिया लिए छोटी सी लड़की आश्वस्त है भाई के साथ
के किसी दिन ये जंगल खत्म होगा, और उसे वक़्त और सुकून मिल ही जाएगा।"
मैंने बड़ी मुश्किल से पढ़ी है ये सीरिया कविता आपकी.. सच्ची। इस कविता की हर लाइन में मुझे अपना सब कुछ खो चुके दो नन्हे नन्हे डरे सहमे से एक दुसरे का हाथ थामे बच्चे नज़र आये। ....हर एक शब्द गहरी संवेदनाओं से भरा हुआ। बस मन हुआ के अभी उन बच्चों को कलेजे से लगा लूँ। सबसे मुश्किल था मेरे लिए इसे पढ़ना, हर एक शब्द गीला था, तर था इसका। जाने आपने कैसे लिखी होगी। और क्या कहूँ...
अभिनव निरंजन
कई कवि ऐसे होते हैं जिन्हें पढ़कर हमारे मन में उन्हें जानने की लालसा बलवने लगती है। ऐसे ही आकर्षक व्यक्तित्व और लिखाई के धनी हैं हमारे शतदल के दूसरे कवि श्री अभिनव निरंजन जी....इनकी पहली ही कविता 'है कौन मेरी घबराहट का साक्षी' मेरी इस बात पर मोहर लगाती है, जो नए नए शब्दों और अनोखे भावों से भरी पड़ी है।
"विशाल टिड्डीदल छुपे बैठे हैं मेरे कानो में
ज़रा मैं जग और इनका विलाप चंचनाने लगता है।
मैं पैर हाथ सिकोड़कर पूरे दम से खींचकर, घुसेड़ लेता हूँ दिमाग के अन्दर
पड़ा रहता हूँ अपनी मूर्छा में"
खौफ और ग्लानि से जूझते व्यक्ति की मानसिक स्थिति का जीवंत चित्रण मानो चुटकी बजा कर कर दिया है। शब्दों के जादूगर हैं अभिनव जी।कविता 'एक उत्कंठा' का आखिरी हिस्सा देखिये क्या कमाल का है-
जो व्यक्ति घण्टों खड़े हो कर घावों को घूर नहीं सकता
पांव की फिसलन को निहार नहीं सकता
ज़िन्दगी उसे ठीक से जीने नहीं देती ...
पाब्लो नेरुदा कहते थे कि मैं शब्दों से खेलता हूं---। शब्द से खेलना खिलवाड़ करना नहीं है बल्कि उससे आत्मीय रिश्ता बनाना है। अभिनव इस अर्थ में शब्दों से खेलते हैं और उनके साथ एकमेक हो जाते हैं-
शब्द ना हुए पीसे हुए ताश के पत्ते हो गए , या के फेंके हुए पांसे
इन्होंने जितनी जल्दी अपना दिल खोल के रखा ,कोई उसमे झांके पूरी तरह , उसके पहले ही इन्होने उसे पैक कर के भी रख दिया। यह आत्मीय संवेदना तब और स्पष्ट दिखती है जब कविता 'शिवाला' के आखिरी हिस्से में कवि अपनी बात वेदना से भरकर कहता है-
है कोई अधेड़ इंसान
बरसो बाद लौटा है अपने गाँव
हर आती जाती बुढ़िया में ढूंढता है
बरसो पहले गुज़र चुकी अपनी दादी का अक्स ....
सच इतनी मौन सी सुकोमल संवेदनाएं हम कई दफा हज़ार आंसू बहा कर भी व्यक्त नहीं कर पाते जो इन्होने बिना किसी बनावट के कह दी। बहुत ही सुन्दर।'उड़न छू' कविता भी बहुत शानदार है। किसानों की बदहाली को सहज शब्दों में कहते हुए अभिनव बड़े सवाल खड़े करते हैं। बड़े सवाल बड़े बड़े शब्दों में नहीं बल्कि सीधे सादे दिखने वाली मासूम बातों के जरिये। मासूम इसलिए क्यूंकि अच्छे दिनों का आना अपने आप में एक मासूम ख्याल है । खैर ... आप तो कविता पढ़िये ...
अब नहीं आते वैसे टिड्डीदल
फिर कौन उड़ा ले जाता है खड़ी फसलें
कौन छोड़ जाता है उजाड़ खलिहान
बाबू के पास इसका उत्तर नहीं
किसानो को इसकी खबर नहीं
और मैं नहीं सोचता इसके बारे में
बस इतना ही..अभिनव जी आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं। यूँही लिखते रहिये। शब्द तो आपकी मुट्ठी में बंद पासे हैं--- कैसे भी आएं, जीत हर तरफ कविता की ही होगी।
अजित कुमार राय
शतदल के तीसरे कवि अजित कुमार राय गाजीपुर के रहने वाले पेशे से शिक्षक हैं। इनकी कविताओं में भी एक सीख एक समझाईश नज़र आती है। ये आज के कवि हैं। ज़्यादातर आज के मुद्दों और विषम परिस्थितियों पर लिखा है। भाषा एकदम सधी हुई और गंभीरता लिए हुए है। कविताओं में नएपन के साथ-साथ परिपक्वता भी झलकती है।इन्हें पढ़कर मुझे दुष्यंत कुमार का वो शेर याद आ गया-
वो कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
अपने समय की विडंबनाओं को देखने की राय की दृष्टि बेबाक है। वे कटाक्ष भी करते हैं तो इस तरह कि पूरी परंपरा के उदाहरण सामने आ खड़े हो जाते हैं। चाहे वे बोधकथाओं से अाए हों या कि लोकमान्यताओं से। इनकी पहली कविता पृथ्वी की कक्षा के बाहर की ये पंक्तियाँ देखिये-
हम इंद्र के वंशज किस गृह पर रहेंगे जब धरती मिट्टी में मिल जायगी
क्या हम कालिदास के उत्तराधिकारी हैं
जी उसी डाल को काट रहे हैं जिसपे बैठे हैं
जो हो रहा है, राय उसी को बयान करके संतुष्ट नहीं हो जाते हैं। वे भविष्य पर नजर रखने वाले कवि हैं इसलिए चेतावनी देना नहीं भूलते-
डूब जायेगा लाखों साल का मनुष्य यह कैसी सुनामी है
ओजोन परत में नहीं
हमारी जीवन पद्धति में छेड़ हो गया है
क्षितिज सिकुड़ता जा रहा है
वृत्त बदलता जा रहा है बिंदु में
राय सही मायने में नए समय के शिक्षक हैं, परंपरा से अाए नैतिक मूल्यों की समझाईश वही है मगर समझाने का तरीका नया है। अधिकतर हम गंभीर विषयों पर लिखने वाले कवियों को नीरस मान लेते हैं क्यूंकि उनकी कवितायें एक सी ही लगती हैं। लेकिन इनके मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं है। इनकी अगली कविता आत्म संवाद को पढ़िये एकदम हट कर है। एक निजी भावलोक अपनी भावनाओं से आगे बढ़ता हुआ धीहरे धीरे पूरी सृष्टि में व्याप्त हो जाता है-
अवचेतन के रहस्यलोक में जन्मा विचारजीवी बहुरुपिया हूँ मैं
मुझे त्रिशंकु नहीं विधाता कहो"
और ये ..
मैं त्रिशंकु की तरह ठहरना नहीं जानता
गति में तो मैं नारद का भी जनक हूँ
मैं विचारों का संसार प्रतिपल रचता रहता हूँ
है ना एक दम हमारे मन सा। हमारे संवाद सा इनका आत्मसंवाद।
कविता ई-गवर्नेस (ज्योतिकथा के धुंए) राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर लिखी गयी है, एक तरह से कविता नहीं ज़िम्मेदार लोगो से किये सवाल हैं। वे सवाल जो हर नागरिक अपने समय के नीति नियंताओं से पूछना चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता। कवि उन अबोले लोगों को अपनी अावाज देता है, अपने ही अनूठे ढंग में। देखिये ज़रा-
चुनावी वादों और इरादों के मलबे तले दब गया है आम आदमी
त्वरा और त्वचा की धुरी पर नाचती पृथ्वी शायद उ.प्र. में ठहर गयी है
जहाँ कानून व्यवस्था की लाश टांग दी गयी है
कूटनीति के कसैले पेड़ पर
प्र-देश में भी तो 'देश' निहित है सरकार
इ-मेल कहाँ अटका हुआ है?
अजित जी आप बहुत अच्छा लिखते हैं। और आपकी लेखनी को सम्मान भी बहुत मिला है। लेकिन मेरी आपसे एक गुज़ारिश है ज़रा टीचर के रोल से बाहर निकल कर भी कुछ लिखिए ना।एक पाठक के रुप मैं आपकी लेखनी के सारे रंग देखना चाहती हूँ। मुझे यकीन है कि अगर आप जीवन की निरंतर उलझती जा रही समस्याओं के अलावा विषयों पर भी कविता लिखेगे तो वो भी कुछ अलग ही रंग होगा।
अमित आनंद
शतदल के चौथे कवि श्री अमित आनंद जी पाण्डेय। सच वैसे भी जहां जज़्बात नहीं वहाँ कविता कैसी ? इनकी कविता युवा मन की छुईमुई सी भावनाओं को बड़ी ही खूबसूरत अंदाज़ में व्यक्त करती है। इनकी कविताओं में प्रकृति से प्रेम अलग ही झलकता है। प्रकृति इनकी कविताओं में किसी नायिका सी विद्यमान है। देखिये इनका सूखेपन से त्रस्त होकर बारिशों से शिकायतों का मनोहारी अंदाज़ ...
"माँ ने निकाल ली
हरी साड़ी/ चूड़ियाँ बिंदी
मामा को पुकारते हुए गीत गाये
बादल नहीं आये...
कवि अमित आनंद प्रकृति को केवल प्रेम और मन की रंजना के लिए ही नहीं पढ़ते बल्कि इसी प्रकृति के साथ जीवनदायी स्थितियां भी जुड़ी हुई हैं। खेती, किसानी का प्रकृति से रिश्ता मां बेटे जैसा है। प्रकृति पर टिका जीवन और जीवन के प्रति आस्था इस हद तक है कि किसान प्रकृति, ॠतुओं और खासतौर पर बादलों को मनाने के लिए हर जतन करता है। प्रकृति के वरदान और अभिशाप को जीना किसान की नियति है-
खेली गयी कालकलौती
औरतों ने नंगे बदन हल जोता
मंगलगान गाये
बादल नहीं आये.."बादल न हुए कोई निर्मोही ईश्वर ही हो गया।अमित आनंद पांडेय एक बड़ी खासियत है इनकी मीठी सी शब्दावली। इनकी कविताओं को पढ़के ऐसा लगता है जैसे बचपन की वो संतरे वाली खट्टी मीठी गोलियां मुंह में रख ली हो। अमित अपनी कविता को शीर्षक देना भी बखूबी जानते हैं। शीर्षक पंक्ति से उभरने वाला बिम्ब अपने आप में एक पंक्ति की कविता है। एक कविता देखिये, शीर्षक है-
"जामुनी आँखों वाली लड़की"
" सूनी अमराइयाँ
कांस के झुरमुट
एक अल्हड़ सा बच्चा और 'कल'
चला आता है गीत गाता पनघट
चुचुआती पनचक्की
मीलों दूर जाती हुई सूनी पगडण्डी
और रुनझुनाती पायल
उमसती गर्मियों में
याद आती है
जामुनी आँखों वाली एक लड़की
और जेठ के बादल।"आहहा... कितनी खूबसूरत है। अमित कविताओं को बहुत नजाकत से तराशते हैं। वैसे ही जैसे कोई गुलाब की पंखुरी से केसर क्यारी में खुश्बू गोड़ता हो।कवि की सहजता अौर भोलेपन से यह मान लेना गलत होगा कि वे केवल सपनों के कवि हैं, और सिर्फ खूबसूरत ख्यालों में ही खोये रहते हैं। पूरी नज़ाकत से जी जा रही कविता की पथरीली जमीन से अमित अानंद पूरी तरह वाकिफ़ हैं। ये जानते हैं ज़िन्दगी की निर्मम हकीकत को जीना भी कितना मुश्किल होता है। गाँव छोड़कर शहर आकर किसान से मजदूर हो गए किसान की व्यथा को चित्रित करती ये कविता इस कठोर सचाई से कवि की सीधी पहचान होने का प्रमाण है-
भूल जा
अम्मा का चश्मा
बिटिया की गुड़िया
घरौतीं की चूड़ी भूल
उठ पुल से
हाथगाड़ी खींच
पसीना पोंछ
जोर लगा
बीड़ी जला"
कविता 'मासूम सा प्रश्न' उस उस माहौल को बयां करती है जिसमे परिवार के बच्चे तक अपनी छोटी छोटी फरमाईशों को ताक पे रख सिर्फ सुबह के गए अपने पिता के शाम तक सही सलामत लौट आने की राह देखते है। यह मासूम सा प्रश्न पूरी व्यवस्था पर खड़ा बड़ा सवालिया निशान है। परिवेश में व्याप्त भय और आशंकाएं हर पंक्ति, हर वाक्य में फुसफुसाहट की तरह सुनाई देता है-- सन्नाटे की तरह पाठक के मन में गूंजने लगता है-
मम्मा
अब्बू अभी तक क्यूँ नहीं आये
सहमी आँखों में मासूम सा प्रश्न
भर देता है एक और दर
आसमान अविरल रो रहा है
सड़क पर दौड़ती लाल नीली बत्तियां
सायरन की आवाजें...
टीवी के समाचार
मातमी राग गाते हैं
सूना है शहर में फिर कुछ धमाके हुए हैं।"
सच एक डर सा बैठ जाता है हर आने वाले पल को लेकर दिल में, इस कविता को पढ़ कर। खैर फिर भी ज़िन्दगी का दूसरा नाम उम्मीद है।अमित जी आपको आपकी कविताओं बेबाकपन और अल्हड़ता है। एक कवि का अपने माहौल की कठिन सचाइयों को जानते हुए भी सहज रहकर अपने भीतर की कोमल भावनाओं को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। अमित इस चुनौती पर खरे उतरते हैं।
अमृत सागर
आज की टिप्पणी बशीर बद्र साहब के एक शेर के साथ शुरू करना चाहती हूँ अर्ज़ है...
ये तुनकमिजाजी तो खैर उसकी आदत है
वर्ना उसने चाहत भी हमको इन्तहाई दी।
उम्मीद करती हूँ इस शेर को पढ़ते ही आपको मुस्कराहट ज़रूर आई होगी। जी बस ऐसे ही हैं हमारे शतदल के पांचवे कवि श्री अमृत सागर जी, जो की पेशे से पत्रकार हैं। इन्होने कवितायें दिल खोल के नहीं लिखी वरन कविताओं में अपना दिल खोल के रख दिया है। इनकी कविताओं में किसी उफनती नदी सा आवेग है। कवि ने समाज और सिस्टम के प्रति अपना सारा रोष अपनी कविताओं में उंडेल दिया है। ईश्वर हमें भेजता तो एक इंसान के रूप में है, मगर हमारा समाज हमें पैदा होते ही जाति और धर्म के आधार पर बाँट देता है। हमारे नाम के साथ जुड़ी हमारी जाति हमारा कद नापती है। हमारी जाति के आधार पर बताया जाता है हमें समाज में हमारा ओहदा, के हमें जूतों में रहना है या तख़्त पर आसीन होना है। अमृत समाज की इसी कट्टर सोच से आहत हो, उसकी भर्त्सना करते हुए अपनी कविता 'कायदे के सर' में लिखते हैं..
"पूरा नाम बताओ, पिताजी का नाम बताओ।
जैसे चंद सवाल ..
और सफ़ेद फानूस की सरमायेदार चमक
शब्दों की तपिश..
ताश के पत्तों की तरह, सब्जबाग बन ढह जाती है।
जिसके बाद घुटती साँसे
ज़ेहन की दीवारों पर अपना सिर फोड़ने लगती है
और आपके नाम का 'धड़'
महत्वपूर्ण नहीं रह जाता
क्यूंकि उसके पास कोई कायदे का सिर नहीं।"
आह्ह .. कितना निस्सहाय महसूस करते हैं हम इस कविता को पढ़ कर। ऐसा लगता है जैसे तमाचा है ये कविता पूरे समाज के मुंह पर।कचोटने लगता है मन अन्दर ही अन्दर। हमने ही बनाया है ये समाज और हम ही इसे ना बदल पा रहे हैं।कवि के मन में गुस्सा है, मानव की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं से। कवि क्षुब्ध है मानव के स्वार्थी रूप से। आज का मानव सिर्फ आगे बढ़ना जानता है। वह अपनी स्वार्थ सिद्धि की खातिर बनाता जा रहा है कारखाने, मिलें, बड़ी बड़ी बिल्डिंगे और काटता जा रहा है जंगलों को, सिकोड़ता जा रहा है बांधता जा रहा है नदियों को , और छूता जा रहा है आसमान।दिन-ब-दिन कम होते जंगलों और कांक्रीट के फैलते जाल को देख चिंता और आक्रोश व्यक्त करता कवि अपनी अगली कविता 'तुम्हारी मंशा' में लिखता है..
" मैं जानता था भेड़िये शहर
तुम मेरे सिर को अलग कर
मुझे सजा लोगे कंक्रीट के चबूतरे में...
सिर उठा निहारोगे मेरे उगते सिर को
फिर तुम्हारी साँसे जी उठेंगी
साथ ही जी उठेगी तुम्हारी आस्तीन
जिसमे छुपा राखी है तुमने
मेरे नए सिर को काटने की
धारदार मंशा।"
उफ़ अमृत जी, कितने पैने और नुकीले शब्दों का इस्तेमाल किया है आपने । सीधे दिल में चुभते हैं। आपके गुस्से से आपकी कवितायें तक नीली पढ़ गयीं हैं। सच है लेकिन जब दर्द असहनीय हो जाता है तो कराहता दिल चीख ही उठता है। पढ़िये विद्रोह का बिगुल बजाती इनकी एक और कविता ...'मैं बोलूँगा' की ये लाईने..
" तुम बोलोगे रात
मैं बोलूँगा दिन
तुम मेरी कनपटी पर
बन्दूक सटाकर बोलोगे
एक, दो, तीन...
मैं बोलूँगा
फ़िलास्तिन ! फ़िलास्तिन ! ! फ़िलास्तिन ! ! !
जब फ़िलास्तिन बोलना भी अपराध हो जायगा।"
अमृत जी कहते हैं के वो बागी हैं। बागीपन उनके खून में है। मगर कहते हैं ना के जहाँ ज्यादा गुस्सा होता है वहीँ सबसे ज़्यादा प्यार पनपता है। वहाँ की मिट्टी सबसे ज्यादा नम होती है। आखिर गुलाब तो काँटों में ही खिलता है और महकता है। बस इसी सौंधी सौंधी महक में महकती है अमृत जी की अगली कविता- गोरखधंधा... ये कविता मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आई है। आप भी पढ़िये और महकिये...
"आबे -हवा से ऐसी सौंधी सुगंध उठी
मानो खलिहान में दादीमाँ
मिट्टी के बर्तनो में रसोई बना रही हो...
तभी चेहरे पर अलसाई मगर फैलती आंखो को देख
लहराती हवा हौले से मेरे चेहरे को छूने चली आई
सहसा ठहरी और कानो में फुसफुसा के बोला
मैंने आज एक कविता पढ़ी है।
उफ़ कितना खूबसूरत लिखा है अमृत जी। सच हर एक शब्द को मैंने महसूस किया हवाओं में तैरते हुए। ईश्वर आपको और भी ज्यादा कामयाबी और सुकून दे, यही कामना है। आप यूँही लिखते रहें और प्रसन्न रहें। और यकीन माने ये दुनिया कभी तो बदलेगी।
अनंत भटनागर
अनंत भटनागर जी हमारे शतदल के छठे कवि अजमेर के रहने वाले हैं और श्रमजीवी महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। इनका लिखने का तरीका एकदम स्पष्ट है। सीधे सादे शब्दों में अपनी बात रख देते हैं बिना किसी घुमाव फिराव के लेकिन इनकी कविताओं को सामान्य श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।वैसे तो हर कोई सामजिक मुद्दों पर , नारी पर कवितायें लिखता है जो हमें अधिकतर एक सी ही प्रतीत होती है। किन्तु इनके जो टॉपिक होते हैं, वो काफी आम से होते हैं , जो हम अक्सर सोचते हैं, ज़ेहन में लाते हैं और भूल जाते हैं मगर उनका मुद्दा नहीं बनाते। जैसे इनकी कविता " वह लड़की जो मोटर साइकिल चलाती है" इस कविता के टॉपिक को पढ़ते ही मैं इसकी और सबसे पहले आकर्षित हुई। एक लड़की (विद्रोही लड़की) होने के नाते सबसे पहले मेरे ज़ेहन में ख़याल आया - चलाती है तो क्या हुआ? जिसका उत्तर उन्होंने अपनी कविता में दिया।
"विरासत में मिले हजारों साल पुराने खजाने को
मस्तिष्क में समेटते हुए क्या आपको नहीं लगता
की आकाश पाताल को पाटने से कठिन होता है
सोच की खाइयों को भर पाना..
और ..
इसलिए उस लड़की के सामने से गुज़रते हुए सोचता हूँ
क्या शादी के बाद भी
चला पायगी वह मोटरसाइकिल
क्या बदल पायगी वह वक़्त के पहिन्यों की रफ़्तार....
क्या वह आगे बैठी होगी और पति होगा पीछे सवार.."
सवाल के जवाब में मिले सवाल पर मैं निरुत्तर हूँ। क्यूंकि आज भी हमारे समाज में लीक से हटकर सोच रखने वाली औरतों का मज़ाक दस में से नौ औरतें ही उडाती हैं। अनंत जी आज के युग के कवि हैं। इनकी सोच में भी नवीनता है फिर भी ये मानते हैं के आज के इस अत्याधुनिक युग में हम जितने आज़ाद ख्याल और आत्म निर्भर हुए हैं उससे कई ज्यादा हम मशीनों के गुलाम हो गए हैं। ये आधुनिक युग मशीनी युग है इन मशीनों ने हमारे ज़ज्बातों तक पे अपना कब्ज़ा कर लिया है। "अपनी अगली कविता मोबाइल फ़ोन और प्रेम" में कवि कहते हैं-
इस गतिशील दुनिया में प्रेम के लिए लम्बी तपस्या / गहन साधना करने का समय नहीं है
अब किसी के पास।
इतने अन्तराल में तो किये जा सकते हैं अनेकानेक प्रेम
एक के बाद एक या फिर एक साथ
मोबाइल फ़ोन ने कर दिया है प्रेम करना बहुत आसान
सचमुच!
प्रेम की अनुपस्थिति में प्रेम करना होता है
बहुत आसन।"
अनंत जी आप बहुत अच्छा लिखते हैं, आपकी ये कविता भी एक बहुत बड़ा भावनात्मक कटाक्ष है। मैं समझ सकती हूँ आपकी भावनाएं, आपका गुस्सा। हाँ आज की दुनिया होती जा रही है कुछ हद तक आपकी इस कविता सी ही ... निर्मम... मगर फिर भी यकीन मानिए प्रेम किसी मोबाइल का मोहताज नहीं है, प्रेम तो दिल से दिल के कनेक्शन का नाम है। और जब तक आप जैसे भावुक लोग हैं प्रेम कैसे मर सकता है । हैना..
खैर... इनकी अगली कविता "दोस्तों के घर वही हैं "
अनंत जी मेरे पास कहने को अब शब्द नहीं बचे हैं सिर्फ आंसू हैं। सच मैं रोज़ इस कविता को जीती हूँ। आपने जितनी आसानी से अपनी भावनाओ को बहा दिया है इस कविता में मुझे उतनी ही मुश्किल आ रही है आंसू रोकने में। पढ़िये इनकी इस बेहद प्यारी और मासूम कविता की कुछ लाईने...
"वही रास्ते, वही गलियां हैं
वही दरवाज़े, वही खिड़कियाँ हैं
दोस्तों के घर वही हैं
दोस्तों से मिलना अब नहीं है आसान।
साँसों में बसी इन गलियों में
सिकुड़न बढ़ी है
इतनी भी नहीं/ कि, धमनियों से बाहर नहीं निकले आवाज़ पूरी ताक़त से पुकारने पर
धीरे से चरमराकर खुलता है दरवाज़ा
सिटकनियाँ कुछ सख्त हो गयी हैं
या उनकी आतुर बाहों में बेसाख्ता आ जाने का
नहीं बचा है साहस"
निशब्द हूँ सर... शत शत प्रणाम है आपको मेरा।
सच अनंत जी आप एक उच्च सम्मानीय पद पर आसीन है, मगर आपके शब्दों में आपके पद की धौंस कहीं नज़र नहीं आती। आप दिल से अब भी किसी बच्चे से मासूम हैं। हाँ मगर वो मासूमियत, दिल पे गहरा घाव कर देती है। आपकी अगली कविता सेज का मायावी संसार .. इस कविता के बारे में ज्यादा तो क्या कहूँ .. बस ऐसा ही एक शेर याद आ गया ... नए वादों का जो डाला है वो जाल अच्छा है.. दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है..
सच नेताओं का हिप्नोटिज्म और जानते बूझते मूर्ख बनते हम।
बहुत गहरा कटाक्ष है आपकी ये कविता। सीधे भेजे पर तनी बन्दूक सी लगती है-
"किसानो !
समझो ज़रा,
सौंप दो , अपनी हरियाली माता का हाथ, हमारे हाथों में
हम तुम्हारे हाथों को नोटों से भर देंगे।
आआह... सच नफरत हो जाती है अपने आप से। एक मूवी का डायालॉग याद आ गया।
युवा इसलिए कुछ नहीं कर सकते क्यूंकि उनके पास पॉवर है तो पैसा नहीं, और पैसा है तो पॉवर नहीं। और जहां दोनों है वहाँ भष्टाचार व्याप्त है।
अनिल कार्की
एक बेहद खूबसूरत सी जगह नैनीताल जिस जगह को सोचते ही चिलमिलाती धूप भी ठंडी ठंडी लगने लगती है, बस वहीँ से हैं हमारे शतदल के सातवे कवि श्री अनिल कार्की। सच बड़ी प्यारी सी शख्सियत है अनिल कार्की। इन्होंने अपनी कविताओं में पूरा उत्तराखण्ड बसा रखा है। इतनी पावन, इतनी संवेदनशील हैं इनकी कवितायें की मुझे उनके बारे में कुछ कहने से भी डर लग रहा है। बस बिना किसी भूमिका के बांधे, पढ़िए इनकी कविता- असहमतियां ..
"तुम मिलोगे मिलकर चल दोगे
और सूरज का चिथड़ा झांकता रह जाएगा
हाथों की नरमी के बदलते मौसमों सा
धूप छांह होता हुआ
चाय की गिलासों के तलों पर बच जायेंगी
असहमतियां...
सिगरेट की ठुद्दियों से उड़ता रहेगा
हमारी सहमतियों का धुआँ
जबकि पड़ी रहेंगी
उपेक्षित सी असहमतियां
शीशे के उन गिलासों में जिनमे भरी जानी है अभी
गर्म खौलती चाय
नए लोगों के लिए।
उपेक्षित सा ही क्यूँ रहता है हमारी असहमतियो का संसार, कभी सोचा??"
हाँ सोचा अनिल जी बहुत सोचा, और इसी तरह घूँट-घूँट चाय सा गले से उतारा भी। खैर साँझा है ये तो असहमतियों का दुःख सबका । अनिल जी की कविताओं में बेचैनियां हैं, छटपटाहट है दर्द है। लेकिन यह दर्द भी इतना निखरा निखरा सा नज़र आता है जैसे कवि ने दर्द से ही प्यार कर लिया हो। इतने प्यार से लिखते हैं। इनके द्वारा इस्तेमाल किये गए पहाड़ी शब्द कविताओं को और भी ज़्यादा खूबसूरत बना देते हैं।
अनिल कार्की जी की कविता पहाड़ पर पगडण्डी सीधे सादे पहाड़ी लोगों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की समस्याओं को और उनके हौसले को उजागर करती है। कितनी ख़ामोशी से बयाँ कर दिया है इन्होने ज़िन्दगी की उथल पुथल को-
जब घिरता है चौमास
छीज जाता है मडुवा*1 का आटा
मसाले विसोटे*2 पे पनियाने लगते है
सिलाप*3 से भर जाता है, गेहूं का भकार*4
इसी तरह पसरता है झड़*5
रिसने लगती है पाख*6
सड़ने लगती है मोल*7 की लकड़ी
धीरे धीरे टपकता रहता है आसमान
पाख के सूराख से,पीतल की परात पर
और बजता रहता है पानी आंख का कानों पर
अलौट*8 लकड़ी से निकलता रहता है धुंवा आसमान की तरफ
धरती वालों के प्यार की तरह
और एक दिन वे बना लेते हैं
आखिर पहाड़ पर पगडण्डी
और चड़ जाते हैं दरकते पहाड़ों के सीने में
अपनी भेड़ों और देवताओं समेत
नयी फसल बोने !
(1-एक मोटा अनाज 2- लकड़ी का मसाले रखने वाला बर्तन 3- सीलन 4- अनाज रखने का बर्तन 5 –लगातार पढने वाली वारिस 6- छत 7- दरवाजे का फर्मा 8 मोटा बिना छिली हुई लक्कड़)
अनिल जी की कवितायेँ हौले हौले बहती नदी सी। शांत सी दिखती है मगर इसकी थाह पाना बहुत मुश्किल है। बहुत कुछ है इस नदी के अंदर सिराये हुए दीयों से लेकर मरी हुई भावनाओं के शव भी। कुछ ऐसे ही भाव लिए हुए है इनकी अगली कविता 'इतिहास के पृष्ठों पर '
"आह कैसा समय है यह
उदासियों की कोख में जो पल रहे हैं
वो बड़े होंगे एक दिन
और अपनी कंचों भरी जेबों में समय ठूंसते हुए
पार करेंगे उम्र
और बनेंगे प्रेमी /प्रेमिकाएं
दिलाएंगे उम्र भर साथ निभाने का विश्वास एक-दूसरे को
पहचानेंगे ख़ामोशी की जुबां , उदासियों का मतलब
और निकालेंगे अपनी जेबों से समय को
कंचों की तरह बिखेर देंगे
इतिहास के पृष्ठों पर …।"
सच कितना सुकून मिलता है इन्हे पढकर जैसे शाम के वक़्त ढलता सूरज और घर को जाते पंछियों को देखने पर मिलता है। इनकी अगली कविता 'तोड़ देंगे जंगलों का मौन ' भी इतनी ही सुकून से भरी और सुखमयी है। पढ़ के देखिये .......
" दूर किसी पहाड़ पर कुहरे के भीतर गूंजेगी
शाश्वत खिलखिलाहटें
और बजेंगी घस्यरिनो की दरातियाँ
धीरे -धीरे ही छटकेगा कुहरा
आवाज़ें और साफ़ और हमारे करीब होती जाएंगी एक दिन
ठीक उसी वक़्त धार पर चढ़ेगा सूरज
और लुढ़का देगा
ढलानों पर मोतियों की तरह
रौशनी का घड़ा "
कई पुरस्कारों से सम्मानित अनिल कार्की साहित्य की हर विधा में पारंगत हैं। रंगमंच से भी जुड़े हुए हैं। इन्हे पढ़ने के बाद बस एक मौन सी मुस्कराहट पसर जाती है होठों पर । ऐसा मन करता है बस चुप्पी साधे मुस्कुराते बैठे रहो देर तक । इन पर तो वैसे ही माँ सरस्वती का हाथ है। फिर भी दुआ है के ये यूँही लिखते रहें और आगे बढ़ते रहें।
डॉ. अनीता कपूर
आज की औरत राजनीति जानती है , आज की औरत , सामाजिक और गैर सामाजिक मुद्दों पर खुल कर बोलती है, आज की औरत पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर चलती है , आज की औरत अपने हक़ के लिए लड़ती है। आज की औरत ये है आज की औरत वो है , मगर, …… आज की औरत, आज भी भावुक और संवेदनशील है। दुनियाभर की ज़िम्मेदारी निभाते हुए भी अपने जज़्बातों की नज़ाकत को बरकरार रखे हुए है , हमारी शतदल की आठवी कवयित्री डॉ. अनीता कपूर जी।
यूनियन सिटी कैलिफोर्निया की रहने वाली वाली पेशे से ज्योतिष डॉ. अनीता कपूर की कवितायेँ स्त्री के मन की नज़ाकत को और बेहद निजी सी अनछुई सी कोमल कोमल भावनाओं को बड़ी ही आहिस्ता बड़ी ही खूबसूरती से व्यक्त करती हैं। पढ़िए ऐसे ही अहसासों को बयां करती इनकी कोमल सी , छुइ मुई सी कविता ' तुम्हे छू लेती हूँ ' -
तुम्हे छू लेती हूँ
ख़ाली कागज़ पर शब्दों से
पेंटिंग में भर के रंग
ठहरे पानी में फेंक के कंकड़
बरसती बूंदो को तन पर छुआ कर
पेड़ से टपके पत्ते की शरारत से
तुम मेरे पास नहीं
फिर भी तुम्हे छू लेती हूँ अहसासों के कुण्ड में नहाकर
छूने के लिए पास होना ज़रूरी तो नहीं।
उफ़ ये खयाली इकतरफा प्यार , सच इसका खुमार ही अलग है। किसी मृगतृष्णा सा। किसी को पाने की आस में ख्यालों के पीछे भागना, भागते रहना ......... ईश्वर के और करीब ले आता है ये जज़्बा। इनकी कविताओं में यही इकतरफा प्यार नज़र आता है। इसमें अकेले हो के भी इंसान अकेला कहाँ है। इक ख्याल एक आस सदा साथ रहती है। कभी दर्द बनकर तो कभी ख़ुशी बनकर। कविता 'अलाव ' मन के इसी एकाकीपन और भावनाओं की उथल पुथल की व्यथा है-
"तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आंच से
समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूं
या एक और नयी कविता के लिए "
सच कहा आपने अनीता जी उससे मिलना भी किसी कविता सा और बिछड़ना भी। अनीता जी गिने चुने शब्दों में बिना किसी बनावट के अपने दिल की बात कहने का हुनर रखती हैं। जज़्बातों का समंदर है इनकी हर एक कविता। इनकी कविताओं में इनका ही अक्स नज़र आता है। ऐसा ही कविताओं से गहरा रिश्ता, आत्मीय जुड़ाव इन्होने अपनी अगली कविता 'सीधी बात' में व्यक्त किया है। कवयित्री कहती हैं कि .
ऐ कविता
तुमको महसूस किया मैंने, नसों में रगो में
जैसे तुम हो गयी, मेरा ही प्रतिरूप
शब्दों के मांस वाली जुड़वाँ बहन …"
कविता 'आत्मनिर्णय' अपने मन की बात कहने में अक्षम स्त्री के अंतस की पीढ़ा को बखूबी व्यक्त करती है। सच एक स्त्री अपने रिश्ते को बचाने की खातिर अपना अस्तित्व तक दांव पर लगा देती है। हर बात में हामी भरते भरते वो ये भी भूल जाती है के वो खुद भी एक सोच रखती है।
" मैं चुप रही
तुमने मेरी चुप को
अपने लिए सुविधाजनक मान लिया था।
मैं खुराक के नाम पर सिर्फ
आग ही खाती रही थी।
तुम तो यह भी भूल गए थे कि आदमी के भीतर भी
एक जंगल होता है
और आत्मनिर्णय के संकटापन्न क्षणों में
उग आते हैं मस्तिष्क में
नागफनी के कांटे
हाथों में मज़बूती से सध जाती है निर्णय की कुल्हाड़ी। "
अनीता जी की कवितायें उनके ह्रदय की तरह सरल और सच्ची हैं। ईश्वर करे इनकी कविताओं की यह सरलता बरक़रार रहे।
अंजनी शर्मा
अरे एक दम ताज़ा ताज़ा हवा के झोंके सी कवितायें हैं साहब हमारी शतदल की अगली, नौवीं कवयित्री अंजनी शर्मा जी की। भाषा एकदम सीधी, सच्ची, सरल सी, जैसे दुनियादारी से अनभिज्ञ कोई अपनी ही धुन में मस्त मलंग सी लड़की। शब्द ऐसे नए नए कोरे कोरे जैसे के नयी नयी नमक लगी कच्ची केरियां। जैसे के खट्टी मीठी बेरियाँ। आह्हा।
चख के देखिये ज़रा। चखने का कोई दाम नहीं। उठा लीजिये कोई भी अंतरा पेज न.उन्यासी से तिरियासी तक। खुली पड़ी है किताब, आप ही के वास्ते। हाँ ये ध्यान रहे कि कवितायें बिकती नहीं हैं , खरीद लेती हैं अपने पाठकों को। तो जेबें ना टटोले। दिल को टटोलें।मोहतरम-मोहतरमा। तो कहिये कौन सी पढ़ेंगे ? ये रेशम सी कविता आह्हा 'ये नन्ही सी लड़की' बड़ी ही मासूम कविता है , प्यारी सी , निश्छल और निर्मल। किसी परिकथा सी। पढ़िये और खो जाईये कल्पनाओं की दुनिया में। यहाँ हर ख्वाब सच है। पढ़िये-
नदी की कोर को पकड़ कर अपने दुपट्टे सा
तह कर रख दिया था तारों को भी मांज धो कर सजा दिया था
बर्तनों की अलमारी में
आँगन में फैले पड़े आसमान को भी पोछकर चमका दिया था
आईने सा
बेलों को गूंथकर सजा ली थी
चोटी अपनी
निपटा चुकी थी सारे काम
वो नन्ही सी लड़की
बस अब तितली पकड़कर
उसके मखमली रंगों से
हाथों पर मेहंदी सजाना बाकी था।
है ना प्यारी। खिंच गया ना चेहरे पे मुस्कराहट का गहरा सा कर्वे। अरे और देखें बहुत बाकी है अभी , ये देखिये ये सबसे पहली उन्यासी न. पेज की ..अजी बड़ी प्यारी कविता है। व्यस्त सी ज़िन्दगी से ज़रा निकले समय की बात कहती। मशीनी ज़िन्दगी जीते जीते हम खुद को भी भूल जाते हैं। रोज़ सीढ़ियाँ उतरते चढ़ते , भागते बस पकड़ते , किचन के डब्बों से लेकर फाइलों में झांकते , हमें ये दुनिया रोज़ एक सी ही लगती है। मगर जब खुद से फुर्सत पा, देखते हैं गौर से तो पाते है कि कितना कुछ है जो बदलता जा रहा है। बस इसी दर्द इसी बेचैनी इसी अहसास को बयाँ करती है ये कविता 'बहुत दिनों के बाद'
"बहुत दिनों के बाद
जब झाँक कर देखा खिड़की से
तो नज़र आया
कि पडोसी का बोगनबेलिया दीवारें फांदकर
हमारी मधुमालती से आँखे चार कर रहा है।
आह कितनी खूबसूरत कविता है। मैं हतप्रभ हूँ अंजनी जी, आपने कितने निराले तरीके से ये बात कह दी । ये बातें फूलों की है या नए नए जवान हुए बच्चों की। उफ्फ्फ.. अरे माफ़ करना ज़रा बातों में लग गयी थी। आप तो आगे पढ़े ..
बहुत दिनों के बाद बाड़ के पार देखा तो पाया कि
चौकीदार के पाले हुए पिल्ले
अब नज़र नहीं आते
अपनी माँ के साथ घूमते
ज़रूर बड़े हो गए हैं.....
वाआअह कितने निराले तरीके से मारा है ये तंज़ आजकल की युवा पीढ़ी पर। ओह्ह माफ़ कीजिये मैं फिर से कहीं खो गयी थी । आप तो ये पढ़िये । संभाल के ज़रा। बड़ी कीमती है ये कविता ' एक लड़की जो कविता लिखती है' ये कविता है एक औरत के पपड़ा चुके नर्म नर्म अहसासों की।नए नए ख्वाबों को संजोती लड़की की और उन्हें तांक पर धर भूल झाड़ू लगाती चुल्हा फूंकती औरत की । पढ़िये..
"न जाने क्यूँ अब उसकी कविताओं में
घुल मिल जाता है,
धोबी को देने वाली कमीजों का हिसाब।
उसकी कविता की डायरी के पीले पड़े पन्ने अलमारियों में तह कर रखी साड़ियों के नीचे से
कभी-कभार बाहर सरक आते हैं। पर बाहरी दुनिया की आहटों से खुद-ब-खुद भीतर चले जाते हैं।
एक औरत के मन की छटपटाहट और बेचैनी को बड़े ही सहजता से व्यक्त किया है अंजनी जी ने। चलिए दिल ना छोटा कीजिये , ये तो हर औरत की कथा है। आप तो ये पढ़िये, इनकी अगली कविता माँ। 'माँ' ये शब्द अपने आप में ही एक पूरी नज़्म है। सिर्फ माँ कहने भर से ही दिल भर उठता है जज्बातों से। ऐसा कोई कवि नहीं जिसने माँ पर कविता ना लिखी हो। आप सोचेंगे फिर इसमें क्या नया है। हाँ इसने भी वही माँ है और उसकी वही पुरानी सर पे पल्ला ढकने की आदत। पढ़ के देखिये..
ज्यों ही खटखटाता है कोई दरवाज़ा
या होती है, किसी के आने की आहट
माँ अब भी झट से पल्ला खींचकर ढँक लेती है अपना सिर।
की आ रहा होगा परिवार का बड़ा बुज़ुर्ग।
नहीं जाती है माँ की ये पुरानी आदत
झीनी साड़ी से अब झांकते हैं माँ के सफ़ेद बल
माँ भूल गयी है कि अब परिवार में नहीं रहा उनसे कोई बड़ा बुज़ुर्ग।"
अंजनी जी नमन है आपको , आपकी इस कविता को , और आपके इस अहसास को।
अंजू शर्मा
यथार्थ के आधार पर टिकी होती हैं हमारी शतदल की अगली दसवी कवयित्री सम्माननीय अंजू शर्मा जी की कवितायें। हाँ लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की इनकी कवितायें भावना विहीन हैं। जो यथार्थ है उसका आधार ये भावनाएं ही तो हैं। आँखों देखा सच कहले कहते भर लेती हैं अपनी आँखों में आंसू। मगर उन्हें बहाती नहीं हैं । उन्हें तपाती हैं यथार्थ की आंच पर और शब्दों में ढाल छोड़ देती हैं। इनके शब्द टेडी बियर से खेलने वाले शिशु से नहीं हैं बल्कि तपती कोलतार की सड़क पर नंगे पाँव कचरे का थेला लिए भटकने वाले बच्चे हैं । ये सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं। इनकी कविताओं का दर्द निजी नहीं सामाजिक है।इनकी कविता , अच्छे दिन आने वाले हैं' राजनेताओं केे दोगलेपन पर गहरा और तीखा कटाक्ष है। पढ़ के देखिये...
ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुए
आशाओं के सिरे तलाशने की।
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की ।
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की।
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदों और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट पर कान बंद कर लेने की
कैसा समय है कि वह एक मुस्कान के आने पर घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यूँ नहीं लेता की अच्छे दिन आने वाले हैं।"
उफ्फ्फ..... अंजू जी...... क्या कहूँ... सच ये अच्छे दिन आने वाले हैं जुमले पर भरोसा करना तो ऐसा है जैसे किसी मुर्दे के फिर से जी उठने पर भरोसा करना। और शायद ये भी सच हो जाये मगर अच्छे दिन..... !!!!!!ये इन नेताओं के चुनावी वादे , किसानो को मुफ्त बिजली मिलेगी, पानी मिलेगा , और युवाओं को रोज़गार मिलेगा। हर बच्चा स्कूल जायगा। वाह जी वाह। कितनी प्यारी प्यारी और लुभावनी बातें करते हैना , ये नेता लोग। और हम भी हंस कर मान लेते हैं। मुझे आश्चर्य होता है जब लोग इन राजनेताओं को भगवान् की तरह पूजते हैं। उनकी मूर्ती बनाते हैं। उनके लिए आत्मदाह तक करने को तैयार हो जाते हैं। अरे इन अंधों को वो भूखे मरते आत्महत्या करते किसान नज़र नहीं आते । और हम भी तो बस खुद से मतलब रखते हैं। हमारे लिए भी तो चुनाव महज़ एक टॉपिक हो कर रह गया है। पढ़िये ऐसे ही कसैलेपन को बयान करती हमारी आत्मा को झंझोरने का प्रयास करती अंजू जी की अगली कविता चुनाव से ठीक एक रात पहले।" ये कवितायें लिखे जाने का समय तो बिलकुल नहीं है जबकि अतिवाद के पक्ष में गगनचुम्बी नारे काबिज़ हो कविताओं पर ये दरअसल खीज कर, घरघराते गले से उबल पड़ने को आतुर चीख को लगभग अनसुना कर जबरन खुदको अखबार में खो देने के दिन हैं। इन दिनों ये अनुमान लगान कठिन है कि पानी का स्वाद कड़वा है या आपके अवसादग्रस्त मन की कडवाहट घुल गयी है गिलास में। " उफ़ अंजू जी .... सच ये जाने कैसा समय है। ऐसा लगता है के हमारा मस्तिष्क कोमा में चला गया है। हम देख सकते हैं सुन सकते हैं। मगर हमारी महसूस करने की और प्रतिक्रिया करने की क्षमता समाप्त हो गयी है।
हम महज़ कठपुतली हो कर रह गए हैं।
सोचिये तो ये चंद नेता हम ( कितनी जनसँख्या हो गयी होगी हमारी 1 अरब तो क्रॉस कर गए हैं शायद) अरबों लोगों पर राज कर रहे हैं और हम हमारी ये धर्म जाति समाज वगैरह वगैरह की टुच्ची सोच से ही बाहर नहीं आ पा रहे। पढ़िये ये कविता ... अंजू जी की मनु ...
" कर्म से कबीर और रैदास बने मेरे परिजनों के लिए
क्षीण होती तिलक की लालिमा या फीके पड़ते जनेऊ का रंग
नहीं छू पाए चिंता का वाजिब स्तर
हाशिये पर गए जनेऊ और शिखा
नहीं कर पाए कभी दो जून की रोटी का प्रबंध
क्यूंकि वर्णों की चक्की से नहीं निकलता है
"जून भर अनाज
निकलती है तो केवल
लानतें
शर्म से झुके सर,
बेवजह हताशा और अवसाद"
..... क्या हुआ ?? कलप गयी ना आत्मा... यथार्थ ऐसा ही तो होता हैंना.. भावनाओं की लाश पर टिका।
चलिए छोड़िये , मन खट्टा ना कीजिये। एक और कविता सुनाती हूँ। वैसे तो यह कविता भी हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का एक आम सा पहलू है। कोई कोरी गप नहीं हैं। वैसे भी औरतों से जुड़ा कोई भी मुद्दा काल्पनिक नहीं होता। हाँ इस कविता का विषय औरतें हैं। और वो भी फेसबुक से जुड़ी चालीस साला औरतें।
लोगों की नज़र में औरतों की विशेषकर फेसबुक से जुड़ी औरतों की इमेज कोई खास नहीं होती है। उनकी नज़र में ये एक छिछोरापन हैं। नहीं ये बात सच है। मैंने खुद इस तंज़ को झेला है। और फिर अगर कोई चालीस पार औरत हो तो फिर तो उनके खून में उबाल आना ही है। ज़माने की सोच को तो हम अच्छे से जानते हैं मगर क्या इन औरतों की सोच को हम कभी महसूसते हैं , जो उस वक़्त फेसबुक से जुड़ती हैं जब वो अपनी आधी ज़िन्दगी घर परिवार , बच्चे , आदि इत्यादि में गुज़ार चुकी होती हैं। ज़िन्दगी के सारे खिलते और उड़ते रंगों को तो वो देख चुकी होती हैं। फिर उन्हें कौनसा सुकून मिल जाता है इस फेसबुक से जुड़कर ?? .. पढ़िये कितनी ख़ूबसूरती से बयान किया है इन्ही जज्बातों को... अंजू जी ने अपनी अगली कविता "फेसबुक पर चालीस साला औरतें "मे
अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग वे नहीं धॊन्ध्तिहैन देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर
भूल जाती हैं ज़िन्दगी की आपाधापी
कर देती हैं शेयर एक रोमांटिक सा गाना
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता
पढ़ पाओ तो पढ़ो इन्हें
की वे औरतें इतनी बार दोहराई गयी कहानियां है
किउनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी
उनके प्रोफाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रसिद्ध हैं अपने आभासी जीवन में इन्द्रधनुष के सातों रंग
जी हाँ वे फेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें है।"
साहित्य के क्षेत्र में कई सारे सम्मान प्राप्त श्रीमती अंजू शर्मा जी कविताओं के साथ साथ कहानियाँ भी लिखती हैं। इनकी कई किताबें बोधी प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित हुई हैं। इनकी लिखाई में परिपक्वता है। व्यवहार मव उतनी ही मधुरता। अंजू जी ईश्वर आपको और कामयाबी दे। और आप ऐसे ही अच्छा अच्छा लिखती रहें।
अर्पण कुमार
शतदल के ग्यारहवें कवि हैं श्री अर्पण कुमार जी । आप स्टेट बैंक में कार्यरत हैं। इनकी कविताएं भी इनके किसी बैंक स्टेटमेंट की तरह ही ज़िन्दगी का एकदम नपा तुला लेकिन ईमानदार चिट्ठा लगती हैं।इन्होने शतदल को अपनी उम्दा कविताओं से नवाज़ा है। इनकी सबसे बेहतरीन कविता अँधेरा, इंसान की दिन-ब-दिन बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर गहरा आक्षेप करती है। महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है। बुरा है उसका स्वार्थ से गठबंधन। हम आगे बढ़ने के चाह में सही और गलत का फर्क ही भूल गए। और हमने चुन ली अपने ही विनाश की राह। और गड़बड़ा दिया प्रकृति के संतुलन को। पढ़िये इनकी 'अँधेरा' कविता की ये शानदार लाईनें....
"प्रकृति की विरासत से तुम्हे
दिन और रात बराबर मिले थे
सबको बराबर मिला था, प्रकाश और अन्धकार
दुनिया तब एक दिखती थी
मगर जब तुमने ढूंढें रौशनी के विकल्प
उसके कतरों में बंट गयी दुनिया
जिसके एक बड़े हिस्से में चला आया अन्धकार
जी कहीं अधिक अप्राकृतिक अन्यायपूर्ण
और भयावह है।
प्रकृति की तुला पर तुम सबका वज़न एक था
मगर उसकी डंडी जब तुमने
थामी
मालिक बना तो कोई नौकर
शोषित बना तो कोई शोषित
पूँजी पति बना तो कोई सर्वहारा"
सही कहा अर्पण जी आपने। हमने
अपनी महत्वाकांक्षाओं की खातिर प्रकृति
का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया। तभी तो प्रकृति हमसे
शुब्ध है। जिसकी वजह से हमें रोज़ के भूकम्पों का
सामना करना पड़ रहा है।
इनकी इसी कविता का ये वाला हिस्सा मुझे
सबसे अच्छा लगा , आप भी पढ़िये-
" तुमने मनुष्यों की मंडियां लगाई
गुलामों की खरीद फ़रोख्त की
उन्हें पशुओं के पैरों में बांधकर
दौड़ प्रतियोगिता का मज़ा लिया
अपने विरोधी स्वरों को कतारबद्ध कर, निस्संग भाव से
'कांसनट्रेशन कैंप' के हवाले किया।
तो कभी उनके शहरों पर एटम बम गिराकर
उन्हें पल भर की रौशनी में ऐसा नहाया कि
आगे आने वाली उनकी कई नस्लें
रौशनी के भय से अपनी आँखे ना खोल
सकी।"..... याद आया आपको वो दिल दहला देने वाला मंज़र, वो अमेरिका का हिरोशिमा-नागासाकी पर अणुबम का हमला। उसके बाद तो जाने ऐसे कितने नागासाकी उजाड़े गए होंगे। एक आम इंसान कभी युद्ध नहीं चाहता। मगर युद्ध होता रहा । एक बेक़सूर आम आदमी को हमेशा हाशिये पर रखा जाता रहा। उससे वो कराया गया जो उसने कभी नहीं चाहा। कभी डरा धमका कर कभी ललचा कर। हाशिया …………..अर्पण जी की एक और शानदार कविता.......
"मैं बतला सकता हूँ कहाँ क्या लिखते हुए वह रुका था
हिचका था
और जो कहने के लिए बैठा था उसे छोड़कर
मजबूरी में और ज़्यादातर स्वभाववश,
या फिर आकर प्रलोभन में तो कभी होकर भयाक्रांत
किसी सत्ताधीश से
या गिरफ्तार हो किसी मठ के शक्ति केंद्र के आकर्षण में
जाने क्या क्या अनाप शनाप लिखता रहा था "
आह कितनी आसानी से भर दी आपने अपनी बेचैनियां शब्दों में। ये बेचैन से शब्द जाने कहाँ कहाँ बिखर कर उथल पुथल मचाएंगे। और शायद यही उथल पुथल कारण बन जाए बदलाव का आपको पढ़कर मुझे दुष्यंत कुमार जी का वो शेर याद आ गया मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम
तू ना समझेगा सियासत , तू अभी इंसान है। …………।
इस हाशिया कविता का एक और अंतरा सुनिए। इसके माध्यम से अर्पण जी ने हाशिये की महत्ता बतायी है। या यूँ कहें एक आम आदमी की ताक़त की-"लिखा हुआ गलत हो सकता है
बदला जा सकता है
कोई अमिट आलेख वक़्त के हाथों
कुछ भी अंतिम नहीं हैं
इस स्थापना की शुरुवात में आप मुझे ही
पाएंगे
हरदम हर जगह
तत्पर किसी बदलाव को जगह देने के लिए "
ऐसा लगा जैसे अर्पण जी ने कठोर दुनिया असली चेहरा दिखा डरा भी दिया और फिर दुलार के उम्मीदों को आँखों में रख भी दिया। सच बड़े प्यारे कवि हैं अर्पण जी। हम हमेशा कवि के दुःख को निजी और सामाजिक के आधार पर विभाजित करते हैं। यहाँ वो अपनी प्रेमिका माँ बेटी बहन के लिए आंसू बहा रहा तो ये उसका निजी हुआ, और बाकी सामाजिक हुआ। लेकिन सच कहूँ तो मेरा ऐसा मानना है की दुःख का कारण भले कुछ भी रहा हो वो निजी ही हो जाता है। अपना ही जना ... सगा। सच कहूँ तो ये ख्याल मुझे इनकी कविताओं को पढ़ कर ही आया।
ऐसा नहीं कि कवि का खाता एकदम नीरस या शुष्क विचारों से भरा है। सच तो यह है कि बहुत भावुक हैं अर्पण जी। इनकी अगली कविता 'बुआ को सोचते हुए' एक बहुत ही आम सा ख्याल है। आज की ज़िन्दगी में जहां परिवार बंटते जा रहे है, वहीँ लोगों की सोच में भी संकीर्णता आती जा रही है। रिश्ते सिर्फ नाम मात्र के रह गए है। अपनत्व तभी तक कायम है जब तक रिश्ता घर की देहलीज़ के बाहर है। देहलीज़ के भीतर आते ही रिश्ता बोझ बन के रह जाता है। ये कविता अर्पण जी ने एक शिकायती लहजे में लिखी है। इसे शिकायत कहें या अपने अंतर्मन की कसमसाहट... देखिये....
"जब उसका अपना बसा घर उजड़ा
उस अभागी, निरंकुश गृहस्थिन को
एक घर चाहिए था
और उसने
तेरा घर चुना
माँ और हम सभी उकता जाते थे
जिससे
कोख सूनी , एकाचारिणी की
वह स्वार्थ संकीर्णता
तुम्हारे हित में होती थी
अपना सबकुछ देकर भी वो तुम्हे रास ना आई
पिता।
कभी कभी याद कर लेना
अपनी उस अवांछित लौह बहन को
जो तेरे लिए लड़ी
अंत अंत तक नि:स्वार्थ
दुत्कारे जाने के बावजूद।"
सच कितनी बेबस हो जाती है एक मजलूम बेसहारा औरत। सर से साया छिन जाने के बाद। अर्पण जी की हर कविता पाठक को खुद से जोड़ लेते है। हम कविता के साथ साथ बहते हैं। कविता ख़त्म हो जाती है मगर उसी दिशा में भटकते रहते हैं। इनकी अगली कविता "दिल्ली में जहानाबाद" एक बेमिसाल कविता है। जहानाबाद जिसका नाम सुनकर ही आत्मा काँप उठती है। उसी जहानाबाद के बारे में अर्पण जी कहते हैं की " मैं जहानाबाद के आतंक को लोगों के डाइनिंग टेबल से हटाना चाहता हूँ।" मगर सच तो ये है अर्पण जी के लहू के इतने गहरे दाग आसानी से नहीं छूटते। मुझे आपकी ये कविता आपका अपनी जन्मभूमि के लिये इतना प्यार बहुत अच्छा लगा। आपने सच कहा के किसी एक हिस्से में हुए हादसे से पूरा गाँव बुरा नहीं हो जाता। मगर फिर भी डरना एक इंसानी फितरत है, और डर से उबरना भी। सच मुझे आपकी हर कविता बहुत अच्छी लगी। और सबसे अच्छा लगा आपका किसी माँ की तरह डराकर फिर से बहलाना , हिम्मत दिलाना उम्मीदे देना। या जैसे किसी गुरु की तरह , कबीर दास जी कहते हैना
गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढे खोट
भीतर आप सहाय दे, तब बाहर दे चोट।
(इस दोहे को लिखते ही मुझे माया मृग सर जी भी याद आगये , आज के कबीर हैं माया मृग जी। ) अर्पण जी आपकी कविताओं में बहुत अपनत्व है। आप यूँही लिखते रहे। आपको मेरी बहुत सारी शुभकामनाएं।
अरुण शीतांश
हमारे आज के तेरहवे कवि हैं विचारक, आलोचक, संपादक और कवि अरुण शीतांश जी जो की साहित्य के क्षेत्र में जाना पहचान नाम हैं। अरुण जी की कविताओं में सामाजिक प्रतिबद्धता नज़र आती है। वे चाहते हैं आने वाले समय में कारखानो और गाड़ियों के काले काले बादलों के बीच से अपने बच्चों के लिए खुला साफ़ सुथरा आसमान लाना। और उस आसमान में उनके सपने उनके अरमान टांकना। एक हरी भरी, झर झर झरते झरनों और कलकल बहती नदियों से घिरी और सूरज की चमकती किरणों से रोशन, तो कहीं इंद्रधनुषी रंगों में रंगी हुई धरती लाना अपने बच्चों के लिए। आह .........कितना मीठा ख्वाब है ये। काश के ये सच हो काश ........... वे चिंतित हैं भविष्य के लिए, आज को देखकर, के कहीं मशीनो पे जीता मानव कहीं मशीनी ही होकर ना रह जाए। पढ़िए आप भी क्या कहते हैं वो अपनी कविता में ........
"हम छोड़ दें
जल
हवा
रोशनी
अपने बच्चों के लिए"
ये चार शब्दों में कही गयी गहरी सी बात, डरती हूँ कहीं अनसुनी कर भूल ना जाए वक़्त। मगर कवि को यकीन है की वक़्त बदलता है, और बदलेगा ही। आज का चोट खाया इंसान कल को सम्भलना सीखेगा। और बदलेगा अपना चलन। पढ़िए ये खूबसूरत सी उम्मीदों भरी लाइने ........
"समय के साथ
बहुत कुछ बदल जाता है
पृथ्वी की गति
सूरजमुखी के फूल की तरह है "
हैना प्यारा पृथ्वी और सूरजमुखी का फूल
…… वाह इनकी कल्पनाओं का संसार भी निराला ही है। और जायज़ भी है एक नन्हे से बच्चे के लिए स्वेटर की तरह कल्पनाओ का बुनना। उसके टिमटिमाती आँखों के लिए नन्हे नन्हे तारे लाना और , और छोटे छोटे हाथों के लिए चाँद ले आना टॉ िफयों सा । सच बड़े ही प्यारे होते हैं बच्चे। हमसे सबसे। जाने कैसे होते हैं वो लोग जिनका कठोर ह्रदय बच्चों के लिए नहीं भी नहीं पिघलता। अफगानिस्तान का हादसा याद है ना आपको। हर कोई चाहता है के उसका बच्चा सुरक्षित हो खुली हवा में साँस ले। पढ़िए इनकी कविता की ये प्यारी सी मन को मोहती पंक्तियाँ .........
"फिर वश चले तो तुम्हें आकाश कर दूं
हरे पत्ते
पेड़ों की डाली
तितली जरुर
ताकि उड़ सको भरपूर"
सच कितनी प्यारी बात है। कितनी प्यारी सोच। कितने खुशकिस्मत होते है वो बच्चे जिन्हे इतना प्यारा माहौल मिलता है खुला खुला सा। और कई तो गरीबी की कोख में पले बच्चे तो आँख खुलते ही देखते हैं काले रंग का धुंए से भरा आसमान जिसके नीचे जलती सड़कों पर तेज़ चलती गाड़ियां और उसे थामे भीख मांगती माँ। वो निहारता है दुत्कारती नज़रों को। ढूंढता है उनमे ही कोई अपना जो उसे इतने ही प्यारे लफ़्ज़ों से पुकारे।
इन्ही की अगली प्यारी सी कविता 'सोच'....... चिन्तन सहज रुप से कवि का साथी है, मगर वो कहते हैं की मैं सोचकर नहीं सोचता। हैं ना अलग सी बात। कवि के शब्दों में-
"सोच रहा हूं
सोचकर नहीं सोच रहा हूं
तब तक आप सोचें"
कवि तय करके कविता में विचार नहीं लाना चाहता। उसे पता है कि सायास लाए गए विचार से, जबरन ठूंसे गए विचार से कविता का भाव कमजोर पड़ सकता है। इसलिए वह सहज चिन्तन को ही कविता का हिस्सा मानता है। कवि का का यह मानना भी कि सोचना केवल कवि तक सीमित ना रहे जाए---वह समाज में प्रसारित हो--- तभी उसके चिन्तन की सार्थकता है। अच्छी कविता है। आज की परिस्थितियों पर आधारित है।
किसी पर भी कटाक्ष करना , कम आंकना , बिना खुद प्रयास किये ये कह देना कि कि यह देश तो ऐसे ही रहना है सुधारा जा ही नहीं सकता। अरे आप नया सोचें तो। अपनी सोच बदलें तो। पढ़िए इस प्यारी कविता की कुछ लाइने ...........
किसी को चाकू नहीं घोंपे
सोचे
हर जगह हर प्रहर सोचें
नोचे नहीं भाई साहब सोचें
बहुत सही कहा है कवि ने। किसी को
नोचे नहीं भाई साहब सोचे। ……
किसी पर टीका टिप्पणी करने
से पहले सोचे। किसी पर आरोप मढ़ने से पहले सोचे।
किसी को सीधे ही चाक़ू नहीं घोंपे। सोचें। शीतांश जी इतनी खूबसूरत कविताओं को रचने के लिए धन्यवाद आपका। आप यूँही लिखते रहें।
अरुण चवाई
बड़े ही खास बड़े ही प्यारे और बड़े ही संवेदनशील हैं हमारे शतदल के बारहवे कवि सम्माननीय श्री अरुण चवाई जी। इतने सहज भाव के हैं कि इनसे मिलते ही एक अपनत्व का रिश्ता जुड़ जाता है। और संवेदनशील कितने, ये तो आपको इनकी कवितायें ही बतायेंगी। हाँ लेकिन बड़ी कंजूसी से शब्द वापरते हैं। जबकि इनकी खुद की कई खदाने हैं। मगर भावनाएं उनमे ठूंस ठूंस के भरी होती है। जो कि आज ख़त्म सी होती जा रही हैं।
या यूँ कहूँ के कम शब्दों के गहरी बात कह जाते हैं। वो दोहा सुना हैना आपने ...
सतसैया के दोहरे, जो नाविक के तीर
देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर
बस बिलकुल ऐसे ही हैं हमारे अरुण सर। साहित्य में इनका एक अपना अलग ही मुकाम है। पढ़िये इनकी पहली कविता । जो कि बड़ा गहरा कटाक्ष करती है आजकी राजनीति पर।
"जेबें तो सब उसकी हैं
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे हमारे कपड़ों में सिली हैं।"
है ना जोरदार। सीधे बन्दूक की गोली सी दिल के आर पार हो जाती है। सोचने पर मजबूर कर देती है इनकी हर कविता। सच कहा आपने सर, जेबें तो सब उसकी है ... मगर मैं सोचती हूँ की उसकी जेब है तो क्या हुआ, क्यूँ न हम उसकी सिलाई ही उधेड़ दें। ऐसे ही तो पनपती है बगावत। जब लुटेरे पूरी तरह से लूट कर घोटने लगते हैं गला। तब कहीं जाकर उखड़ती साँसे गहरी हुंकार भरती है। पढ़िए अरुण सर की एक बहुत ही शानदार कविता इसी बगावत का ऐलान करती हुई .......
"सूर्य छिपते ही खाइयों में बिना आहट
काली वर्दियां पहन कर बढ़ चले सैनिक
बस्तियों पर तेज़ हमला क्रूर
हड़प कर सारा इलाका रात के राजा ने
अपने अनुचरों के साथ आकर, घोषणा की शांति की
चुपके चुपके लालटेनों में मगर कुछ मशवरे जलने लगे"
निशब्द हूँ अरुण सर मैं आपके आगे। नमन है आपको मेरा। सच एक दृश्य सा सामने आ गया। और उबलने लगा खून। आज अमन और शांति सिर्फ उन्ही के हिस्से है जो सुखी है संतृप्त है। जिन्होंने अपना पेट भर लिया है। मगर जो भूख से बिलबिला रहे हैं वो कैसे शांत रहें। विद्रोह तो जन्म लेगा ही. क्या कहूँ इसके आगे। ये कविता ही सबकुछ कह रही है।जब इतनी सारी समस्याएं हमारे सामने होती है , जब ऐसा लगता है की अब कोई राह ही नहीं है निकलने की कहीं से, किसी गली, किसी खोपचे से। हम ऐसे में उस ईश्वर से लड़ते हैं, उससे शिकायत करते हैं। मगर ये मानते ज़रूर हैं की वो है। पढ़िए अरुण सर की एक बहुत ही खूबसूरत सी भावपूर्ण कविता, एक शिकायती लहजे में-
वह पूरा है,
लेकिन उसकी हर कृति अधूरी है
वह अमर है,
लेकिन मरणशील चीज़ें बनाता है
वह पहले ही प्रयास में
एक सीधी रेखा तक न खींच पाता
बार बार खींचता है
बार बार मिटाता है
वह खिलौने बनाता है
उनमे चाभी भरता है
लेकिन उस पर काबू रखना नहीं आता है।
सर आपके आगे तो वो कटघरे में खड़ा ईश्वर भी निशब्द हो गया है। हाँ मगर उसे इस बात का गर्व ज़रूर होता होगा की उसने आपको बनाया। जैसे एक पिता को होता है। अरुण सर शिक्षा व्यवसाय से जुड़े हैं। और एक जुझारू इंसान हैं। इनका मानना है की व्यक्ति की समस्याओं का समाधान समाज से पलायन में नहीं बल्कि सबके साथ मिलकर संघर्ष करने में है। उनकी कवितायें भी उनकी इसी सोच का आईना हैं। हाँ सर आप बिलकुल सही सोचते हैं। लेकिन हमें पहले तो साथ रहना ही सीखना होगा। अभी तो हम साथ रहना ही नहीं जानते। हम एकीकरण नहीं एकाधिकार करना जानते हैं। हमें सिर्फ हमारा स्वार्थ सिद्ध करना आता है। इसी स्वार्थपरता के वशीभूत हो कर हम अपने देश को बेचने से भी नहीं हिचकते। पढ़िए अरुण सर की एक और बहुत ही शानदार कविता
"वो चाहता है कि, सारा जंगल उखाड़कर
अपने गमलों में लगा ले
फिर हरेक पेड़ से
पानी के बदले
फलों का सौदा करे। .. "
अरुण सर की कवितायें हमारी मर चुकी संवेदनाओं को झकझोर कर फिर से ज़िंदा करती है। ये सवयं की ख़ुशी के लिए नहीं लिखते। इनका लिखना भी समाज को ही समर्पित है। इनकी कई कवितायें प्रकाशित हुई हैं। और मैं आशा करती हूँ की जल्द से जल्द हमें इनकी लिखी कविताओं की किताब पढ़ना नसीब हो। अरुण सर आपको पढ़ना मुझे हौसला देता है। आप यूँ ही लिखते रहिये। आप हैं तो उम्मीदें क़ायम है के बदलाव ज़रूर होगा।
अरुण श्री
शतदल के चौदहवे कवि हैं सौम्य से स्वाभाव के श्री अरुण श्री। हालांकि इनकी कविताओं में विद्रोह के स्वर उपस्थित है। और वो भी ऐसे कि पत्थरों में जान फूंक दें। ये कवि सुखद कल्पनाओं में नहीं खोते, बल्कि आज के समय के विकराल और कुरूप चेहरे को समाज के समक्ष लाना ही इनका लक्ष्य है । आपका मानना है की 'एक कवि का गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैर ज़रूरी होना।' वे दुखी होते हैं जब अन्याय के खिलाफ उठायी आवाज़ को सरकार और अदालत द्वारा गैरकानूनी ठहरा दिया जाता है मगर इन्हे इससे भी ज़्यादा तकलीफ देता है आम जनता के द्वारा उन्हें नकार दिया जाना। अरुण श्री जी की कविया 'कैसा देश है ये' देश और समाज को उसी के विकृत रूप का आईना दिखाती हुई एक गहरा कटाक्ष है।
"सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम
गैर कानूनी घोषित होने से ठीक पहले
असामाजिक हुआ कवि
कविताओं को खंखार सा मुंह में छुपाये
उतर जाता है राजमार्ग की सीढ़ियाँ
की सरकारी सड़कों पर थूकना मना है।
कच्चे रास्तों पर तख्तियां नहीं होती
पर साहित्यिक थूक से कच्ची अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता ।
एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैर ज़रूरी होना।"उफ्फ्फ्फ़ ..... गज़ब का पैनापन है। ऐसा लगता है कवि ने कलम के साथ साथ शब्दों को भी छील दिया है। इस कविता का एक भी अंतरा ऐसा नहीं है जो आपको बेचैन न कर दे। हर शब्द जैसे पिघलता लोहा है। इसी कविता का अगला हिस्सा पढ़ के तो ऐसा लगता है जैसे कि कलेजे की फांक ही कर दी हो।
"आखिर कैसा देश है ये ..
माट्साब कम उम्र लड़कियों को पढ़ाते हैं विद्यापति के रसीले गीत।
मुखिया जी मौका देख न्योतते हैं- कि मन हो तो चूस लेना मेरे खेत से गन्ने।
इनारे पर पानी भरती उसकी माँ से कहते हैं
कि तुम पर गयी है बिलकुल।
दुधारू माँ अपने दुधमुहे की सोचकर थूक घोंट मुस्कुराती है बस।
की अगर छूट गयी घरवाले की बनिहारी, तो बिसुकते देर ना लगेगी।"
सच धक् सा रह जाता है दिल। सहम से जाते हैं जब घूमने लगती है ये कविता किसी दृश्य सी। सच कहा आपने अरुण जी यही तो है औरतों की स्थिति कलेजा मुंह को आता है फिर भी मुस्कुरा भर देती है ऐसी बेशर्मी पर, के रोज़ी रोटी चलती रहे। नि:शब्द हूँ मैं अरुण जी....अरे इनकी अगली कविता तो पढ़िये , बहुत ही शानदार है। इस कविता को पढ़कर तो मुझे दुष्यंत कुमार का वो शेर यद् आ गया
"उस सरफिरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है, मगर सावधान है।"
अपनी अगली कविता 'मेरे विद्रोही शब्द' के माध्यम से कवि ने इन दोगले नेताओं की बहानेबाजी पर स्पष्ट रूप से प्रतिउत्तर देते हुए कहा की
"मेरा वैचारिक खुरदुरापन प्रखर विलोम है तुम्हारी जादुई भाषा का।"
अरुण जी की कवितायें उनका निडर और स्पष्टवादी होना दर्शाती है। आपने अपनी कविताओं में उपमाओं का भी बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है। जैसे-
"पट्टे की कीमत पर पकवान का सपना बेचते हो तुम
मेरी जीभ का चिकना होना ज़रूरी है तुम्हारे लिए।"
और ये ..........
"नहीं सामंत ,
रोटी का विकल्प नहीं हो सकती चंद्रयान योजनायें
प्रस्तावित अच्छे दिनों की कीमत मेरी जीभ नहीं है।"
वाह एकदम करारा जवाब। ऐसा लगा जैसे इमानदारी ने किसी रिश्वतखोर के मुंह पे फेंक के उसकी बईमानी मारी हो। सच में शब्दों के जादूगर हैं अरुण श्री। हर खांचे के आकार का अलग सा शब्द। ऐसा कहते हैं की 'गणीत सबसे साफ़ सुथरी कविता है' अगर ऐसा है तो अरुण जी की कविता उसी गणीत से मिलती जुलती है।
इनकी अगली कविता 'मेरा अभीष्ट'.. आहह एक और शानदार कविता। अपनी ही तरह की एक अलग सी।
वही तीखे से तेवर लिए। कवि पलायन को किसी भी समस्या का हल नहीं मानता। कवि स्पष्ट लफ़्ज़ों में कहता है 'मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना' कवि का अभीष्ट , कवि की चाहत , कवि का लक्ष्य है धरती पर समानता लाना। और वो सिर्फ चाहते ही नहीं प्रयासरत भी हैं उसके लिए। सच कहूँ तो समानता लाना धरती पर चाँद लाने के बराबर है। पढ़िये ये शानदार लाईने..
"मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन
संभव हैं की मानवों में बचे रह सकें कुछ मानवीय गुण।
मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है।" अरुण जी मुझे उस दिन की प्रतीक्षा रहेगी ।
शतदल में इनकी अगली कविता है 'विस्मृत होते पिता'..
ये अरुणजी की सबसे भावुक और बेहतरीन कविताओं में से एक है। इतनी मासूम सी है ये कविता कि डरती हूँ की मेरे लिखे शब्द कहीं इसे ठेस न पहुंचा दे। एक पिता और पुत्र के रिश्ते को बयां करती ये कविता उन जज़्बातों को उन सवालों को उन अपेक्षाओं को कहती है जो शायद एक पुत्र अपने पिता से और एक पिता अपने पुत्र से कभी न कह पाया।
"कभी कभी विस्मृतियों से निकल सपने में लौट आते हैं पिता
पूछते हैं की उनके नाम के अक्षर इतने छोटे क्यों है
मैं उन अक्षरों के नीचे एक गाढ़ी लकीर खींच देता हूँ
जाते हुए अपना जूता मेरे सिरहाने छोड़ जाते हैं पिता
मैं दिखाता हूँ उन्हें अपनी बनियान का बड़ा सा छेड़
और जब मैं खड़ा होता हूँ संतुष्टि और महत्वाकांक्षाओं के ठीक बीच
मेरे पैर थोड़े और बड़े हो जाते हैं
मैं देखता हूँ पिता को उदास होते हुए "
अरुण जी जाने कैसे कड़वा घूँट पीकर लिखी होगी आपने ये पंक्तियाँ।
सच आसान नहीं होता है पिता होना, कई जवाबदारियों के बीच अपने पुत्र की नज़र में अपनी अहमियत और स्नेह बनाये रखना। एक दौर होता है उम्र का जब पिता और पुत्र के बीच एक वैचारिक मनमुटाव आ ही जाता है। बड़ा मुश्किल दौर होता है वो इस रिश्ते को संभालने के लिए। छोटी छोटी बातों से आयी दरारों को पाटने में पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है। पिता को समझने के लिए पिता होना ज़रूरी है। पिता का अपने बेटे के सिरहाने अपने जूतों को छोड़े जाना , कहता है बन के देखो पिता। जीयो मुझे। और जानो।
आसान है उंगली उठाना , जो कभी भींचे रहती थी पिता की दियी टाफियों को …
निशब्द हूँ अरुण जी ……… सच आंसू आ गए हैं। पढ़िए इसी कविता का एक और प्यारा सा हिस्सा।
"कभी- कभी मैं अपने बेटे से पूछता हूँ पिता होने का अर्थ
वो अपनी मुट्ठी में भींची टाफियां दिखाता है। .............
मुस्कुराता हुआ मैं अपने जूतों के लिए कब्र खोदता हूँ
अपने आखरी दिनों में काट दूंगा मैं ये नीम का पेड़
नहीं पूछूंगा
की मेरा नाम बड़े अक्षरों में क्यों नहीं लिखा उसने
उसे स्वतंत्र करते हुए मुक्त हो जाऊंगा मैं कभी
अपने पिता जैसे निराश नहीं होना चाहता मैं
मैं नहीं चाहता की मेरा बेटा मेरे जैसा हो। "
बहुत ही प्यारी पंक्तियाँ है बहुत ही सुन्दर। और अगली ...........अरे ख़त्म हो गयी आपकी कवितायेँ !!!!!.. बस इतनी ही थी क्या??? कहीं मेरी किताब में से बीच के पन्ने तो नहीं निकल गए..सच बहुत अच्छा लिखते हैं अरुण जी आप। आप सदा यूँही लिखते रहें।
अशोक गुप्ता
शतदल के पन्द्रहवे कवि है श्री अशोक गुप्ता जी। अलग पहचान,अलग अंदाज वाले कवि। यूं तो हर कवि की अपनी स्वतंत्र सोच होती ही है लेकिन इस कवि की सोच प्रचलित मान्यताओं की सीमा लांघकर दूर तक जाती दिखती है। इसलिए मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि इनकी सोच और उसे लिखने का तरीक , सभी निराले हैं।इनको पढ़ते वक़्त ऐसा लगता है जैसे हम टहल रहे हैं किसी अंजानो सी जगह, यूँही सोचते हुए बहुत सारी बातें। बिना किसी वजह के । मगर मगर उस भटकन का भी एक अलग ही मज़ा है। और जहाँ जा के ये सोच ठहरती है ना वहाँ मिल ही जाता है निष्कर्ष उस भटकन का। यह जो हमारी सोच का समंदर है ना इसमें जितनी दफा डुबकी लगाते हैं गोते खाते हैं हर बार कुछ ना कुछ शंख सीपियों सा नया विचार मिल ही जाता है। ये ख्याल मुझे इनकी पहली कविता "गैर ज़रूरी काम" पढ़ कर आया। लीजिये पढ़िये आप भी..
" मैंने सोचा मैं घोइन्त भर पानी पी लूँ
मैंने सोचा मैं पूरी कर लूँ मन में पल रही एक छोटी सी कविता।
मैंने सोचा अपनी अंत्येष्टि के बारे में
मेरे पिता की अंत्येष्टि में कितने लोग शामिल थे
उनमे कितने लोग जीवित हैं जो जाना चाहेंगे मुझे लेकर।
उनमे किसी ने जीवन में कभी प्रेम नहीं किया
मैं करता रहा
आकंठ
अद्यतन
ओह,
गैर ज़रूरी सोचा था मैंने एक घूँट पानी
निरर्थक सोचा था कविता पूरी करने का काम।
अकथ प्रेम जीवन में पाते रहने के बाद
कहाँ शेष रहती है कंठ में प्यास
कहाँ पूरी होती है कभी मन में पल रही छोटी सी कविता"
कवि भटकता रहा, भटकता रहा, भटकता रहा, और फिर उसने प्रेम को पा लिया । और वहीँ उसने अपने मन में पल रही छोटी सी कविता या कहें ख्वाहिश या कहें किसी तृष्णा को विराम दे दिया। औपचारिकताओं से अपनत्व तक का सफ़र। इस कविता का जो आखरी हिस्सा है न वो सबसे प्यारा है। कवि कहता है " अधूरी कविता लिख लेने की हरकत कितनी निरर्थक है।
कविता तो हर पल बदल लेती है खुद को।
अंततः पूरी होने तक आमूल बदल जाती है।
मैं गैर ज़रूरी कामो दे खुद को परे रखता हूँ।
कोशिश करके प्रेम या...."
आहा कितना सुन्दर कितना प्यारा।
सच बदलती रहती है पूरी होते होते कविता जैसे के ज़िन्दगी। कोशिश करके प्रेम करना और कोशिश करके लिखना एक सा। हाँ मगर ये प्रेम और कविता पूरी होने तक भटकाते बहुत हैं। और कई बार तो पूरे होते ही नहीं। मगर अधूरेपन का भी अपना मज़ा है। खैर छोड़िये चलिए अगली कविता की और चलते हैं । अशोक जी से मैं परिचित नहीं हूँ ।मगर इनकी कविताओं का जो खिचाव है जो अंतर्द्वंद्व है वो पाठक को गहरे तक जोड़े रखता है। इनका खुद से जूझना पाठक को विचलित कर देता है। एकदम शून्य कर देता है। कविता ख़त्म हो जाती है शेष रह जाता है ख्यालों का भंवर ।
"बंद मुट्ठी वाले लोग"
सबकी मुट्ठियाँ अभी तक बंद है
जैसे वह अभी अभी पैदा हुए हो।
"उस शाम फिर किसी ने मुझसे कोई बात नहीं की
तब भी नहीं जब मैंने पहन ली थी उलटी कमीज़
और ये सबने देखा था।
क्या ये उनकी मुट्ठी बंद होने का असर था।"
कवि एक खुला माहोल चाहता है। चाहता है के ये समाज अपनी बंद मानसिकता से निजात पाए। जिससे लोग एक दुसरे को स्वीकार सकें। सुन सके , समझ सके। और ये अपने आप में बंद रहने से , खुद तक सीमित रहने से नहीं होगा।
" उल्टी कमीज़ पहन कर सबके सामने आना" दर्शाता है अपनत्व के प्रयास को। अशोक जी कहते हैं उनके इस प्रयास को सभी ने देखा । मगर किसी ने चाहा ही नहीं हाथ बढाकर मित्रता करना। क्यूंकि ये जो बंद मुट्ठी वाले लोग होते हैं ये डरपोक और शक्की किस्म के होते हैं । वे डरते हैं जुड़ाव से। ये खुल कर हंसने से भी हिचकिचाते हैं। पढ़िए ये खूबसूरत पंक्तियाँ -
"बंद मुट्ठी वाले लोग ठहाका नहीं
लगा सकते
कभी नहीं पहन सकते उलटी कमीज़ "
आह अशोक जी .. आपके किसी भी बात को नए नए ढंग से रखने का तरीका निराला है। और यही आपकी कविताओं की खासियत है जो औरों से आपको अलग रखती है। मुझे ये आपकी "उलटी कमीज़" बहुत पसंद आई। कवि स्त्री पुरुष संबंधों को लेकर जो नजरिया है वो बदलना चाहता है। ये बंद मानसिकता वाले लोग स्त्री और पुरुष के संबंधो को हमेशा एक ही नज़र से देखते हैं। उनकी नज़र में मित्रता जैसा कोई रिश्ता है ही नहीं। पढ़िये उन्ही के शब्दों में.... "उनके शब्दकोष में बहुत से शब्द दर्ज भी नहीं होते शायद स्त्री..... साथ.... इन जैसे शब्दों के गिने चुने अर्थ उनकी मुट्ठी में होते हैं कौन जाने और ना जाने क्या क्या होगा उनकी बंद मुट्ठियों में।" सच है हम किसी के मन को भांप नहीं पाते। स्त्री और पुरुष , सदियों से चला आ रहा एक रिश्ता , अलग अलग सी सोच लिए हुए जाने कैसी कैसी गलियों से गुज़रा। कहीं पनपा कहीं मुरझा कर रह गया। रिश्ता प्रेम पर टिका होना था। प्रेम है क्या , प्रेम बहुत कुछ है...किसी के नाम के ख्याल पर आई मुस्कान भी और किसी की गाली को याद कर आए आंसू भी...। किसी के साथ की ख्वाहिश भी.. किसी को खोने का डर भी.. हंसी, झड़प, डांट, गुस्सा सबके मूल में खोजा जाए तो प्रेम के टुकड़े-छींटे-अवशेष मिलेंगे..प्रेम बहुत कुछ है....। प्रेम यह सवाल भी है.. और प्रेम किसी को हक़ से चुरा लेना भी है। प्रेम हक़ जताना भी है , और प्रेम त्यागना भी। सभी के अपने अपने अनुभवों का सारांश है प्रेम। प्रेम किसी ने पाया , किसी ने महसूसा , किसी ने छीना , किसी ने लूटा और किसी ने बर्बाद किया। सभी ने अपने अपने तरीके से प्रेम को जाना समझा और किया।
अशोक जी की एक बेहतरीन कविता जिसे मैं तह तक महसूस तो कर पा रही हूँ लेकिन उसे कह नहीं पा रही हूँ। शायद ये भी प्रेम ही है। पढ़िए आप भी .......
"दोपहर को सारे कबूतरों के उड़ जाने के बाद
पार गली की भटियारिन आएगी उस कुठरिया में
अखबार में लपेटी चार रोटियां लिए
और सकोरा भरा सालन
और खूंटी की ओर ताक कर धक् सी रह जाएगी
वह उतारेगी खूंटी पर टंगे हुए लत्ते
उन्हें समेट लेगी अपने सीने में , नवजात शिशु की तरह
और कुछ देर वहीँ भूमि पर निश्चेष्ट दोनों आँखे खोले हुए चुपचाप ढह जाएगी
तब तक जब तक अपनी गंध से रीते न हो जायेंगे
उस नंग धड़ंग आदमी के उतारे हुए कपड़े।
अखबार की पुड़िया और मिट्टी का सकोरा आले में धरेगी
वह नखशिख आनंद में भीगी हुई भटियारिन
खुद को टांग देगी उस खूँटी पर कपड़ों के साथ
और कदम बढ़ाते लौट जाएगी गली के उस पार
उसके खूंखार मर्द को
संडास से लौटने में देर लगती है
देर तक लौटेगा
अपना ठेला खड़खड़ाता वह नंग धडंग आदमी
पहले सरकारी बम्बे पर
हरहरा कर नहायेगा
आले से अपने आप उतर आएँगी
हाथ में सकोरा लिए गरम गरम रोटियां
अंत में
खूँटी पर टंगी हुई भटियारिन उतरेगी और लिपट जाएगी
उस नंग धड़ंग आदमी अकेले जीते आदमी के साथ।
रात भर पिटती रहेगी वो भटियारिन
अपने खूंखार मर्द के हाथों
वह मर्द औरत को भोगने का बस यही एक शिल्प जानता है।
सबके अनुभव का सारांश अलग अलग है
इस मर्द का
भटियारिन का
और नंग धडंग ठेलेवाले उस आदमी का भी
सब अपने अपने अनुभवों का सारांश है"हे ईश्वर मुझे नहीं पता मैं इस कविता को पढ़ कर किस दुनिया में पहुँच गयी हूँ। सच कितनी खूबसूरत है वो भटियारिन। बिलकुल इस कविता की तरह। ..निष्पाप और निश्छल ………… भट्टी की आग में रोटियों के साथ तपती और भी निखर उठती है।
अशोक जी आपको पढ़ना एक अलग ही सुख का अनुभव करना है। ऐसा लगता है जैसे मैं पढ़ नहीं रही कोई आकर मुझे कानो में ये सब कह रहा है। पता फिर ऐसा हुआ , और फिर यूँ , और फिर ऐसा भी हुआ …। सच आपका लिखा मेरे लिखे शब्दों के परे है।
अशोक कुमार
शतदल के सोलहवे कवि हैं झारखण्ड के श्री अशोक कुमार जी। कहते हैं कहानियों और कविताओं के शीर्षक पाठक को आकर्षित करते हैं । और यह बात अशोक जी की कविताएँ में एक दम सही बैठती है। इनकी कविताओं के शीर्षक, लौट आएँगी स्त्रियाँ, सदी का आखिरी स्वेटर, जूते आदि.. पढ़ते ही पाठक के मन में जिज्ञासा के कीड़े रेंगने लगते हैं , कुलबुलाने लगते हैं। इनके शीर्षक देने का ढंग ही इतना मज़ेदार है के पाठक चींटियों सा इनकी मीठी कविताओं से चिपक जाता है। सिर्फ ऊपरी कवर ही नहीं साहब अशोक जी की लिखाई भी उम्दा है। यकीन ना आये तो पढ़ के देख लीजिये। इनकी पहली कविता लौट आएँगी स्त्रियॉं। एक बहुत ही संवेदनशील कविता है। कहते हैं पुरातन काल में भारत में स्त्रियां पुरुषों के समकक्ष दर्जा रखती थीं। वे यज्ञ किया करती थी। पढ़ी लिखी होती थी। और तो और युद्ध भी किया करती थी। मगर भारत पर विदेशी राजाओं की हुकूमत के दौरान स्त्रियों की दशा शोचनीय होती गयी। और उनकी छबि को सिर्फ सौंदर्य की प्रतिमा बना स्थापित कर दिया गया। और समाज पर पुरुषों का एकाधिकार हो गया। और आज तक स्त्रियां गुलामी की ज़िन्दगी जी रही हैं। मगर ये कविता उसी साहसी, यशस्वी, ज्ञानी औरत को, स्त्री को खींच परदे से बाहर लाकर समाज के सामने खड़ा कर देती है। जिस पुरुष समाज ने उसे विलुप्त ही कर दिया था सिर्फ अपने एकाधिकार के लिए।
"स्त्रियाँ गायब कर दी गयीं थी
कुरुक्षेत्र से
हल्दीघाटी के मैदान से
तुमने बस मोनालिसा की मोहक तस्वीर बना
लटका डाला किसी सुंदर फ्रेम में।
पर याद रखो इतिहास से गायब
यकायक निकल आएँगी अपनी कैद से
तुम्हारे बनाए तहखानो से भाग जाएँगी स्त्रियाँ
और एक दिन तुम्हे कटघरे में खड़ा कर अभियोग पढ़ेंगी
साबित कर डालेंगी तुम्हारा अपराध।
एक दिन लौट आएँगी स्त्रियां इतिहास के पन्नो से
फैसला सुनाने।"
तेजस्वी शब्दावली से अलंकृत ये कविता तीखे कटाक्ष करती हुई सच किसी झाँसी की रानी से कम नहीं लगती।
अशोक जी अपनी कविताओं में उम्मीदों का बाना बुनते हैं। वे ज़िन्दगी की तकलीफों से भागने की अपेक्षा उन्हें भोग कर आगे बढ़ने में यकीन रखते हैं। चाहे हालात कैसे भी हों वे मुस्कुराकर आगे बढ़ने की सलाह देते हैं। पढ़िये इनकी अगली ऐसी ही हौंसलों को बढ़ाती कविता 'परास्त नही'
"परास्त नहीं था वह बस थका मांदा था
ज़मीन पर सोते हुए अपने सपनो की
पोटली टिकाये रखता था।
पराजित नहीं था इसलिए सोते वक़्त भी
उसके चेहरे पर तिरती थी सुकून
की एक बहुत ही प्यारी
मुस्कान
सोया था अपनी ज़मीन पर जहाँ सुबह से
लड़नी थी एक और लडाई
फुटपाथ पर सोया आदमी परास्त नहीं होता
फुटपाथ पर सोया आदमी अपनी
रणनीति रच रहा होता है। रणक्षेत्र की
रक्तरंजित भूमि को सींच रहा होता है।
खून के बजाये पसीने से।"सच कहा आपने अशोक जी फुटपाथ पे सोया आदमी कभी परास्त नही होता। क्यूंकि उसे अगले दिन फिर से ज़िन्दगी की लड़ाई लड़नी है। जहाँ लोग एक दुसरे को कुचलकर आगे बढ़ते है उसे अपने दम पे अपना मुकाम हासिल करना है। अशोक जी ज़मीन से जुड़े हुए इंसान हैं। नकी कविताओं में उनका व्यक्तित्व और उनकी साफगोई स्पष्ट झलकती है। इनकी एक और अगली बड़ी ही आकर्षक कविता जूते जो की 10 अलग अलग छोटी छोटी कविताओं की श्रृंखला है। इनमे कवि ने जूतों को एक प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया है और उसके द्वारा अपनी बात रखी है। पढ़िये ये पहली कड़ी
1) जूते किसने बनाए आदमी या मशीन ने
नहीं जानता मै
मैं तो बस देखता हूँ एक जोड़ी हाथों को उसकी मरम्मत करते हुए बड़े प्यार से।
है ना प्यारी इसमें कवि की सहृदयता और मेहनतकश के साथ उनका अपनापा।
एक और पढ़िये
"नए जूते पैरों को काटते हैं
क्या मित्रता पुरानी होकर मुलायम होती है जूतों की तरह।"
वाह बहुत ही शानदार कटाक्ष।
हाँ अशोक जी वैसे होती तो है। अगर उसमे सच्चाई हो तो ।
इस श्रृखला की हर एक कड़ी ऐसी ही शानदार है। बाकी आप शतदल में पढ़िएगा। मैं आपको एक और कविता सुनाये देती हूँ सदी का आखरी स्वेटर। ये बहुत ही संवेदनशील बहुत ही भावुक और बहुत ही प्यारी कविता है।
ये कविता ऐसी लगती है जैसे लिखी नहीं गयी है ये रंग बिरंगे उन से बुनी ही गयी है। कवि ने एक माँ के अनकहे जज्बातों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से रच डाला है। एक माँ का सर्दियीं की आहट होते ही स्वेटर बुनना उसका शौक नहीं उसकी परवाह है अपने बच्चे के लिए। उसकी ख़ुशी है अपने बढ़ते हुए बच्चे के कद को नापने में। जबकि वो जानती है के आज की सदी के बच्चों के कद के आगे उसके नेह का ममत्व का कद बहुत बौना हो गया है। मगर फिर भी वो अपने दुःख को एक तरफ रख अपने बच्चों के बड़ते कद को नापने में ही ख़ुशी महसूस करती है। और ऐसी सिर्फ और सिर्फ माँ ही होती है।
"माँ दरअसल
बेटों के बड़े होते कदों के साथ
बुनती रही है स्वेटर
और शायद उनकी भूलना नहीँ चाहती
आकृतियाँ
इसलिये बुनती है स्वेटर
या फिर
माँ ने पाला है यह शगल
इसलिये भी कि
जब बरसात में भींगती हो उसकी आँखें
वह याद कर ले इस बहाने
बाहर रह रहे बेटों को
इसी बहाने
गुलाबी जाड़े के आने तक
माँ स्वेटर बुनने की सोच रही होगी
हर बरसात में सोचता हूँ मैं
एक माँ ही तो होगी
जो बुन रही होगी
बेटों के लिये
हाथ से बुना हुआ
इस सदी में
इस सदी का
आखिरी स्वेटर "
अशोक जी आपका लिखा वाकई सीधे दिल को छूता है। मैं शतदल की शुक्रगुजार हूँ की मुझे अऔ जैसे कवि को पढ़ना नसीब हुआ।
अशोक श्रीवास्तव
शतदल के सत्रहवें कवि हैं लखनऊ के श्री अशोक श्रीवास्तव जी। कहते हैं कविता वो जो दिल से निकले दिल तक जाए। सिर्फ लिखने भर को लिखी तो क्या लिखी। वो एक शेर हैना 'या ख़ुदा इल्तजा है करम तू अगर करे
वो बात दे ज़बान को जो दिल पर असर करे' रोज़ ही जाने कितना कुछ पढ़ते हैं, ऐसे जैसे किसी अजनबी से मिल रहे हैं राह चलते, मगर कोई ही कविता कोई ही लेख ऐसा होता है जो बांध लेता है निगाह को, रोक लेता है भटकते मन को , जैसे किसी अजनबी शख्स में कोई अपने सा नज़र आ गया हो। बस यहीं जुड़ जाती हैं भावनाएं । ये भावनाएं ही गहराती हैं कविताओं को जिनकी तह में उतर कर पाठक की रूह सुकून पाती है।
अशोक जी बिलकुल ऐसी ही कविता लिखते हैं। इनकी बेचैनी, इनकी तड़प इनकी कविताओं से रिसती है। कवि का मन त्रस्त है आये दिन होते दंगे फसादों में बेगुनाहों को मरते देख कर। आक्रोशित हो पूछता है कवि कि ' न इसका ही है कोई हिसाब कि कितना खोएँ इसे बचने में बहाया गया और कितना इसे मिटाने के प्रयास में।'
यह कविता आज की राजनैतिक और सामाजिक स्थिति पर गहरा कटाक्ष है। ये कविता महज़ कविता नहीं मुझसे आपसे हर एक जिम्मेदार इंसान से पूछा गया एक सवाल है। कि हमारे ही आस पास जुर्म होता रहा और हम बीएस ख़ामोशी से देखते रहे। क्यूँ?? क्यूँ नहीं हमने आगे बढ़कर उन हत्यारे हाथों को रोका।इतने पाप हुए और ये धरती मौन सी परिक्रमा लेती रही सूरज के। जैसे के हम देखते रहे मजबूर बेगुनाहों को मरते और सलामी देते रहे इन समाज के ठेकेदारों को।
पढ़िये आप भी इनकी कविता हिसाब- किताब का ये हिस्सा।
"कितना बेगुनाहों का था खून , कितना था बेजुबानों का
और कितना उनका जिनके मुंह में जुबां थी
कहीं कोई हिसाब नहीं।
जो बारिशों की तरह बरसा और ख़ामोशी से
सोख लिया गया
मिट्टी की परतों में लाल रंग का वह द्रव
कहीं जमा हो रहा है धरती
की छाती में
या सब का सब पानी हो गया है इसका भी
कोई हिसाब नहीं
आखिर कर क्या रहें हैं सब हिसाब किताब लगाने वाले
आखिर कर क्या रही है धरती"
अशोक जी हम कभी नहीं दे पाएंगे ये जवाब। सच निरर्थक है हम जैसे बुजदिलों से ये सवाल करना। हमने आदत डाल ली है कीड़े मकोड़ों की तरह जीने की। हमारी रगों में खून नहीं पानी बहता है। और वो भी नाली का गन्दा सड़ा हुआ पानी। इनकी एक और बहुत ही शानदार कविता हमारी तकलीफें दिल को अन्दर तक गोद देती हैं। अनगिनत समस्याओं से जूझते आम आदमी की व्यथा कहती है ये कविता। एक आम इंसान रोज़ कवि कहता है
"सुबह से शाम तक सौ पौशाके बदल लेती है हमारी तकलीफ
हम उसे एक नाम से पुकारे
पूरी ताक़त से पुकारें
हमारे फेफड़ो में जितनी भी हवा है
हमारी तकलीफ की दवा है
जिनके दरबार में दाखिल होते ही हमारी सबसे प्यारी इच्छा मुजरिम "
आह निशब्द हूँ अशोक जी। सच कहा अपने जाने कितनी ही इच्छाओं को रौंद डाला है इन भेस बदल बदल के आती तकलीफों ने। मगर हम सिर्फ और सिर्फ अन्दर ही अन्दर कलप कर रह जाते हैं। क्यूंकि हमने सिर्फ इन्हें झेलना सीखा है। इनसे लड़ना नहीं। लड़ने के लिये तो सहस की ज़रूरत होती है। और हमारे देश के वास्तुशास्त्र के अनुसार साहसी लोगों की उम्र ज्यादा नहीं होती।
अशोक जी एक बहुत ही संवेदनशील कवि हैं। इनकी कविताओं में इनके ज़ख्म साफ़ नज़र आते हैं। कवि का दिल अपने और पराये दर्द में फर्क नहीं करता। दर्द में छटपटाता कवि चुप्पी साधे बैठे लोगो पर तंज़ कर उन्हें उकसाता है अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए। क्यूंकि किसी अपने को बेगुनाह को खोने का दर्द को झेलना इतना आसन नहीं है। पढ़िये इनकी अगली कविता
"अकेल नहीं गया वो"
इसे पढ़के तो किसी बन्दे में दम नहीं के अपनी आँखों को छलकने से रोक सके।
ये शब्द महज़ शब्द नहीं दिल के हरे घाव हैं । जो किसी निर्दोष को खोकर मिले हैं... पढ़िये...
अकेला नहीं गया वह
चुन ले गया फूल
उपवन उपवन के
खुशबू बटोर ले गया निचोड़ ले गया रौशनी चिरागों से
आँखों से पानी उलीच ले गया अकेला
इन्द्रधनुष था पूरे आकाश में
सृष्टि का श्रृंगार था
गया तो सात रंग ले गया सहेज कर
सब चीज़ें जो उसकी थी
........ निशब्द हूँ अशोक जी । मैं महसूस कर सकती हूँ इस दर्द को। सच किसी अपने को खोने का दर्द मैं समझ सकती हूँ। क्या कहूँ सच कहा आपने जाने वाला अपने साथ तमाम खुशियाँ तमाम रंग तमाम रौनक ले जाता है, जो उसी के दम से थी। वैसे ऐसा नहीं है के हमारे कवि सिर्फ दुखती रग पर हाथ रखना ही जानते हैं।
पढ़िये इनकी बहुत ही मासूम सी , प्यारी सी , खूबसूरत सी उम्मीदों भरी कविता 'रेलगाड़ी' अब इस कविता को पढ़ कर भी किसी बन्दे में दम नहीं जो अपने होठों पे आई मुस्कान को रोक सके। कवि कहता है हमारी ज़िन्दगी के सफ़र में हर एक पल में हमारे साथ एक दुर्घटना चल रही है। और ना जाने कौन से पल वक़्त कैसी करवट बदले । मगर फिर भी उन्हें उम्मीद है हमारे देश के नौनिहालों से। जो अभी डरना जानते ही नहीं है। जानते हैं तो सिर्फ हर पल को हस्ते हुए अपने हिसाब से जीना। और ये हमारा फ़र्ज़ है की हम उनका ये साहस ये , खुद पर भरोसा बरकरार रखे। क्यूंकि यही वो कल के नौजवान होंगे जो हमारी ज़िन्दगी में वो सारे रंग लौटा लायेंगे जो हम खुद को यूँ डर डर कर खुद को मार कर खो चुके हैं पढ़िये ये एक प्यारी सी कविता.. ख़ास आपके लिए।
कोई दुर्घटना इस रेलगाड़ी में सफर कर रही है
हर मुसाफिर की ऐन बगल में बैठी हुई
जागा हुआ है एक बच्चा खिड़की से झांकता
बाहर बिछी हुई पटरियों को कौतुक से निहारता
कल्पना में बन बैठा है ड्राइवर अब गाडी
वही चला रहा है
कभी गाडी को तेज़ी से भगाता
जब गाडी झटके से रूकती तो काल्पनिक ब्रेक लगता
सहसा बच्चे की आँखों में आ जाती है चमक
पास ही सोई हुई माँ का कन्धा हिला पूछता है
माँ ! इस गाडी को दूसरी पटरी पर डाल दूँ
अब कुल उम्मीद इसी से है।
आह्हा बेहद प्यारी कविता। अशोक जी आप बहुत अच्छा लिखते हैं । आपकी आखरी कविता मुझे सबसे अछि लगी। बिना किसी झोल के आप अपनी बात स्पष्ट रूप से रखते हैं। आप की कविता पाठकों के ह्रदय पर काबू करना जानती है। बस यही कहुंगी की आप हिम्मत बंधाती कवितायें और लिखते रहे जिससे लोगो क मन में सकारात्मक ख्याल उत्पन्न हो। वो तकलीफों से डर के बैठे नहीं बल्कि उसका डटकर मुकाबला करने का हौसला रखे। बहुत धन्यवाद् आपका इतनी प्यारी प्यारी कविताओं के लिए।
अस्मुरारी नंदन मिश्र
शतदल के अठारहवे कवि हैं श्री अस्मुरारी नंदन मिश्र जी। पेशे से शिक्षक हैं, और आज हमारे समाज को इनके जैसे ही शिक्षकों की आवश्यकता है। आजके सामाजिक हालातों से त्रस्त हो चुके कवि के शब्दों में विद्रोह झलकता है। ऐसा लगता है जैसे खून के साथ- साथ शब्दों में भी उबाल आ गया है। इनकी दो कविताएँ गूंगा और चांदमारी, एक उम्दा स्तर की कई छोटी छोटी कविताओं की श्रृखला है। जो कि आज के सामाजिक हालातों पर एक बहुत ही पैना कटाक्ष है। कविताओं की भाषा एकदम स्पष्ट और सटीक है। सीधे मास्टरजी की छड़ी सी लगती है एकदम सटाक। इनकी पहली कविता गूंगा में कवि उन लोगों की तरफ उंगली उठाता है जो पड़ोसी के घर से प्रताड़ित होती बहू की चीखों को अनसुना कर अपने टीवी की आवाज़ बढ़ा लेते हैं। या उनलोगों को जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता की सड़क पर गाडी से कुचला आदमी मर चुका है या अभी भी उसकी साँसे बाकी है। पढ़िये अस्मुरारी जी के शब्दों में...
"बेल्ट की सटसट से कहीं तेज़
थी उसकी कई मिली
जुली आवाज़ों से
गुंगियाया सिसका और चुप हो गया
उसके गूंगेपन का पूरी सार्थकता देता पसरा था
बस्ती का शालीन बहरापन"
सच सही कहा आपने जिन लोगों की संवेदना किसी बेगुनाह को मरता देख कुचलता देख भी ना जागे , वो लोग गूंगे और बहरे की श्रेणी में ही आते हैं। सच ये समाज ज़िंदा लाशों का समाज है। इसी श्रृंखला की एक और शानदार कड़ी..
"खुद से ही तड़ीपार कोई देश आज अदालत में पेश है
भाषा तो है पर आशा नहीं है
इसलिए चुप है
अँधेरा घुप्प है"
वाह अस्मुरारी जी वाह।क्या तीखा प्रहार किया है। सच कहा आपने भाषा तो कई है , आशा नहीं है। और हो भी तो किनसे, इन स्वार्थी लुटेरे राजनीतिज्ञों से?? या उन ढोंगी धर्म प्रवर्तकों से जो भक्ति की आढ़ में जाने क्या कया गुल खिला रहे। और हमारा अँधा बेहरा गूंगा और तो और पढ़ा लिखा समाज फिर भी बाबा बाबा कर उनके चरणों में लोट-पोट हुए जा रहा है। एक और सुनिए ……।
"उसके पास आवाज़ है व्याकरण नहीं है
अर्थ है, समूल
बरतने का आचरण नहीं है
हर जगह जीता अपनी ही भाषा में
तानाशाह समय में
यही तो मरण है। "
सही कहा आपने तानाशाही समय में यही तो मरण है, कि हमारे पास आवाज़ तो है लेकिन अपनी अनुभूति को व्यक्त करने का तरीका हमें नहीं आता। "हर जगह जीता अपनी ही भाषा में " और इस तरह से तो हम औरों को तो दूर खुद को भी नहीं समझ पाते , की हम खुद चाहते क्या हैं ? हम देख रहे हैं , समझ रहे हैं , क्या गलत हो रहा है क्या सही हो रहा है , हम जानते है क्या होना चाहिए क्या नहीं। मगर फिर भी हम आवाज़ नहीं उठाते। यही तो मरण है। हमें सिर्फ हाँ बोलना ही आता है। ना बोलना हमें अभी सीखना बाकी है। और जब हमें ये बोलना आ जायेगा, तानाशाही समय की के अंत की शुरुवात हो जायगी। आपकी एक और बहुत ही शानदार कविता चांदमारी। कितना प्यारा लगता है ना ये शब्द सुनने में मगर चाँदमारी वह सैनिक अभ्यास है, जिसमें जवान किसी पुतले पर गोली चलाकर निशाना लगाना सीखते है। पढ़िए इसकी पहली कड़ी .........
"उस अनाम अनचीन्हे पुतले पर
गोली चलाते-चलाते जवान
चीन्हना ही भूल गया है
वह नहीं देखता पुतला या और कुछ
वह चीन्हता है केवल एक शब्द 'शूट'
और चलाता चला जाता है गोली
दनादन
सामनेफिर बुद्ध या गाँधी ही क्यों न हों"
कितना सही कहा है कवि ने , एक सैनिक को सिर्फ निशाना साधना सिखाया जाता है। उससे ये नहीं कहा जाता, के देखो , जानो , कौन है वो जिसपर तुम्हे अपना निशाना साधना है। और ना ही उससे ये पूछा जाता है , उसे सिर्फ कहा जाता है शूट। छीन ली जाती है सैनिकों से उनकी सारी भावनाएं, कर दिया जाता है उन्हें पूरी तरह से खाली। और भर दी जाती है उनमे बारूद। संवेदनाओं का ख़त्म हो जाना एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। ऐसा होना कोमा में जाने से कम नहीं। कभी कभी तो लगता है की ज़िन्दगी भी एक चांदमारी ही है। अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना, अपना मक़सद पाना, हर तरह से, किसी भी हाल में, किसी भी कीमत पर, फिर चाहे हमें किसी अपने को ही रौंदकर क्यों ना आगे निकलना पड़े। क्यों न ज़िन्दगी का नाम ही चांदमारी रख दिया जाए। चांदमारी जैसे चाँद को पत्थर मारना। खैर आप इस श्रृंखला की एक और कड़ी पढ़िए।
"मेजर के कहे पर
थामता तो है रायफल
चलाता भी है गोली
पर निशाना साध नहीं पाता
कांप कांप जाते हैं हाथ
उंगलियाँ सिहर-सिहर जाती है
रेंगने लगता है कुछ रीढ़ पर
गोली निकलती चली
जाती है
पुतलों के अगल- बगल से
वह अब तक
पुतले बनाने का काम करता रहा है...."
आहा कितनी प्यारी कविता है , सच कहा आपने जिसने सिर्फ प्रेम करना सीखा हो , रिश्ते जोड़ने , और सहेजने सीखे हो , जिसे हर शक्ल में कोई ना कोई अपना नज़र आ ही जाता हो , उसके हाथ तो कांपेंगे ही। आप किसी प्रेमी को कातिल नहीं बना सकते। वैसे मुझे आपकी ये चांदमारी गीता सार सी लगती है। "कर्म कर फल की इच्छा मत कर।" " ना तू किसी का ना तेरा कोई "
(मगर तू बन कर तो देख किसी का , देख सब तेरे ही होंगे। )
कवि की एक और बहुत ही प्यारी खूबसूरत सी कविता "लड़कियां प्यार कर रही हैं" ये मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आई थी। खैर विद्रोह के स्वर तो यहाँ भी है। जहाँ प्रेम है वहां विद्रोह है, काश के जहां विद्रोह हो वहां प्रेम हो।
प्रेम , प्रेम को हम सिर्फ पूजते हैं , स्वीकारते नहीं क्यूंकि हमने इसे ईश्वरीय अधिकार क्षेत्र तक सीमित रख छोड़ा है। हमने वो माना ही नहीं जो ईश्वर ने हमें कहा। हमने सिर्फ उसे रटा मंत्रो में उच्चारित किया। मगर व्यव्हार में नहीं लाया। हमने हमारे लिए नया ईश्वर बनाया , और हमने ही तय कर लिए सारे नियम , कानून और सज़ाएं भी , फिर थोप दिए आने वाली नस्लों पर।
भाई अब राखी का फ़र्ज़ खाप पंचायतों में चुकता है। पिता को अपनी बेटी के रक्त से ज़्यादा प्यारा होता है अपनी पगड़ी का रंग। समाज में बनी पर ज़रा सी भी दरार आने पर , अपनी कलेजे की टुकड़े को ईंट पत्थरों से चुनवाने में ज़रा भी देर नहीं करता वो पिता , जिसने कभी उसको हथेलियों पर रखा था। छी कैसे होते जा रहे हैं हम , कहाँ जा रहे हैं हम , और कितनी दूर चल पाएंगे इस चरमराती सोच को लेकर , क्यूंकि लड़कियों ने तो प्यार करना सीख ही लिया है ............
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"सान पर तेज़ हो रही है नज़रों की तलवारें
पूरी भीड़ धावा बोल चुकी है
बसंत बादल स्वप्न पर
पार्कों में पहरे दे रहे हैं मुस्तैद जवान
गुलाब की खुशबू घोषित हो चुकी है
ज़हरीली
चौराहों पर जमा हो रहे हैं ईंट पथ्थर
शीशियों में भरी जा चुकी है
उबलती तेज़ाब
चमकाई जा रही है पिताओं की
पगड़ी
रंगी जा रही है भाइयों की मूछें
जिम्मेदारी की एक पूरी
मंडली कर रही है संजीदा बहसें
खचाखच भरी खाप पंचायत में
सुनाई जा रही है सभ्यता के सबसे जघन्य अपराध
की सजा
और इन सब के बावजूद लड़कियां प्यार कर रही है"
आह बेहद ही प्यारी कविता , सच कहा आपने लड़कियां फिर भी ये गुनाह कर रही हैं। क्यूंकि सीख चुकी हैं लडकियां , प्रेम करना , समझ चुकी हैं प्रेम का मतलब । जो आप नहीं समझे। इतने खूबसूरत तरीके से लिखी गयी आपकी कविताओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अस्मुरारी जी।
-निवेदिता भावसर
सार्थक पहल.....
बहुत सुन्दर प्रयास - आपका जिंदबाश