मित्रो!भारतीय ज्ञानपीठ से युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि- कथाकार विमलेश त्रिपाठी के सद्य प्रकाशित व चर्चित काव्य- संग्रह पर एक और समीक्षात्मक आलेख जिसे भेजा है कवयित्री वंदना गुप्ता ने।
कवि कैसे कह गया हमारे दिल की बात (एक देश और मरे हुए लोग - विमलेश त्रिपाठी)- वंदना गुप्ता
युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का बोधि प्रकाशन से प्रकाशित काव्य संकलन “ एक देश और मरे हुए लोग “ में पहले तो शीर्षक ही बयाँ कर देता है खत का मजमून मगर जो बात सबसे ज्यादा विरोधाभास उत्पन्न करती है वो कवि का समर्पण है जहाँ वो संग्रह को उन लोगों को समर्पित कर रहा है जिनके दिलों में सपने अब भी साँस ले रहे हैं , एक विरोधाभास में ज़िन्दगी का आभास कराने का कवि का मन्तव्य जहाँ मृत्यु के कगार पर खडी ज़िन्दगी में अभी भी आस बाकी है शायद जीने को चंद साँस उधार ही मिल जायें तो एक इतिहास वो भी गढ दें जो उम्र भर न कर पाए शायद अब कर दें ।
कवि ने काव्य संग्रह को पाँच खण्डों में बाँटा है जिसके पहले भाग में “ इस तरह मै” के माध्यम से आदमी के अन्दर की पीडा को मुखरित करने की कोशिश की है कि वो बहुत कुछ कहना चाहता है , बोलना चाहता है , लिखना चाहता है सच के मुहाने पर बैठकर मगर कोई है जो रोकता है प्रवाह को , कोई है जो बाधित करता है समय की गति को , कोई है जो वक्त के पाँव में डालता है मर्यादा की जंजीरें और इंसान का आहत मन विद्रोह करना चाहकर भी नहीं कर पाता , सच कहना चाहकर भी नहीं कह पाता और उस पल की त्रासदियों को संजोने में कवि कितना आहत हुआ है , किन पगडण्डियों से गुजरा है कि लावे को फ़ूटने में जैसे इक युग लगा है , खुद को चिन्हित करता कवि ह्रदय जाने कितनी बार व्यथित हुआ है और व्यथा के रसायन से उत्पन्न रसायनिक क्रियायें जब आकार लेती हैं तो नये समीकरण गढती हैं तभी कवि अपने सच के साथ जीने का आदी है “इस आशा में “ कि एक दिन उसके सच को सच माना जायेगा बेशक कितने झूठ हावी होते रहें , कितने ही झूठ के किले तुम बनाते रहो सत्य धरती का सीना चीर कर भी बाहर आ जायेगा ये है कवि का विश्वास जो आम आदमी के जीने का सम्बल हुआ करता है , जो आम आदमी के विश्वास को कवि से जोडता है , जिसमें आम आदमी खुद को देखता है और उस नब्ज़ को पकडने में कवि कामयाब रहा है “ यदि दे सको “ उसी आम आदमी के जीवन का सत्य है जो सत्य की पगडण्डी पकडे चलना चाहता है इस छल फ़रेब की दुनिया में भी अपनी राह नहीं छोडना चाहता क्योंकि “ जीने की लालसा “ हर फ़रेब हर छद्म को झुठलाना चाहती है , एक मृग मरीचिका मानो लालायित करती है आओ यहाँ पानी है , देखो यहाँ ज़िन्दगी है , देखो यहाँ खुशहाली है और इंसान उसी भ्रम में एक जीवन गुजार जाता है फिर उसके लिये चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ उसकी उम्मीदों की थाली पर वज्रपात करें जीने की जीजिविषा हर मुश्किल से आँख मिला आगे बढ्ती जाती है तभी कवि कहता है -------
“इस तरह मैं आदमी एक /इस कठिन समय में/ जिंदा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीजों के बीच /अशेष ………।
वहीं दूसरी तरफ़ कवि ह्रदय कविता में खुद को ढूँढता जब साँस लेना चाहता है तो पता चलता है आत्मा तो जाने कब , कहाँ गुम हो चुकी और वो जाने ज़िन्दा भी है या नहीं ? कहीं एक बेबसी की झलक उभर कर आती है तो कहीं रोशनी के कतरों को ढूँढता एक आकुल मन समय की गंगा में गोता लगाता है शायद मिल जाये उसे उसका जहान ……
मेरे आस पास के आदमी /सोच की जिन सीढियों को कर गए हैं पार/उन तक पहुँचना अब मेरे लिए लगभग नामुमकिन/एक बडे कवि की भाषा में ‘मिसफ़िट’ मैं /सोचता हूँ कि कविता की दुनिया में कहाँ फ़िट हूँ
या
कविता में आदमी को आदमी कहने से/शब्द कर रहे इंकार
या
शब्दहीन इस समय में /गुमनाम एक कवि मैं
कवि का कविता और अपनी पहचान को लेकर जो उहापोह की स्थिति बनती है उसका सशक्त चित्रण किया गया है।
इस तरह मैं के माध्यम से कवि आम आदमी के दुख, त्रासदी , अपनी जमीन अपनी मिट्टी से दूर जाने की व्यथा और जो परम्परागत रूप से सहजता समावेशित रहती थी ज़िन्दगी में उससे कटने , दूर हटने और इंसान के बेहद प्रैक्टिकल बनने से उत्पन्न मन की खाई का चित्रण करने में सफ़ल रहा है जो तभी उपजता है जब खुद उन गह्वरों से कोई गुजरता है ।
दूसरा भाग “ बिना नाम की नदियाँ “ कवि उन्हें समर्पित कर रहा है जो आधार हैं उसकी ऊर्जा का , उसके जीवन का जो शायद हर किसी के जीवन का आधार होती हैं मगर मानने से ही परहेज होता है । जल ही तो जीवन है और ये नदियाँ जीवन से लबरेज़ होती हैं इनके बिना सृष्टि न उत्पन्न होती है मगर यही हाशिये पर खडी खुद से ही दूर होती हैं , अपनी पहचान ही नहीं बना पाती हैं बस माँ , बहन , बेटी या पत्नी में ही विभक्त होती हैं मगर जननी हैं इससे इतर भी कुछ हैं कभी न जान पाती हैं या कहो जानने ही नहीं दिया गया इन्हें इनकी पहचान से महरूम रखा गया ताकि जब वक्त पडे इन्हें याद दिला दिये जायें इनके कर्तव्य और चढा दिया जाए अपने स्वार्थों की वेदी पर बलि । जान ही नहीं पाता मानव एक देह से इतर भी उसका अस्तित्व तभी जब कभी कहीं कोई निश्छल पाक मुस्कान देखता है तो याद आ जाता है उसे अपने घर की चौखट पर उतरी साँझ का अस्तित्व और शायद उस पल अहसास होता है उसे उसके होने का , उसकी अहमियत का , उसके वजूद का “ उस लडकी की हँसी “ में कवि ने इसी वेदना को साझा किया है तो दूसरी तरफ़ पौरुषिक कुंठाग्रस्त ग्रंथी पर प्रहार भी किया है अपनी कलम के माध्यम से “ एक स्त्री के लिये “ के माध्यम से कि कैसे एक पुरुष के लिये स्त्री कितनी देर के लिये अजनबी और कितनी देर के लिये अपनी होती है वो भी उसकी स्वार्थलिप्सा के लिये क्योंकि कहीं न कहीं पुरुष देख ही नहीं पाता या कहो कबूल ही नहीं कर पाता उसके अस्तित्व को देह से परे और स्वीकारता है इन लफ़्ज़ों के माध्यम से -------
“उजाले में छुप जाती /उगती अंधेरे में जुगनू की तरह /चौबीस में बारह घंटे अजनबी /और बारह घंटे अपनी /हर दिन मेरे पुरुष के खोल से /
निकलती हो/तुम नई बनकर /हर रोज नए सिरे से /खोजता हूँ तुम्हें “
तो दूसरी ओर “ होस्टल की लडकियाँ “ में नारी के जीवन का दर्शन संजोया है वो क्या बनायी गयीं और वो क्या हैं , उनसे क्या छीना गया और उन्होने क्या चाहा इसी का सशक्त चित्रण करती कविता स्त्री के साथ न्याय करती है ये कहकर ------ “ उन्हें जरूरत उस संगीत की जो जीवन में / एक बार ही बज पाता है / सबसे खूबसूरत और सबसे सधे और मीठे सुर में / उन्हें जरूरत उस मृत्यु की / जिसके बाद सचमुच का जीवन शुरु होता है । “
आडम्बरहीन लेखन ही वक्त की शाख पर टिका वो पत्ता होता है जिसमें ज़िन्दगी अठखेलियाँ किया करती है , हरी दूब अपने होने पर रश्क किया करती है , ओस अपनी क्षणभंगुरता पर गुमान किया करती है बस ऐसे ही अहसासों का दस्तावेज है ये संग्रह जहाँ कवि ने तीसरे भाग को ज़िन्दगी के सुख दुख के संगीत में बाँटा है और सच ही तो है ज़ीवन सुख और दुख का एक संगीत ही तो है जिसमें कभी हम हँसते हैं कभी दुखी होते हैं , कभी हताश , निराश तो कभी प्रफ़ुल्लित , पुलकित । जहाँ जीवन की वीणा अपने सप्त सुरों के साथ हर राग में गायन , वादन और नृत्यन किया करती है और इंसान रूपी खिलौना उसके हाथों में यूँ सुशोभित होता है मानो किसी साज को बहुत संजीदगी से सहेजा गया हो मगर साज को खबर ही न हो । तभी “ सपने “ देखते इंसान की जद्दोजहद को इस तरह आँका है कि हर बार बदलता गया सपना उम्र के पडाव के साथ जहाँ सब कुछ होने और कुछ न होने की बेबसी सपनों को यूँ चिन्हित करती है कि दोनो स्वरूप एकाकार हो जाते हैं फिर ज़िन्दगी मे चाहे खुशियों की गहमागहमी हो या दुखों के अलंकरण सपने तो सपने होते हैं कब किसी के अपने होते हैं।
हर परिस्थिति से गुजरा मन जब शब्दों के माध्यम से आकार देने लगता है तब जैसे एक बार फिर उन्ही गलियों में विचरण करता है और तब जिस जिस से मिला होता है या कहो जिस जिस ने अपनी छाप छोडी होती है वो सब स्वमेव समाहित हो जाते हैं उसके लेखन में और इस तरह कवि लिख देता है पूरा जीवन चंद शब्दों में अपने अनुभव के विस्तार के रूप में फिर चाहे वो ‘ ओझा बाबा को याद करते हुए हो ‘ या ‘ बहुत जमाने पहले की बारिश ‘ में भीगी यादों के अक्स वर्तमान को भिगो रहे हों या ‘ तुम्हें ईद मुबारक हो सैफ़ुद्दीन ‘ के माध्यम से जाति प्रथा के दंश को झेलते मन की व्यथा हो , प्रहार बराबर हुआ है तभी ‘ अंकुर के लिये ‘ कविता के माध्यम से बेटे को सीख देता कवि कहता है -------मेरे बच्चे परिस्थितियाँ चाहे लाख बुरी हों / संबंधों को नदी के पानी की तरह बचाना / सहेजना एक एक उसे प्रेम – पत्रों की तरह / मेरे बच्चे मुझ पर नहीं / अपनी माँ पर नहीं / किसी ईश्वर पर नहीं / भरोसा रखना इस देश के करोडों लोगों पर / जो सब-कुछ सहकर भी रहते हैं ज़िंदा
एक आदर्श को जिंदा रखने की चाहत ही कवि को ये कहने को मजबूर करती है क्योंकि आज जो हम बचायेंगे , सहेजेंगे वो ही बचा रहेगा आने वाली पीढी तक और जीवन बिना मूल्यों के संदर्भहीन ही होता है जिसे बचाना हर पीढी का कर्तव्य है जिसे कवि ने सही मायनों में निभाया है । तभी ‘ बचे रहेंगे हम ‘ मे इसी सोच का आह्वान किया है कि इतिहास बनने से पहले खुद को खंगाल लें और खुद को पहचान जीवन के मायने सिद्ध कर सकें ताकि शर्मसार न हों आने वाली पीढियों के आगे और गर्व से सिर उठा कह सकें बचे रहेंगे हम अर्थात जीवन मूल्य , परम्परायें और संस्कृति अपने सम्पूर्ण गौरव के साथ , अपने सम्पूर्ण ओज के साथ ।
चौथे खंड में “ कविता नहीं “ के माध्यम से कविता की भूमिका , उसके अस्तित्व और विचार संप्रेक्षण के साथ कवि होने की त्रासदी , कवि के सुख दुख , कवि मन उपेक्षा की लकीर पर चलकर विरोधों की हवा में कैसे खुद को सहेजे रहता है और कविता के सौंदर्य को बचाये रखता है उसकी प्रतिबद्धता का चित्रांकन है । ‘ महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं / शब्दों की महीन लकीर पर तय करनी होती है एक पूरी उम्र ‘ जैसे पूरे जीवन की त्रासदियों , हताशाओं , कुंठाओं से उपजा दस्तावेज है जो अंत में सुझाव भी सुझा रहा है खुद को मुक्त करने के क्योंकि कवि धर्म महज कविता लिखने तक ही सीमित नहीं होता बल्कि समाज मे फ़ैली कमजोरी , त्रासदियों आदि से भी लडने की जब चाहत पैदा कर देता है तब होता है उसका लेखन सफ़ल और पूरी होती है एक कविता जैसे जागृति का प्रतीक बन तभी सार्थकता है लेखन की जब तक समाज या देश में फ़ैली भ्रांतियों को दूर नही करोगे तुम्हारा लेखन निर्मूल ही सिद्ध होगा जैसे कवि आह्वान कर रहा हो आज की पीढी का । कवि कहना चाहता है कि ऐसे बीज रोंपो जहाँ से शब्दों में हरियाली खुशहाली उपजे न कि बारुद में तब्दील हो जायें तुम्हारे शब्द , रोजमर्रा की ज़िन्दगी में से चुनो कुछ लम्हे और जी जाओ उन्हें , बस जरूरत है तो छोटी छोटी बातों में खुशियाँ तलाशने की फिर जीवन खुद कविता बन जायेगा । ‘ तीसरा ‘ के माध्यम से कविता के क्षेत्र में व्याप्त भाई भतीजावाद या कहो जुगाड पर प्रहार किया है चंद शब्दों की छोटी सी कविता का कैनवस बहुत व्यापक है।
पांचवाँ और आखिरी भाग ‘ एक देश और मरे हुए लोग ‘ संग्रह का शीर्षक तो है ही साथ ही शीर्षक को भी जस्टीफ़ाई कर रहा है । लम्बी कविता के क्षेत्र में कवि का दखल यहीं से प्रारम्भ होता है इसलिये इस अंक में महज पाँच कवितायें ही स्थान ले पायीं जहाँ शब्द शब्द जीवन की दास्ताँ है , जहाँ तेरी मेरी उसकी हम सबकी दास्तां है , जहाँ सच कहना सजा बन जाये और झूठ बुर्ज चढ जाए की दास्ताँ चप्पे चप्पे पर बिखरी पडी है । ‘ गालियाँ ‘ कविता में कवि ने गालियों के महत्त्व के साथ जन जन की पीडा को रेखांकित किया है , जब कहीं जोर नहीं चलता तो इंसान जैसे गालियाँ बकता है एक कवि कविता लिखता है जैसे लिख रहा हो गालियाँ तभी उसका मन कह उठता है कि डरता हूँ उस वक्त से जब गालियों और कविता में नहीं रह जायेगा अन्तर कितनी गहरी उतरी है कवि की लेखनी आज के परिप्रेक्ष्य में , कैसा समय आ गया है जहाँ बस अपने कहने की जद्दोजहद में हम सही और गलत में फ़र्क करना भी भूल चुके हैं ।
‘ एक पागल आदमी की चिट्ठी ‘ मानो आज के सभ्य समाज का वो चिन्ह है जिसे कभी स्वीकारा ही नहीं जाता , जिसके कहने को मह्त्त्व ही नहीं दिया जाता , पागल का प्रलाप भर कह कर दिया जाता है निष्काषित न केवल समाज से बल्कि जीवन से भी , कविता से भी महज इसलिये क्योंकि उसने समाज के बनाये नियमों से विपरीत सत्य के काँटे चुने होते हैं और सत्य की आँच पर जलना किसे पसन्द है आखिर सत्य की कसौटियों पर तो सिर्फ़ सोने को ही कसा जा सकता है फिर आभूषण बनाने के लिये तो उसमें भी खोट मिलाना जरूरी है तो फिर जो सत्य की मशाल जला चलने को उद्दयत हो उसे कैसे चलने दिया जाये , क्यों न उसे ही पागल सिद्ध किया जाये आखिर बचा रहेगा समाजिक ढाँचा क्योंकि कौन देखना चाहता है आईने में खुद को वैसे भी देश समाज और लोगों के विषय में सोचना सिर्फ़ एक पागल का ही धर्म हो सकता है आम जन का नहीं इसलिये उसे पागल सिद्ध करने से ही बचे रहेंगे देश के कुछ भ्रष्ट इतिहास , जनता का निरीहपन , संविधान को तोडने मरोडने की साजिशें और वो रुदन जो जायज है देश पर राज करने के लिये क्योंकि स्वार्थपरता की खोखली जमीनों पर देशहित , जनहित के फूल नहीं उगा करते बल्कि बंजर बनाने की क्रिया ही बचाये रखती है उन्हें इसलिये पागल सिद्ध करना ही सबसे बेहतर तरीका नज़र आता है व्यंग्यात्मक शैली में लिखी रचना कवि की दूरदृष्टि के साथ उसकी आहत संवेदना को भी दर्शाती है ।
‘ पानी ‘ के माध्यम से कहीं सूखे की भयावह त्रासदी तो कहीं मानव की उत्पत्ति तो कहीं आँख के मरते पानी पर कटाक्ष किया है तो कहीं कविताओं को काला पानी की सज़ा मुकर्रर करते हुए आज के हालात का चित्रण इस तरह किया है लगता है हम कह नहीं सके जाने कवि कैसे कह गया हमारे दिल की बात ।
‘ एक देश और मरे हुए लोग ‘ संग्रह की आखिरी कविता और सबसे लम्बी कविता जो कभी खत्म नहीं होगी जितना चाहे लिखते रहो इस पर क्योंकि मानव ने खुद उपजायी है ये त्रासदी तो भोगना भी खुद को ही पडेगा , कटना , गलना , छिजना भी पडेगा क्योंकि यहाँ ज़िन्दा है कौन ? किसकी आत्मा ज़िन्दा है ? कौन तराजू के दोनो पलडों में भार बराबर रखता है ? जब जो बोया है तो उसे काटने कोई और तो आयेगा नहीं सदियों की परम्परा को ढोने को मजबूर हैं हम क्योंकि आदत है हमें जेहनी गुलामी की , क्योंकि आदत है हमें दबकर , सब सहकर , घिसट घिसट कर ज़िन्दा रहने की और यदि कोई उससे मुक्त कराने आये तो उसे ही पागल सिद्ध करने की फिर चाहे देश की बात हो , उसकी संसद की , हिंदी की , कविता की । कौन ज़िन्दा है यहाँ ये प्रश्न उछालता कवि मानो खुद से तो लड ही रहा है साथ ही सारे जमाने पर कटाक्ष भी कर रहा है मानो कह रहा हो कि सिर्फ़ अपने लिये , अपने अपनों के लिये दो रोटी का जुगाड कर लेना , अन्याय होते देख चुप रह जाना और मूँह फ़ेर कर चल देना , देश और समाज के लिये कुछ न करना ही जीवन है , क्या ऐसे लोग वास्तव में जिंदा हैं जो गान्धारी की तरह आँख पर पट्टी बाँधे हैं, आँख होते हुए जानबूझकर अंधे बने हुए हैं क्या ऐसे लोगों को ज़िन्दा कहा जा सकता है जिनकी आत्मायें इतनी गल – सड चुकी हैं जो सही और गलत में भेद भी नहीं कर पातीं और गलत के पक्ष में अपना वोट दे खुद को सही जागृत सिद्ध करती हैं क्या ऐसे लोग देश और समाज को कुछ दे सकते हैं ? क्या ऐसे लोग कोई बदलाव ला सकते हैं ? क्या ऐसे लोगों को ज़िंदा कहा जा सकता है जिनके रोयें रोयें में बेचारगी भरी हो , जो रहमोकरम पर ज़िंदा रहने को ही जीवन समझते हों , जो जानबूझकर आँख बंद किये हो उसे कोई कैसे जगा सकता है कवि मन आहत होता है , दुखी है असंवेदनशील समाज से , व्यवस्था से , नौकरशाही से , संबंधों में उपजे अविश्वास से ऐसे में कैसे ज़िंदा रह सकती है कविता और कविता में कवि खुद ।
नैराश्य के बादलों में विचरता कवि कितना उद्वेलित है कि खुद के खो जाने के भय से ग्रस्त है और आज यही हो रहा है हर कोई एक तलाश में दौड रहा है मगर तलाश क्या है किसी को उसी का पता ही नहीं है । समग्रता में देखा जाये तो कवि ने जीवन के हर पहलू को छुआ है मगर सिर्फ़ और सिर्फ़ देश और समाज में फ़ैली अव्यवस्था , मिट्टी से अलग होने का दर्द और भाषा और कविता के दोहन तक ही सिमटा रहा उसका लेखन । कहीं भी नहीं भटका दिशा और दशा से चाहता तो समावेश कर सकता था कुछ खुशहाल पक्ष को भी मगर तब शायद न्याय न कर पाता शीर्षक से और उसी को देखते हुए कवि ने एक ही तरह की कविताओं का वितान बनाया है जिसमें बेशक आज के हर इंसान की व्यथा है जिसे कवि ने शब्द दिये हैं मगर कहीं कहीं लगता है जैसे सिर्फ़ मीठा ही मीठा खाओ तो स्वाद बदलने की जरूरत हो जाती है वैसे ही यदि कुछ अलग नज़रिये कवितायें भी इसमें होतीं तो सबकी पसन्द बनने में देर न लगती क्योंकि एक वर्ग विशेष के लोग ही जो इस तरह का साहित्य पढने में रुचि रखते हैं उन्ही तक सीमित रहने का डर है वरना संग्रह में कोई कमीं नहीं । कवि के जमीन से जुडे होने को प्रमाणिक करता संग्रह संग्रहणीय है ।
वन्दना गुप्ता
एक देश और मरे हुए लोग-कविता संग्रह/विमलेश त्रिपाठी/ प्रथम संस्करण सितंबर 2013/पेपरबैक, /पृष्ठ 144/मूल्य : 99.00 रुपये मात्र, / आवरण चित्र : कुंअर रवीन्द्र/बोधि प्रकाशन,जयपुर, /, संपर्क : 077928 47473
वन्दना गुप्ता: जन्म : 8-6-1967, शिक्षा : 10वीं -12 वीं सी बी एस सी बोर्ड, स्नातक कामर्स ( दिल्ली यूनिवर्सिटी), डिप्लोमा कम्प्यूटर में, निवास: डी ---19 , राणा प्रताप रोड, आदर्श नगर,दिल्ली-110033,फोन: 9868077896, मेल: rosered8flower@gmail.com
प्रकाशन : “ बदलती सोच के नए अर्थ “ हिन्दी कविता संग्रह, हिन्दी अकादमी के सौजन्य से 2014, प्रकाशित साझा काव्य संग्रह : 1)“टूटते सितारों की उडान “, 2)“स्त्री होकर सवाल करती है “, 3)"ह्रदय तारों का स्पंदन" 4) शब्दों के अरण्य मे, 5) प्रतिभाओं की कमी नहीं, 6) कस्तूरी, 7) सरस्वती सुमन, 8) नारी विमर्श के अर्थ, 9) शब्दों की चहलकदमी, 10) त्रिसुगन्धि काव्य संकलन, 11) बालार्क,12) जीवन बुनने में, प्रकाशित साझा पुस्तकें : 1) हिन्दी ब्लोगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रांति, 2)हिन्दी ब्लॉगिंग : स्वरुप, व्याप्ति और संभावनाएं
विभिन्न पत्रिकाओं मे प्रकाशित रचनाएं :
ब्लोग इन मीडिया, गजरौला टाइम्स ,उदंती , स्वाभिमान टाइम्स, हमारा मेट्रो, सप्तरंगी प्रेम. हिंदी साहित्य शिल्पी, वटवृक्ष, मधेपुरा टाइम्स , नव्या ,नयी गज़ल ,OBO पत्रिका, लोकसत्य , “इंटरनैशनल न्यूज़ एंड व्यूज़ डाट काम“, गर्भनाल, कादंबिनी, बिंदिया ,विभिन्न इ-मैगज़ीन , सृजक पत्रिका और “प्रवासी दुनिया वैब पोर्टल “ , अविराम साहित्यिकी , साहित्य समीर , सिम्पली जयपुर पत्रिका , ई –पत्रिका शब्दांकन , वेब मैगज़ीन "परिंदे - अहसास की उडान " आधुनिक साहित्य के अलावा ऑल इंडिया रेडियो पर काव्य पाठ,
संप्रति : सृजक पत्रिका मे उप संपादिका
सम्मान : शोभना काव्य सृजन सम्मान –2012
ब्लोगिंग की शुरुआत जून 2007
निम्न तीन ब्लोग हैं
1) ज़िन्दगी ………एक खामोश सफ़र (http://vandana-zindagi.blogspot.com)
2) ज़ख्म …………जो फ़ूलों ने दिये (http://redrose-vandana.blogspot.com)
3) एक प्रयास (http://ekprayas-vandana.blogspot.com)
बहुत संुदर समीक्षा। वंदना जी आप बधाई के पात्र हैं इतनी सुंदर समीक्षा लिखने के लिये। साथ ही विमलेश त्रिपाठी जी को भी मेरी ओर से हार्दिक बधाई । समीक्षा पढ़कर कविता संग्रह खरीदने के प्रति रूचि पैदा होना समीक्षा की उत्कृष्टता को प्रतिबिंबित करता है। सादर राकेश कुमार - बिलासपुर छ.ग.