कमलेश्वर (स्मृति- दिवस)
मित्रो! नई कहानी के पुरोधाओं में से एक कमलेश्वर के स्मृति दिवस पर पाठकनामा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है कमलेश्वर की एक अचर्चित कहानी।
कमलेश्वर
साहित्य अकादमी पुरस्कार (2003) व पद्मभूषण (2005) से सम्मानित नई कहानी
आंदोलन के प्रवर्त्तकों में एक कमलेश्वर राजेन्द्र यादव के साथ कहानी के
सबसे अधिक चर्चित और बेबाक हस्ताक्षर रहे। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता,
स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा साहित्य की लगभग हर गद्य विधा में साधिकार लिखने
वाले कमलेश्वर ने हिन्दी को राजा निरबंसिया, मांस का दरिया, नीली झील,
तलाश, बयान, नागमणि, अपना एकांत, आसक्ति, ज़िंदा मुर्दे, जॉर्ज पंचम की
नाक, मुर्दों की दुनिया, कस्बे का आदमी, स्मारक (कहानी) एक सड़क सत्तावन
गलियाँ, तीसरा आदमी, डाक बंगला, समुद्र में खोया हुआ आदमी, काली आँधी,
आगामी अतीत सुबह...दोपहर...शाम, रेगिस्तान, लौटे हुए मुसाफ़िर, वही बात,
एक और चंद्रकांता, कितने पाकिस्तान (उपन्यास), अधूरी आवाज़, रेत पर
लिखे नाम, हिंदोस्ता हमारा (नाटक), जो मैंने जिया, यादों के चिराग, जलती
हुई नदी (संस्मरण) के अलावा सौतन की बेटी(१९८९)-संवाद, लैला(१९८४)- संवाद,
पटकथा, यह देश (१९८४) -संवाद, रंग बिरंगी(१९८३) -कहानी, सौतन(१९८३)-
संवाद, साजन की सहेली(१९८१)- संवाद, पटकथा, राम बलराम (१९८०)- संवाद,
पटकथा, मौसम(१९७५)- कहानी, आंधी (१९७५)- उपन्यास सहित लगभग ९९ ९९ फ़िल्मों
व टीवी सीरीयल दर्पण. एक कहानी, चंद्रकांता के संवाद, कहानी या पटकथा
लेखन व धर्मयुग, विहान(१९५४), नई कहानियाँ(१९५८-६६), सारिका(१९६७-७८),
कथायात्रा (१९७८-७९), गंगा(१९८४-८८), इंगित (१९६१-६८), श्रीवर्षा (१९७९-८०)
जैसी पत्रिकाओं व दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर में स्तंभ लेखन भी किया। मेरा
सौभाग्य की मैंने कमेश्वर को न केवल देखा है, उनके साथ यादवेन्द्र शर्मा
’चंद्र’ के निवास पर गप्प गोष्ठी भी की है।
कामरेड - कमलेश्वर
लाल हिन्द, कामरेड!--एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल
हिन्द--कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे
भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं!
वास्तव में किसी हद तक यह सत्य भी है कि कामरेड की 'रेड' से सरकार
तक चौंक जाती है। इनकी 'रेड' भी बड़े मजे की होती है, 'रेड' की पहली मंजिल
में ये हड़ताल, दूसरी में मारपीट, तीसरी में अनशन, चौथी में जेल-यात्रा तक
की धमकी देते हैं।
मैं इस शहर में नया-नया ही पहुँचा था, बहुत कठिनाई से एक कमरा इस
मुहल्ले में पा सका। दूसरे दिन ही देखा कि तमाम खद्दरधारियों का ताँता इस
मुहल्ले में, ख़ास कर मेरी पतली-सी सँकरी गली में लगा रहता। अनुमान लगाया
सम्भवत: कांग्रेस की किसी सभा का आयोजन हो रहा है, इस कारण
कार्यकर्ता-लोगों की दौड़-धूप मची रहती है। लगभग एक महीना बीत जाने पर किसी
विशेष सभा आदि की बात नहीं सुनाई दी। एक दिन मैंने साहस करके एक कामरेड को
रोककर पूछा-- श्रीमान, आप लोग यहां दिन भर क्यों चक्कर काटते हैं?
पहले तो वे कुछ नाराज़ से हुए, फिर बड़ी अदा से अपने पतले से रूखे बालों पर हाथ फेरकर बोले-- आप शायद नए-नए यहां आए हैं।
-- जी हां।--मैंने कहा।
-- तभी । आपका मकान कौन-सा है? --उन्होंने पूछा ।
-- वह! --मैंने इशारा करके उन्हें बता दिया।
-- यहां य़ह आपके मकान की बगल में हमारी पार्टी का 'प्रॉविंशियल' ऑफिस है।
-- क्षमा कीजिएगा म़ुझे मालूम न था --मैं बोला-- अच्छा नमस्ते।
--अजी नमस्ते हो जाएगी, लेकिन आप करते क्या हैं? --कुछ ज़बरदस्ती-सी करते हुए वह बोले।
-- मैं तो विद्यार्थी हूँ।
--अच्छा त़ो कभी-कभी मिला कीजिएगा, यहां ऑफ़िस में आ जाया कीजिए। कभी-कभी क़ुछ 'पार्टी लिटरेचर' का अध्ययन कर लिया कीजिए।
--धन्यवाद!
--अच्छा, लाल हिन्द --कहकर उन्होंने मेरे ऊपर मुक्का तान दिया।
मैंने डरते-डरते दोनों करबद्ध करके अपनी अहिंसात्मक प्रवृत्ति का परिचय
दिया।
मेरा जिन कामरेड से परिचय हुआ उनका पूरा नाम था कामरेड सत्यपाल। वे
भी वहीं प्रान्तीय ऑफिस में डेरा डाले थे। किसी लिमिटेड कम्पनी में एजेंट
थे। काम रहता था घूमने-फिरने का, इस कारण समाज-सेवा का व्रत लेने में
कठिनाई न थी। पिताजी उनके यद्यपि रहते थे इसी शहर में और सम्भवत: हाईकोर्ट
में दफ़्तरी थे, परन्तु उनको कुछ शर्म आती थी अपने पिता के साथ रहने में और
इसी कारण उनसे किनारा करके यहां आ बसे थे।
सात बजे का भोंपू बज चुका था, दीवारों पर सूरज की किरणें पड़ने लगीं
थीं। दूध लेने वाले अपने-अपने लोटे ले-लेकर घर से बाहर निकल चुके थे,
गंगा-स्नान को जाने वाली यात्रियों की टोलियां मिलिटरी की भाँति पंक्ति में
एक के पीछे एक गंगा मइया के नारे बुलन्द करती जा रही थीं। मोटे-पतले
बेचारे अपनी-अपनी पेंट सम्भालते हाथ में टिफ़िन कैरियर लिए पुल की ओर
बेतहाशा दौड़े चले जा रहे थे। धर्मशाला में चहल-पहल आरम्भ हो गई थी।
नुक्कड़ के मिठाई वाले ने पत्थर के कोयले की अंगीठी सुलगा कर, जलेबी बनाने
के लिए कड़ाही चढ़ाकर डालडा का पीपा उलट दिया था। पास बैठा, मैला-सा अंगोछा
लपेटे नौकर बासी चाशनी में पड़े चींटे और मक्खियां बीन-बीन कर फेंक रहा
था, पर हमारे कामरेड बारजे के एक पतले कोने में चादर लपेटे अच्छा ख़ासा
पार्सल बने अपनी पांचवी नींद पूरी कर रहे थे। धीरे-धीरे सुबह से दौड़ते
अख़बार वालों की चहल-पहल समाप्त हुई और रात भर से बन्द दुकानों के दरवाजे
चरमरा कर खुलने आरम्भ हुए तो उन्होंने एक करवट बदली और यह सिद्ध किया कि
उनमें अभी जान बाकी थी। थके घोड़े की भांति तीन-चार बार लोट लगा कर
उन्होंने अपनी चादर केवल गर्दन तक हटा कर सिर खोला, नज़र आई केवल
लम्बी-लम्बी रूखी जटाएं, जैसे कलकत्ते से आने वाले किसी व्यक्ति ने अपने
'होलडोल' (होल्ड आल) में से नारियल निकाल दिया हो, और फिर उन्होंने वहीं से
आवाज़ लगाई-- इलाही!
-- जी --इलाही ने भीतर से उत्तर दिया।
-- टी! कुछ अलसाये से वह बोले ।
-- दूध नहीं हैं।
-- क्यों, क्या डेरी वाला अभी तक नहीं आया? तो आज से उससे मना करा दो, इतनी देर में दूध नहीं चाहिए, कल से न आए।
-- उसने तो कल से ही देना बन्द कर दिया है प़न्द्रह दिन का हिसाब साफ़ करने को कह रहा था। --इलाही ने भीतर से कहा।
-- बकता है, पहली तारीख़ को डेढ़ रूपया दिया था, कल उससे हिसाब करके जो कुछ निकले तुम रख लेना और कल से दूध बन्द।
-- आज सत्ताइस तारीख हो गई। पहली तारीख को डेढ़ रूपया दिया था। हिसाब करके तुम रख लेना।
कहकर इलाही खट-खट करता नीचे उतर गया ।
पाख़ाना जाने की किसे फुर्सत, खद्दर का कुर्ता चढ़ाकर, हाथ में पुराना
अख़बार दबा कर उलझे हुए कामरेड नीचे उतर कर धर्मशाला के पास खड़े रिक्शे
वालों के मजमें में समा गए। एक से बोले-- क्यों इतवारी! उस दिन जो तुम्हारा
रिक्शा 'बस्ट' हुआ था उसे जुड़वाने के दाम मालिक ने ही दिए थे?
वह जवाब भी न दे पाया था कि कामरेड दूसरे से बोल पड़े-- क्यों मंगू!
उस साहब से चौक से यहां तक का एक रूपया वसूल कर पाया था नहीं । या सिर्फ
चवन्नी ही दी उसने।
-- अरे भइया सिरफ़ चवन्नी दी उसने ब़ड़ा जालिम था।
-- इन जालिमों के अत्याचार मिटाने को तुम्हें संगठित होना पड़ेगा,
अपने हक के लिए तुम्हें लड़ना पड़ेगा. . .तुम्हारी क्या औक़ात है, क्या
हस्ती है इसे तुम नहीं जानते। इनसे लड़ने को, अपनी मज़दूरी पूरी लेने को,
अपने सड़ते बीवी-बच्चों, उनकी भूखी आत्माओं को शान्त करने के लिए, भर-पेट
अन्न पाने के लिए तुम्हें ख़ून-पसीना एक करना होगा, एक साथ सबको खड़ा होना
चाहिए स़बकी एक आवाज़ हो, एक मांग हो। अपनी ताकत को पहचानो! कल ही एक
रिक्शा-मज़दूर यूनियन बनाओ। परसों से सारे शहर में हड़ताल कर दो। मैं और
मेरे साथी तुम्हारा साथ देंगे। अपनी मांगों के परचे छपवाओ, सबसे चार-चार
आने जमा कर लो, ये सब तुम लोगों के काम आएंगे। लेकिन बहुत जल्दी करो।
अच्छा, अब मैं चलता हूँ। काम बहुत है। बिजली घर के मज़दूर मेरी राह देख रहे
होंगे। तुम आज शाम को चन्दे का काम पूरा करके मुझ से मिल लेना सामने ऑफ़िस
में! अच्छा साथियों लाल हिंद! --कहकर बड़ी तेज़ी से कामरेड सत्यपाल अपने
कमरे में आकर पड़ी चादर को धीरे-धीरे तह करने लगे।
दस बजे के लगभग कामरेड अपना बिजलीघर वाला काल्पनिक काम समाप्त करने को,
खद्दर का पजामा-कुरता पहने, हैंडबैग दबाये, 'बाटा' चप्पलें फड़फड़ाते उलझे
से उतर पड़े और फटर-फटर करते शहर की ख़ास-ख़ास सड़कों, दीवारों पर दवाइयों,
पेन बाम और सिनेमा के विज्ञापन पढ़ते - 'डाक बंगला' वास्ती, सुरैया त़ीन
मैटनी, साढ़े दस, एक व तीन बजे शाम को रीजेंट थियेटर में - जैसे थके-मांदे
फुटपाथ से होते-होते 'वाटर-वर्क्स' के फाटक से जा टकराए। चपरासी से बोले--
क्यों भाई ।
-- कहाँ जाना चाहते हैं साहब! अन्दर जाने का हुक्म नहीं हैं। --फाटक पर खड़े चपरासी ने पूछते हुए कोरा-सा ज़वाब दिया।
थकान से चूर बेचारे सामने के बाग में जा कर लान पर बैठकर 'हिन्द में
लाल क्रान्ति' की रूपरेखा बनाते-बनाते, हैंडबैग का तकिया लगा कर सो गए।
शाम को जब ऑफ़िस लौटे तो मंगू को बैठे पाया, तपाक से बोले-- क्या बताऊं,
'वाटर वर्क्स' में बड़ी धांधली है, सबके सब पीछे पड़ गए... ऐसा उलझाते हैं
कि छोड़ते ही नहीं द़ेर तो नहीं हुई तुम्हें आए।
-- नहीं भइया, आज तुम्हारी जोश की बातों ने हममें जान डाल दी, यह छ:
रूपए जमा कर लिए हैं, इन्हें रखकर कल से आप हमारा काम शुरू कर दीजिए और कल
ही हम फिर कुछ और जमा कर लेंगे।
-- अच्छा-अच्छा ठीक है, लाओ। पन्द्रह दिन में देखो क्या उलट-पुलट
होती है... आज तारीख़ है सत्ताइस! ठीक है। यह पूँजीवादी सरकार पन्द्रह
तारीख को आज़ादी की सालगिरह मनाने जा रही है जबकि हमारे गरीब मज़दूरों की
मौत की सालगिरह मन रही हैं। मैं कल फिर तुमसे मिलूंगा! अच्छा, अभी तो मुझे
प्रेस जाना है, कुछ खास 'ख़बर' निकलवानी है। अच्छा चलूँ, लाल हिन्द!
फिर वे दौड़े-दौड़े पान वाले की दुकान पर पहुँचे और बड़े गर्व से बोले-- हां जी श्यामलाल, तुम्हारा कितना पैसा बाकी है।
-- चार रूपये तीन आने!
-- मुझे तो हिसाब याद नहीं, ख़ैर तुम्हारे विश्वास पर, यह लो चार रूपये... तीन आने फिर कभी... अरे कल ही लेना।
-- बहुत अच्छा साहब। --कहकर उसने चार रूपए सन्दूकची में डाल दिए।
रिक्शा किया प्रेस पहुँचे। रिक्शे वाले को रूपये का नोट देते बोले-- लाओ, ग्यारह आने लौटाओ।
-- बाबू, आठ आने हुए यहां तक के।
-- शर्म नहीं आती आठ आने मांगते, कुल दो मील तो प्रेस है... लाओ
ग्यारह आने वापिस करो, टकसाल लगा रखी है क्या जो पैसे बना-बनाकर तुम्हें
लुटाया करूँ?
-- आठ आना मजूरी है बाबू... कोई ज्यादा नहीं मांगे।
-- अच्छा-अच्छा, ला दस आने लौटाल।
-- बड़े जालिम हो बाबू, गरीब का पेट काटते हो। --रिक्शेवाले ने पैसे देते हुए कहा।
-- गरीब में नौ मन चर्बी होती है! --और पैसे गिनते-गिनते कामरेड प्रेस में घुस गए। छ: रूपये में से एक रूपया दस आना शेष था।
भीतर पहुँच कर बड़े शिष्टाचार से सम्पादक जी से बोले-- एक विशेष समाचार छापना है।
-- स्थान तो रिक्त नहीं हैं, पर समाचार क्या है? --सम्पादक बोले।
-- कामरेड सत्यपाल का एक विशेष उल्लेखनीय समाचार है।
-- क्षमा कीजियेगा। चौथे पृष्ठ पर विज्ञापन के कालम खाली है, उन्हीं में विज्ञापन की दर पर छप सकेगा।
-- बड़ी कृपा होगी यदि आप ऐसे ही छाप दें।
-- असमर्थता है मित्र, केवल दो रूपए पड़ेंगे, विज्ञापन की दर पर जाएगा।
-- अच्छा डेढ़ रूपया रखिए, धन्यवाद।
थोड़ी देर बाद कामरेड अपने कुरते की जेब में हाथ डाले चौकोर दुअन्नी के
चारों कानों पर हाथ फेरते प्रसन्न से लौट आए। दूसरे दिन स्थानीय दैनिक में
था --कामरेड सत्यपाल का तूफ़ानी कार्य; रिक्शा मज़दूर यूनियन का जन्म! और
कुछ थोड़ा-सा विवरण। और आज सुबह कामरेड पुराने अख़बार के स्थान पर ताजा
अख़बार लिए चौथा पृष्ठ ऊपर किए रिक्शेवालों के मजमे में थे।
धीरे-धीरे काम बढ़ रहा था, दिन निकल रहे थे। सोलह अगस्त था। बेचारे
कामरेड पन्द्रह अगस्त के उत्सव के उपलक्ष्य में जाली रसीदें काट-काट कर
चन्दा जमा करने के जुर्म में दो सिपाहियों के साथ कोतवाली की ओर चले जा रहे
थे तो यूनियन के एक रिक्शेवाले ने देखकर आश्चर्य से पूछा-- कामरेड, यह
क्या?
-- अरे भाई! ग़रीबों के लिए जो बोलता है उसका यही हाल होता है, मैं
ग़रीबों के लिए बोला, यह अंज़ाम मिला, परन्तु चिन्ता नहीं, ग़रीबों को मिले
रोटी तो मेरी जान सस्ती है. . .लाल हिन्द जिन्दाबाद!
और सच्चाई कामरेड की लच्छेदार बातों में दुबक कर रह गई, वह फिर चीख पड़े--लाल हिन्द जिन्दाबाद!
दो-तीन रिक्शेवाले चीख उठे-- लाल हिन्द ज़िन्दाबाद! कामरेड सत्यपाल ज़िन्दाबाद!! ज़िन्दाबाद!!!
-कमलेश्वर
(साभार- गद्यकोश)